मैं और मेरे हनुमान!

गोपाल झा.
कभी-कभी लगता है कि मेरे जीवन की नींव में, मेरे हर निर्णय के पीछे, हर कठिन समय में जो अदृश्य शक्ति रही है, वो हैं महावीर हनुमान। मुझे नहीं याद कि पहली बार कब उनके नाम से परिचय हुआ। शायद तब, जब मैंने होश संभाला है। मेरे पैतृक गांव की सुबहें भजनों की गूंज और शामें आरती की मिठास से भरी रही हैं।
गांव का महावीर स्थान न केवल धार्मिक स्थल है, बल्कि वह जगह है जहाँ हर खुशी, हर कसम, हर संकट अपनी जुबान खोलता है। आज भी नौ दिवसीय अखंड कीर्तन का आयोजन होता है जिसे ‘नवाह’ कहा जाता है। महावीर स्थान में व्यवस्थापक की भूमिका निभाते थे उपेंद्र झा, जिन्हें गांव के लोग ‘मंत्रीजी’ कहते थे। खैर।
गांव में घर के दरवाजे पर आज भी आंवले का वह पेड़ खड़ा है। गवाह है उस परंपरा का, जिसमें हम हनुमानजी का लाल ध्वज बदलते थे। जब कोई अच्छा समाचार आता, परिवार में शुभ कार्य होते तो आंवला पेड़ के साथ बांस पर ध्वज लपेट उसे फहराकर जैसे आभार प्रकट करते। यह केवल मिथिलांचल की संस्कृति नहीं, एक जीती-जागती आस्था थी, ध्वज में बंधी भावना।
मेरा बचपन अपने ननिहाल में गुजरा। जब मैं ननिहाल गया, तो एक नया अनुभव हुआ। स्कूल के गेट पर ही एक छोटा-सा हनुमान मंदिर था। वहां की शांति, वहां की सादगी, और वह छोटा सा स्थान, मेरे लिए वह बड़ा संबल बन गया। जब भी कोई उलझन होती, कोई बात मन में चलती, मैं चुपचाप उनके सामने जाकर बैठ जाता। कभी कह देता ‘अगर मेरी यह बात बन गई, तो सात बार चालीसा सुनाऊंगा।’ मुझे नहीं पता उस वक्त मेरी बातों में कितनी परिपक्वता थी, लेकिन श्रद्धा शुद्ध थी। और बार-बार महसूस किया कि मेरी सुनी जाती है। जैसे कोई मुझे सुन रहा है, समझ रहा है और थाम रहा है।
फिर…., इसे संयोग कहें या सौभाग्य, अब मेरी कर्मभूमि है, हनुमानगढ़। ‘हनुमान का गढ़’ ये नाम ही जैसे आत्मा में ऊर्जा भर देता है। जहां भी नज़र जाती है, लगता है यह भूमि किसी विशेष ऊर्जा से भरी है। यहां हर सुबह अपने भीतर एक नई उम्मीद लेकर आती है, जैसे हनुमानजी खुद कह रहे हों, ‘चलो, उठो, आज फिर से उड़ना है।’
बचपन से यही जाना, हनुमानजी पराक्रमी हैं, श्रीराम के अनन्य भक्त हैं, बुद्धिमान हैं, लेकिन जैसे-जैसे जीवन की कठिनाइयों से गुज़रा, जाना कि वे केवल पूजा के पात्र नहीं, बल्कि जीने की प्रेरणा हैं। उनका जीवन हमें सिखाता है, लक्ष्य कैसे तय करें, कर्तव्य के लिए कैसी अडिगता होनी चाहिए, और सेवा में कैसी पूर्णता होनी चाहिए। वे हमें यह नहीं कहते कि संकट नहीं आएंगे। वे यह सिखाते हैं कि संकट आएंगे, लेकिन तुम उनसे बड़े हो। जूझना है, जीतना है।
हम में से बहुत से लोग नियमित हनुमान चालीसा पढ़ते हैं। यह निःसंदेह शक्ति का स्रोत है। पर हनुमानजी जैसे खुद भी यही कहते हैं, ‘मुझसे केवल पाठ नहीं, पात्रता सीखो। मेरे गुणों को जियो।’ विनम्रता, भक्ति, साहस, बुद्धि, और त्याग, यदि ये हमारे चरित्र का हिस्सा बन जाएं, तो जीवन स्वयं ही संतुलित हो जाएगा। आज भी जब कोई समस्या आती है, जब कोई राह नहीं सूझती, मैं फिर वही पुरानी आदत दोहराता हूं। आंखें बंद करता हूं और मन ही मन कहता हूं, ‘हे संकटमोचक!, अगर यह काम हो गया तो…’
यकीन कीजिए, और न जाने कैसे, रास्ता खुल जाता है।
जैसे कोई अदृश्य हाथ पीछे से सहारा दे रहा हो, कह रहा हो, ‘डरो मत। मैं हूं न!’

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