




गोपाल झा.
कश्मीर को अक्सर ‘जन्नत’ कहा जाता है। बर्फ से ढकी वादियाँ, झीलों में तैरती शिकारे, देवदारों की छाँव में बहती ठंडी हवाएँ। लेकिन जिस धरती को कुदरत ने जन्नत बनाया, वहां इंसानों ने ‘जहन्नुम’ बना दिया है। पहलगाम में 27 निर्दाेष लोगों की नृशंस हत्या इस बात की मिसाल है कि आतंकवाद ने न केवल कश्मीर बल्कि पूरे देश की आत्मा को झकझोर कर रख दिया है। यह घटना सिर्फ एक आतंकी हमला नहीं, बल्कि यह हमारी संवेदनहीनता, हमारी राजनीतिक विफलता और धार्मिक उन्माद की चरम परिणति है। सबसे अधिक पीड़ादायक बात यह है कि यह हमला न केवल योजनाबद्ध था बल्कि सुरक्षा की दृष्टि से लापरवाही की पराकाष्ठा भी उजागर करता है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, घटना स्थल पर एक भी सुरक्षाकर्मी तैनात नहीं था। सोचिए, एक संवेदनशील क्षेत्र, जहाँ सालों से आतंकी घटनाएँ होती रही हैं, वहाँ पर ‘राम भरोसे’ सब कुछ छोड़ दिया गया। क्या यही है ‘नया भारत’ की सुरक्षा व्यवस्था?
लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठन इस हमले को अपनी कामयाबी मान रहे हैं, जश्न मना रहे हैं। लेकिन हमारे नीति-निर्धारकों के माथे पर चिंता की एक भी लकीर नहीं दिखती। क्या सुरक्षा तंत्र इतना नाकाम हो गया है कि अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस के दौरे के समय भी वह किसी हमले की आशंका तक नहीं भांप सका? गंगा में डुबकी लगाने वालों की संख्या मिनट टू मिनट बताने वाला तंत्र कहा है? क्या सरकार पहलगाम के खतरे का अंदाजा भी नहीं लगा सकी?
यह वही तंत्र है, जो चुनावी रैलियों में भीड़ गिन सकता है, लेकिन निर्दाेष नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकता। मौत के संभावित खतरों को नहीं भांप सकता है। खुफिया एजेंसियां क्या कर रही थीं? सचमुच, यह एक चूक भर नहीं, एक सुनियोजित विफलता है, और इसके लिए जवाबदेही तय होनी चाहिए।
धर्म का उन्माद और सियासत का नशा
इस घटना के पीछे केवल आतंकी संगठन ही जिम्मेदार नहीं हैं। एक गहरी सामाजिक बीमारी भी इसके लिए जिम्मेदार है, धर्म का उन्माद। जिस तरह से कुछ टीवी चैनल और सोशल मीडिया पर दिन-रात जहर उगला जा रहा है, वह एक सामाजिक मानसिकता का निर्माण कर रहा है। जब धर्म को राजनीति का औजार बना दिया जाए, तब उसका नतीजा यही होता है।
आज जो ‘हरा’ और ‘भगवा’ के नाम पर समाज को बांट रहे हैं, वे यह भूल जाते हैं कि आतंक की कोई जाति, कोई धर्म नहीं होता। वह केवल खून बहाता है, भले वह हिंदू, मुसलमान का हो या सिख और ईसाई का।
तुष्टिकरण की राजनीति और उसका दुष्परिणाम
सरकारों की तुष्टिकरण की नीति ने भारत को एक कमजोर राष्ट्र के रूप में पेश किया है। हर बार जब कोई ऐसी घटना होती है, तो या तो राजनीति शुरू हो जाती है या फिर एक-दूसरे पर दोषारोपण। लेकिन इस बार सवाल यह है कि क्या आम नागरिकों की हत्या पर भी हम सिर्फ बयानबाजी और ट्वीट्स तक सीमित रहेंगे? क्या अब भी कोई सड़कों पर नहीं उतरेगा? क्या अब भी संसद में इस पर गंभीर चर्चा नहीं होगी? सरकार विपक्ष को शालीनता से जवाब देने की जगह उन्हें जलील करती रहेगी ? सवाल पूछने वालों को यूं ही प्रताड़ित करती रहेगी? राजनीतिक दलों के लिए यह वक्त आत्ममंथन का है। तुष्टिकरण की राजनीति ने केवल समाज में विभाजन को गहरा किया है, वह सुरक्षा के मोर्चे पर भी एक कमजोरी बन कर उभरी है।
यदि हालात ऐसे ही रहे, यदि हम धर्म और जाति के नाम पर बंटते रहे, आतंकियों के खिलाफ एकजुट नहीं हुए, और शासन-प्रशासन की विफलताओं को नजरअंदाज करते रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब भारत की हालत भी पाकिस्तान से बदतर हो जाएगी। सनद रहे, कट्टरता विनाश का पर्याय है, भले वह किसी तरह की हो।
यह भी सच है कि आतंकवाद से लड़ाई सिर्फ सुरक्षा बलों की नहीं है, यह हमारी सामाजिक चेतना और नागरिक जागरूकता की भी परीक्षा है। हमें समझना होगा कि भारत किसी एक धर्म, एक जाति या एक समुदाय का नहीं है, यह हम सबका है। जब एक समुदाय को टारगेट किया जाता है, तो असल में यह हमला पूरे देश की आत्मा पर होता है।
क्या करें हम?
पहलगाम की इस दिल दहला देने वाली घटना को लेकर हमें सड़कों पर आक्रोश दिखाना चाहिए। यह केवल जम्मू-कश्मीर का मामला नहीं है, यह भारत के भविष्य का सवाल है। हमें सरकार से जवाब मांगना चाहिए। हमें धार्मिक उन्माद फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कानूनों की मांग करनी चाहिए। हमें अपने बच्चों को धर्म का मर्म समझाना चाहिए, उसका विकृत रूप नहीं। और सबसे जरूरी, हमें सोशल मीडिया पर फैल रहे ज़हर के खिलाफ एकजुट आवाज़ उठानी चाहिए। सोशल मीडिया पर धार्मिक और जातीय ही नहीं बल्कि कोई भी ऐेसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जिससे दूसरे वर्ग को आघात पहुंचे। फ्रेंड लिस्ट में कोई ऐसा है तो उसे अनफ्रेंड या ब्लॉक किया जाना ही उचित है।
अंत में…
इस वक्त जब सियासरतदान चुनावों की तैयारियों में डूबे हों, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक सच्चे लोकतंत्र में सबसे बड़ी प्राथमिकता नागरिकों की सुरक्षा होती है। कश्मीर में मारे गए 27 लोग केवल आंकड़ा नहीं थे। वे किसी के बेटे थे, पिता थे, भाई थे। उनका खून हमारे सवालों की मांग कर रहा है। अगर हम अब भी खामोश रहे, तो इतिहास हमें कायर कहेगा, संवेदनहीन कहेगा। हमें चुनना होगा, धर्म की आड़ में बंटना है या इंसानियत के नाम पर जुड़ना है। अगर नहीं चेते, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए सिर्फ पछतावा बचेगा। क्योंकि जब आग लगेगी, तो कोई नहीं बचेगा, ना हरा, ना भगवा। बस राख बचेगी।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं

