खबरों की खबर: ‘जादूगर’ का सियासी शो!

गोपाल झा.
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रुप्रदेश’ के सियासी तारामंडल में प्रभावी नक्षत्र माने जाते हैं ‘जादूगर’। इन दिनों ‘स्थिर’ हैं, ‘जिस्मानी’ तौर पर। दिल और दिमाग की गति पूर्व की तरह तीव्र है। कहावत भी है, भीड़ से दूर रहकर व्यक्ति तन्हाई में कुछ ज्यादा ही सक्र्रिय रह पाता है। ‘जादूगर’ पर यह बात फिट बैठती है। मीडिया के ‘करीब’ रहने वालेे ‘जादूगर’ इन दिनों दूर-दूर हैं। लेकिन सुर्खियां बटोरने में किसी से पीछे नहीं। सोशल मीडिया पर उनके तेवर पहले की भांति चर्चा का केंद्र बने रहते हैं। पिंकसिटी के सियासी गलियारे में इन दिनों बड़ा सवाल तैर रहा है। आखिर, ‘पंजे वाली पार्टी’ की कमान किसके हाथ में रहेगी। ‘जादूगर’ के इर्दगिर्द या ‘उड़ान’ भरने के हिमायती युवा नेता के पास? बताया जा रहा है कि चुनाव से पहले और परिणाम आने के बाद पार्टी की अंदरुनी सियासत में कई बदलाव हुए हैं। ‘प्रदेश मुखिया’ भी खुद का ‘कद’ बनाने में जुट गए हैं। वे ‘सेतु’ तोड़कर डायरेक्ट आलाकमान से नजदीकियां बढ़ाने लगे हैं। बाड़मेर वाले नेताजी पहले ही ‘आंख’ दिखाने लगे थे। ऐसे में ‘जादूगर’ अलर्ट मोड पर बताए जाते हैं। उनके गुप्तचर अपना काम कर रहे हैं। विरोधियों की हर गतिविधियों पर नजर है। ‘जादूगर’ ज्यादा दिन तक शांत नहीं रह सकते। लेकिन चिकित्सकीय परामर्श को टालना मुमकिन नहीं। कुछ समय और ‘विश्राम’ करने की हिदायत दी गई है। खबर पक्की है, ‘उड़ान’ भरने के हिमायती युवा नेताजी फिर से अपना ‘सेटअप’ तैयार करने में जुटे हैं। किसी को कानोकान भनक न लगे, इस हिसाब से। तो क्या, इस बार वे ‘जादूगर’ का सियासी शो ‘फ्लॉप’ करने में सफल होंगे ? इस सवाल का जवाब तो आने वाला वक्त देगा लेकिन इतना जरूर है कि ‘पंजे वाली पार्टी’ में सब कुछ ठीक नहीं है। कोई शक ?

‘बोल्ड’ नहीं रहा शीर्ष नेतृत्व!
च्च सदन’ में मरुप्रदेश से एक सदस्य का चुनाव होना है। ‘फूल वाली पार्टी’ उलझन में है और पंजे वाली पार्टी में बेफिक्री का आलम। संख्या बल के हिसाब से ‘फूल वाली पार्टी’ की जीत निश्चित है, इसलिए ‘पंजे वाली पार्टी’ कोई ‘टेंशन’ लेना मुनासिब नहीं समझ रही। ठीक भी है। उधर, ‘फूल वाली पार्टी’ प्रत्याशी चयन को लेकर पसोपेश की स्थिति में है। ‘नॉमिनेशन’ प्रक्रिया शुरू होने के बावजूद पार्टी की चुप्पी सब कुछ ‘ठीक’ नहीं होने की तरफ इशारा कर रही है। चर्चा है, राज्य के चार क्षत्रप ‘उच्च सदन’ जाने के इच्छुक हैं। यही पार्टी की परेशानी है। शीर्ष नेतृत्व को अब मरुप्रदेश की राजनीति में ‘मनमर्जी’ से ‘घबराहट’ होने लगी है। इसलिए वह फूंक-फूंककर कदम आगे बढ़ा रहा है। सबको साधने के बाद उचित निर्णय की तरफ पार्टी रुख करना चाहती है। अंदरुनी खबर है, पार्टी सबको संतुष्ट कर प्रत्याशी का एलान करेगी। इसके लिए ए और बी प्लान तैयार है। ए प्लान के तहत ‘राज्य’ के नेता को उम्मीदवार बनाने का प्रयास है और इसमें दिक्कत होने पर राज्य के बाहरी नेता का चयन तय है। मतलब, संख्या बल होने के बावजूद निर्णय करना आसान नहीं। तो क्या नेतृत्व अब ‘बोल्ड’ नहीं रहा ?

‘फैक्स’ युग में सरकार!
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क्नोलॉजी के हिसाब से वह ‘फैक्स’ युग था। कितना ही महत्वपूर्ण आदेश हो, कागज अटक-अटककर बाहर निकलता था। सीक्रेट आदेश की अंदेशा में ‘हाकिम’ खुद फैक्स के पास खड़े रहते थे और एक वो फैक्स मशीन थी जिस पर ‘हाकिम’ का असर नहीं होता था। राज्य सरकार पर फैक्स मशीन का असर आ गया, लगता है। ब्यूरोक्रेसी में बदलाव को लेकर फैसले नहीं हो पा रहे। विधानसभा सत्र के बाद व्यापक बदलाव की संभावना जताई जा रही थी। यूं लग रहा था जैसे आमूलचूल परिवर्तन होंगे लेकिन जब लिस्ट आई तो अद्द एक आईएएस की। चंद आईपीएस, आरपीएस और आरएएस अफसरों की। बताया जा रहा है, सरकार अनिर्णय की स्थिति में है। सत्तापक्ष के ‘माननीय’ अपने हिसाब से अफसर नियुक्त करवाना चाहते हैं लेकिन बात बन नहीं पा रही। इससे दो बात सामने आई है। एक तो अफसर अब अफसर नहीं रहे। वे ‘माननीयों’ के ‘मातहत’ बनकर रहने के आदी हो गए हैं। दूसरी बात, सबको संतुष्ट रखना सरकार के बूते की बात नहीं। परिणामस्वरूप ‘ई-मेल’ के इस युग में सरकार पर ‘फैक्स’ युग का असर है यानी कोई भी आदेश ‘खटाखट’ नहीं आता बल्कि अटक-अटककर आता है। सचमुच, ये तो कमाल है न ?

संकुचित सोच के ये सियासतदान!
सियासतदान संकुचित सोच के लिए ‘कुख्यात’ रहते हैं। नकारात्मकता से लबालब भी। जब उनमें सकारात्मकता आ जाती है तब वे सियासतदान नहीं रह जाते। सियासत की दुनिया में यह चर्चित कहावत है। बात ‘पड़ोसी’ देश की है। वहां पर ‘आंतरिक लोकतंत्र’ अब ‘उबलते’ हुए बाहर निकल रहा है। निशाने पर है अल्पसंख्यक समुदाय। इससे हमारे देश के ‘बहुसंख्यक’ व्यथित हैं। बैठकें हो रही हैं, सरकार तक ‘नाराजगी’ पहुंचाई जा रही है। दुनिया तक ‘मैसेज’ भेजे जा रहे हैं। देखा जाए तो यह व्यथा उचित ही है। सच तो है कि किसी भी इंसान के साथ ज्यादती इंसानियत के खिलाफ है। इंसान को मजहब के तराजू पर तोलना ही अमानवीय है। बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक। है तो इंसान ही। सनद रहे, हाय तौबा मचाने वालों में वे लोग भी हैं जो अपने देश के ‘अल्पसंख्यकों’ को निशाने पर रखते हैं। तो क्या, ऐसे लोग अपने विचार में परिवर्तन लाएंगे ? अल्पसंख्यक देश के भीतर हों या बाहर। वे तो अल्पसंख्यक ही रहेंगे। उनकी सलामती का जिम्मा बहुसंख्यकों के पास ही रहेगा। वैसे निदा फाजली ने बहुत पहले कहा भी था,
‘इंसान में हैवान यहां भी है वहां भी
अल्लाह निगहबान यहां भी है वहां भी
खूं ख्वार दरिंदों के फखत नाम अलग हैं
हर शहर बयाबान यहां भी हैं वहां भी
कुछ भी हो। बात समझने की है। सत्ता के लिए सियासत करने वालों से ‘समझ’ की उम्मीद बेमानी है लेकिन अद्द इंसान से तो उम्मीद जरूरी है न!

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