चक मोघा 21 एमओडी की वो बैसाख!

आर्किटेक्ट ओम बिश्नोई.
‘वो दिन जब खेत मुस्कुराते थे, किसान गुनगुनाते थे, और लाटा (खलिहान) मेजबान बन इतराता था। बैसाख के महीने की दस्तक सिर्फ मौसम के बदलने की खबर नहीं लाती थी, वो एक भावनात्मक ऋतु थी, जब हर किसान की आंखों में नई उम्मीदें झलकती थीं और खेतों की फिज़ा में जीवन की सरगर्मियां भर जाती थीं।
हनुमानगढ़ की सीमा पर बसे चक नंबर 21 एमओडी की वो सुबहें, जहां नहर के मोघे पर चहलकदमी करते किसान, बैसाखी के स्वागत की तैयारी में डूबे रहते। हर ओर एक लयबद्ध हलचल होती, जैसे प्रकृति खुद कणक की बालियों की लोरी गा रही हो। खेतों की रूणी दर रूणीं (क्यारी दर क्यारी) पर झुके किसान, हाथ में दांतियां लिए, सूरज की पहली किरण के साथ सुनहरी फसल को काटना शुरू कर देते। इन दिनों बच्चों की मुस्कानें भी कुछ खास होती थीं। क्यों न होतीं? सावनी की फसल के बाद यह वही समय होता जब नए बूट और कपड़े मिलते। मां-बाप के साथ खेतों में मंडलियां बांधते ये बच्चे, जैसे बैसाख के रंगों में डूबे होते।
उधर लाटा, जो आम दिनों में शांत और वीरान रहता, अब मेजबान की तरह मुस्कुरा रहा होता। वहां कटकर आई कणक की मंडलियों के ढेर लगते। पोतिया (साफा) बांधे किरसों की बातों के ठहाके खलिहान को भी ज़िंदगी से भर देते।
लाटा के चारों ओर तूड़ी के कूपों की हथाई, आने वाले साल की तैयारी का संकेत देती। दोपहर होते-होते, जब सूरज सिर पर चढ़ आता, किसान खेत के खाले की बट पर लगी टाली की छांव में बैठ जाते। वहीं घर से लाई देगची में चाय चढ़ती, और कुछ पल कमर सीधी कर फिर लग जाते, नई पंक्तियों की रूणीं पर।
ये सिर्फ मेहनत का नहीं, संघर्ष और उल्लास का उत्सव होता। दिन ढलते-ढलते, किरसे अपना साफा उतारते, चेहरे पर लगी रेत और पसीने की परत पोंछते, और एक संतोष भरी निगाह खेतों पर डाल घर लौट जाते। वक्त का पहिया घूमा है, आज खेतों में ट्रैक्टर, कंबाइन और ड्रोन हैं। समय ने रफ्तार पकड़ी है, पर चक 21 एमओडी के मोघे पर आज भी जब बैसाखी की हवा चलती है, तो वो पुराने दृश्य लौट आते हैं, स्मृतियों की तरह।
बैसाखी सिर्फ पर्व नहीं, मेहनत की एक मिसाल है। मानवीय श्रम पर लिखे एक विद्वान के शब्द आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, ‘खेती सबसे महत्वपूर्ण मानव श्रम है। जुताई की शुरुआत के बाद ही बाकी कलाओं का जन्म होता है, इसलिये किसान ही सभ्यता के संस्थापक हैं।’
आज जब कणकां दी मुक गई राखी, तो दिल से यही दुआ निकलती है।
बैसाखी की ढेरों शुभकामनाएं, उन सभी को जिनके हाथों की लकीरों में धरती की खुशहाली बसी है।
-लेखक गांव-देहात को महसूस कर उन भावों को शब्द देने के हुनरमंद हैं

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