गोपाल झा.
लक्ष्य था एनडीए के 400 पार करने का। गठबंधन 300 का आंकड़ा भी न छू पाया। बीजेपी को 370 पार ले जाने का संकल्प भी हवा में बह गया। पार्टी लड़खड़ाती हुई 240 पर सिमट गई। बात यहीं खत्म नहीं होती। शब्दों के माध्यम से ‘आग’ उगलने के लिए चर्चित स्मृति ईरानी की सियासी दुनिया भी वीरानी में बदल गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनारस से 10 लाख से भी ज्यादा वोटों से जीत का सपना देख रहे थे, राउंड में फिसले, फिर आगे बढ़े और जीते तो महज डेढ़ लाख से कुछ अधिक मतों के अंतर से। ‘राम को लाने’ का दम भरने वाली भाजपा अयोध्या में हार गई।
लोकसभा चुनाव 2024 की सिर्फ इतनी सी खासियत नहीं है। कांग्रेस 52 से 99 तक पहुंच गई। कांग्रेस की मजबूती बीजेपी की कमजोरी का कारण बन गई। मोदी का तिलिस्म बिखरता नजर आया। परिणाम तो इक इशारा है। बीजेपी को मोदी का विकल्प खोजना होगा। छद्म हिंदुत्व की राजनीति के इतर भारत के मिजाज को समझना होगा।
तो क्या, इसे सत्ता विरोधी लहर कहेंगे ? नहीं। तमाम प्रयासों के बावजूद भाजपा 240 तक पहुंची है, एनडीए गठबंधन ने बहुमत का आंकड़ा हासिल किया है। इसलिए परिणाम को सत्ता विरोधी कहना उचित नहीं होगा। हां, जनता ने मजबूत विपक्ष तैयार किया है। जब मीडिया का बड़ा तबका ‘गोदी मीडिया’ में तब्दील होकर सरकार को राजी करने के लिए ‘ता-ता थैया’ करने लगता है तो जनता सत्ता की निरंकुशता पर अंकुश लगाने के लिए इस तरह के फैसले करती है। इस लिहाज से देखें तो यह भाजपा की ही नहीं, मोदी की भी हार है और एनडीए की जीत। हालांकि टीडीपी और जेडीयू के साथ बीजेपी पांच साल तक रिश्ते निभा सकेगी, संदेह है। प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी ने दस साल तक ‘मन की बात’ की है, शायद अब यह मोदी के लिए मुमकिन न हो। अब उन्हें नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की सुननी पड़ेगी।
तो क्या, मोदी की स्वीकार्यता घटी है ? यकीनन। मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने 2014 में 282 सीटें जीती थी और 2019 में 303 सीटें। पिछले चुनाव की तुलना करीब 63 सीटों की कमी से स्पष्ट लगता है कि मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ लुढ़क गया है। उन्होंने जनता में विश्वास खोया है। विपक्षी नेताओं पर भ्रष्टाचार का आरोप मढ़ना, जांच एजेंसियों से नोटिस थमाना और फिर सौदबाजी कर भाजपा में शामिल करने की राजनीति को लोगों ने स्वीकार नहीं किया। जिस तरह शिव सेना ठाकरे गुट और एनसीपी शरद पवार गुट को समर्थन मिला है, इससे साबित होता है कि लोगों ने जोड़-तोड़ की राजनीति को नकार दिया है। तो क्या, मोदी-शाह इससे सबक लेंगे ?
छद्म हिंदुत्व के रथ पर सवार होकर भारत की आत्मा को दबाने का प्रयास कारगर नहीं हआ। हिंदुत्व जोड़ता है, ‘वसुधैव कुटुम्बम’ की पैरवी करता है लेकिन यहां तो हिंदुत्व की परिभाषा ही बदली जा रही थी। चारों शंकराचार्यों के अस्तित्व को कुलचने का प्रयास हुआ। अयोध्या के श्रीराम मर्यादित आचरण के लिए आदर्श का प्रतीक हैं, और उन्हीं का नाम लेकर मर्यादाओं को तार-तार किया जाने लगा। भारत की जनता बेहद समझदार है। यूपी के लोगों ने हिंदुत्व को पहचाना। फिर अयोध्या तो ‘राजधर्म’ का प्रतीक स्थल है। ‘न्याय’ तो होना ही था।
जहां तक कांग्रेस या ‘इंडिया’ गठबंधन के बाकी घटकों की बात है, अगर वे चुनाव परिणाम को रणनीतिक प्रयासों का प्रतिफल मानते हैं तो यह उनकी भूल है। सच तो यह है कि जिस तरह 2014 में यूपीए सरकार की कार्यशैली से नाराज होकर जनता ने बीजेपी और मोदी के प्रति उम्मीद जताई, ठीक उसी तरह 2024 में जनता ने मोदी सरकार की कार्यशैली से खफा होकर विपक्ष को मजबूत करने का बीड़ा उठाया है। सनद रहे, लोकसभा में बीजेपी फिर भी सबसे बड़ी पार्टी है। यानी सत्ता में रहने का हक उसे ही है। बेहतर होगा, इंडिया गठबंधन जनादेश का सम्मान करते हुए जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका अदा करे। सरकार बनाने का प्रयास उसे फिर गर्त में ले जा सकता है। जनादेश को समझना ही जरूरी नहीं बल्कि उसका सम्मान भी आवश्यक है। यही लोकतंत्र की मर्यादा है।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं