







गोपाल झा.
मरुप्रदेश की राजधानी में ‘वजीर ए आला’ का दरबार खचाखच भरा हुआ था। दुःख और दर्द से व्याकुल जनता का हुजूम देख ‘वजीर ए आला’ का मन व्यथित हो रहा था। मन में कई तरह के सवाल सुलग रहे थे। दस माह हो गए सरकार बनने के। जनता का दर्द कम नहीं हो रहा, बल्कि बढ़ ही रहा है। जन सुनवाई के दौरान जनता की पीड़ा सुनते हुए ‘वजीर ए आला’ कुपित हो गए। उनके क्रोध रूपी ‘आग का गोला’ पास में खड़े एक अफसर पर गिर पड़ा। ‘वजीर ए आला’ अफसर से बोले-‘हे लोक सेवक! आप जो ऐश ओ आराम की जिंदगी जी रहे हो, यह सब इस जनता के आशीर्वाद का परिणाम है। जनता जनार्दन की कृपा न हो तो दो वक्त की रोटी तक नसीब न हो। इसलिए हे अधिकारी, आप मन, कर्म और वचन से अपने नैतिक कर्तव्यों का निर्वहन कीजिए। यही आपका राजधर्म है।’
कहते हैं, ‘वजीर ए आला’ के इतना कहते ही ‘दरबार’ में एक बारगी सन्नाटा पसर गया। आला अधिकारी एक-दूसरे का उतरा हुआ मुंह ताकने लगे। वहीं, ‘वजीर ए आला’ के मन में संतोष था। उन्होंने साहस जुटाकर ‘मन की बात’ कह दी थी। ब्यूरोक्रेसी तक संदेश पहुंच चुका था। वैसे अंदर की बात यह है कि ‘वजीर ए आला’ अरसे से ब्यूरोक्रेसी तक यह मैसेज पहुंचाना चाहते थे। उन्हें मौके की तलाश थी। जनता दरबार में अवसर आया तो उन्होंने फौरन सारी बात कह दी। देखना यह है कि अब इसका इसका असर किस तरह होता है। वैसे, आपको उम्मीद है क्या ?
ब्यूरोक्रेसी का तांडव!
सूबे की सरकार बार-बार तबादलों की जंबो सूची जारी कर रही। लेकिन फिर भी जिलों को अफसर नहीं मिल रहे। आलम यह है कि इस वक्त मरुप्रदेश के 85 उपखंडों में एसडीएम के पद खाली हैं। इतना ही नहीं, 10 जिले में पुलिस कप्तान तक नहीं। यह स्थिति तब है कि जब महज 35 दिन में करीब 1600 अफसर इधर से उधर हुए हैं। तकरीबन 50 आईएएस अफसर ऐसे हैं जिन पर दूसरे विभागों का अतिरिक्त चार्ज है। अफसरशाही इस कदर हावी है कि तबादला सूची जारी होने के बावजूद कई अफसर नई जगह जाकर जॉइन करना पसंद नहीं करते। सरकार को मजबूरन उनका तबादला निरस्त करना पड़ता है। अरसे बाद राज्य में अफसरशाही का तांडव देखने को मिल रहा है। अधिकांश अधिकारी आम जनता को छोड़िए, जनप्रतिनिधियों की सुनने के लिए तैयार नहीं। माना जा रहा है कि राज्य प्रशासनिक मुखिया को ‘दिल्ली दरबार’ का वरदहस्त है और निचले अधिकारियों को राज्य प्रशासनिक मुखिया का। इनके बीच में न तो जनप्रतिनिधि हैं और न ही बेचारी जनता। ‘फूल वाली पार्टी’ के आला नेता व कार्यकर्ता भी लालफीताशाही से परेशान हैं लेकिन समाधान की उम्मीद न होते देख चुप हैं। वैसे अलग-अलग तरीके से बात ‘दिल्ली दरबार’ तक पहुंचाई गई है। देखने की बात है, कोई असर होता है या नहीं।
किसके सर जीत का सेहरा!
हरियाणा में ‘फूल वाली पार्टी’ ने कमाल कर दिखाया। हारी हुई बाजी पलट गई। पहले से ज्यादा सीटें। कमाल है। अब ताजपोशी की तैयारी चल रही है। इस बीच, जीत का श्रेय लेने की होड़ सी मच गई है। मरुप्रदेश के पूर्व संगठन मुखिया को हरियाणा में बतौर प्रभारी लगाया गया था। जीत हासिल होते ही उनके समर्थक सोशल मीडिया पर उन्हें श्रेय देने लगे। कुछ पल बाद सोशल मीडिया पर शेखावाटी वाले नेताजी के समर्थकों का दबदबा नजर आया। वे इस जीत का सेहरा शेखावाटी वाले नेताजी के सिर बांध रहे थे। बात ‘दिल्ली दरबार’ तक पहुंची। फरमान आया, आना ही था। सभी एकजुट होकर जीत का श्रेय ‘प्रधान सेवक’ को दें। उनकी ‘लोकप्रियता’ का बखान करें। अब दोनों के समर्थक बैकफुट पर हैं। अंदरखाने यह कहते सुने जा रहे कि ‘प्रधानसेवक’ जीत का सेहरा ही क्यों बंधवाते फिरते हैं, कभी हार का ठिकरा भी तो अपने सर पर फोड़ना सीखें। वैसे समर्थकों ने बात तो सयानी की लेकिन मौजूदा सियासी दौर में सच बोलना गुनाह सा है। इसलिए वर्करों को अपराध करने से बचना चाहिए। हुई न दमदार बात!
कौन पहने हार की ‘हार’
‘पंजे वाली पार्टी’ ने फिर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। हरियाणा में जीती हुई बाजी हार बैठी। चुनाव से लेकर मतगणना से पहले तक ‘पंजे वाली पार्टी’ प्रचण्ड बहुमत से जीत रही थी। परिणाम आया तो अरमान धरे रह गए। ‘फूल वाली पार्टी’ ने पहले से भी ज्यादा सीटें हासिल कर लीं। वैसे पहले से ज्यादा सीटें ‘पंजे वाली पार्टी’ के हिस्से भी आई लेकिन बहुमत से बहुत दूर रही। परिणाम आने से पहले ‘संभावित जीत’ का श्रेय लेने वाले ‘वास्तविक परिणाम’ आने के बाद ‘गायब’ हो गए। हार की ‘हार’ पहनने के लिए कोई तैयार नहीं। वैसे भी ‘पंजे वाली पार्टी’ में नेता ज्यादा हो गए, वर्कर कम। ऐसे में कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। कोई शक ?







