गोपाल झा.
राजस्थान की सियासत में उबाल है। ‘फूल वाली पार्टी’ ने ‘पंजे वाली पाटी’ से तीन सीटें छीन ली है। सात में से पांच सीटें जीतकर ‘फूल वाली पार्टी’ के अगुआ नेता फूले नहीं समा रहे हैं। दिल ‘गार्डन-गार्डन’ हो रहा है। ‘वजीर ए खास’ का सियासी ‘वजन’ बढ़ गया है। अब तो राज्य प्रभारी ने कह दिया कि विधानसभा चुनाव भी ‘वजीर ए खास’ के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। लेकिन ‘वजीर ए खास’ जानते हैं, इस तरह के बयानों का कोई मतलब नहीं। राजनीति में वर्तमान ही भविष्य का निर्धारण करता है। बेहतर ‘परफॉर्मेंस’ का दबाव तो रहेगा ही। वैसे, जिस तरह सात सीटों पर हुए उप चुनाव में ‘वजीर ए खास’ ने कमान संभाली और सीनियर लीडर्स को किनारे रखा, रणनीतिक तौर पर काम किया इससे साफ लग रहा है कि आने वाला वक्त ‘वजीर ए खास’ की जिंदगी में उजास भर देगा। बाकी तो वक्त ही बताएगा। है न!
‘दर्दे डिस्को’ करेंगे ‘बाबा’
दर्द और डिस्को। देखा जाए तो कोई मेल नहीं। लेकिन सिनेमाई विद्वान इसे भी सच साबित कर देते हैं और इन दोनों शब्दों को ‘फेमस’ कर देते हैं। खैर। बात ‘दौसा वाले बाबा’ की करनी है। दरअसल, ‘बाबा’ न सिर्फ ‘फूल वाली पार्टी’ बल्कि ‘दिल्ली दरबार’ को भी सांसत में डालकर रखते हैं। जाहिर है, ‘दिल्ली दरबार’ समय पर सबका ‘उपचार’ करने के लिए जाना जाता है। कैबिनेट से इस्तीफा देने के बाद ‘बाबा’ ने सरकार की जबरदस्त ‘बेइज्जती’ की। ‘दिल्ली दरबार’ ने बुलाया, बात की लेकिन ‘बाबा’ नहीं माने। आखिर में ‘दरबार’ ने सियासी पैंतरा फेंका। ‘बाबा’ को भाई के नाम टिकट थमाया और विदा कर दिया। ‘बाबा’ ने खूब करतबें दिखाईं। एक भी काम न आईं। ‘बाबा’ अब ‘दर्द’ में डूबे हुए हैं। लेकिन जानकार लोग बताते हैं कि ये ‘दौसा वाले बाबा’ हैं। मुमकिन है, वे कुछ समय बाद ‘दर्दे डिस्को’ शुरू कर दें। देखा जाए तो ‘फूल वाली पार्टी’ को इसी बात का डर है। सियासत में ‘दर्दे डिस्को’ अच्छा नहीं माना जाता। समझे।
‘पंजे वाली पार्टी’ की उपलब्धि!
‘पंजे वाली पार्टी’ का प्रदेश मुख्यालय सन्नाटे में डूबा हुआ है। सात में से महज एक सीट मिली। चार सीटें थीं, तो तीन सीटों का नुकसान। वैसे अरसे से पार्टी फायदे के लिए ‘तरस’ रही है। एक उम्मीद थी, जो टूट चुकी है। सियासत के भविष्यद्रष्टाओं ने एलान किया था कि ‘पंजे वाली पार्टी’ को उप चुनाव जीतने में महारत हासिल है। दिग्गज उत्साहित थे। पोल-पट्टी सामने आ चुकी है। अब पार्टी अपनी ‘परंपरा’ का निर्वहन करेगी। पराजय पर अंदरखाने मंथन होगा। हार का ठिकरा एक-दूसरे पर फोड़ा जाएगा। संभव है, कोई कमेटी बन जाए। रिपोर्ट तैयार करने का प्रस्ताव पारित हो। फिर उस रिपोर्ट को ठण्डे बस्ते में डाल दिया जाएगा। खैर। समझने की बात यह है कि पार्टी पराजय को पचाने के लिए अभ्यस्त हो चुकी है। आज के दौर में आप इसे छोटी उपलब्धि मानते हैं ?
संकट में ‘हनुमान’
उप चुनाव में दौसा और खींवसर पर सबकी नजर टिकी थी। ‘बाबा’ हारे और ‘हनुमान’ भी। खींवसर का परिणाम आने के बाद ‘हनुमान का दल’ सदमे में है तो ‘फूल वाली पार्टी’ जश्न मना रही है लेकिन तीसरे नंबर पर रही ‘पंजे वाली पार्टी’ के रहनुमा के मन में लड्डू फूट रहे हैं। अब आप कहेंगे कि यह कैसे संभव है ? पार्टी की तो करारी हार हुई है, फिर लड्डू फूटने का मतलब ? दरअसल, सियासत का शब्दकोष अलग है। इसमें कभी-कभी ‘जीत’ पर ‘मातम’ और ‘हार’ पर ‘प्रसन्नता’ जाहिर करने का रिवाज है। दो प्रमुख पार्टियों के साथ जुगलबंदी करने में माहिर ‘हनुमान’ की हार से उन्हें सुकून मिला है। इतिहास में खींवसर सीट का नाम इसलिए शिनाख्त हो गया है क्योंकि चर्चा है कि यहां पर ‘पंजे वाली पार्टी’ के विधायकों ने ‘फूल वाली पार्टी’ के पक्ष में वोट शिफ्ट करवाए। कुछ भी हो। अपने दिल को दलों के साथ बार-बार बदलने वाले सियासत के ‘हनुमान’ संकट में आ गए हैं। देखना दिलचस्प होगा कि वे इससे बाहर कैसे निकल पाते हैं?