


गोपाल झा.
देश की राजधानी इन दिनों एक अजीब सी बेचैनी से गुजर रही है। जो हो रहा है, वह उतना ही गूढ़ है जितना एक शांत झील के भीतर उठती हल्की-सी तरंग, जिसका कारण सतह से नजर नहीं आता, पर संकेत गहरे होते हैं। दरअसल, हर सप्ताह बुधवार को होने वाली केंद्रीय कैबिनेट की मीटिंग, जो सरकार के सबसे महत्वपूर्ण निर्णय लेने का मंच होती है, अचानक रद्द कर दी गई। न कोई पूर्व सूचना, न ही कोई वैकल्पिक दिन तय हुआ। यह बात सामान्य नहीं है। अधिकतर मंत्रियों की गतिविधियों ने इस रहस्य को और भी गहरा कर दिया, जब पहले उन्होंने पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से मुलाकात की और उसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से। दो-दो शीर्ष नेताओं से व्यक्तिगत बातचीत, वो भी मंत्रियों के समूह में नहीं, अलग-अलग। यह महज शिष्टाचार नहीं बल्कि ‘किसी और’ के संकेत है। बेशक, सत्ता की राजनीति में ‘सन्नाटा’ अक्सर तूफान से बड़ा संकेत होता है।
राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में यह सब ‘साधारण’ नहीं है। मोदी सरकार को करीब से जानने वाले यह स्वीकार करते हैं कि निर्णय का दायित्व महज दो शीर्ष लोगों तक सीमित रहा है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह। बाकी मंत्री ‘सूचना’ पाते हैं, ‘निर्णय’ नहीं करते। इस मॉडल में अचानक सामूहिक बैठकों का रद्द होना, व्यक्तिगत मुलाकातों का दौर और सभी कार्यक्रमों का निरस्त किया जाना, एक बड़ा सवाल खड़ा करता है, क्या देश के राजनीतिक परिदृश्य में कोई बड़ी करवट आने वाली है?
प्रधानमंत्री का प्रस्तावित जम्मू-कश्मीर दौरा जो शनिवार को होना था, बिना कारण स्थगित कर दिया गया। जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्र का दौरा महज ‘अनुकूल मौसम’ या ‘तकनीकी कारणों’ से रद्द नहीं किया जाता। खासकर तब, जब केंद्र सरकार ने धारा 370 हटाने के बाद उस क्षेत्र को ‘राष्ट्रीय एकता की उपलब्धि’ के रूप में प्रस्तुत किया हो। ऐसे में दौरे का रद्द होना न सिर्फ हैरान करता है, बल्कि उन अफवाहों को हवा देता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा, राजनीतिक रणनीति या आंतरिक बदलाव से जुड़े गंभीर निर्णय लिए जा रहे हैं।
एक और दिलचस्प तथ्य, प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति से भी मुलाकात की। राष्ट्रपति से मिलने की घटनाएं सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा होती हैं, लेकिन जब इसे मौन के कंबल में लपेट दिया जाए, तो यह एक असाधारण घटना बन जाती है। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच क्या चर्चा हुई, इसका कोई आधिकारिक बयान नहीं आया। न प्रेस विज्ञप्ति, न कोई इशारा। चुप्पी, जो अक्सर शांति का प्रतीक मानी जाती है, इस बार असहज कर रही है।
राजनीति के वरिष्ठ जानकारों का कहना है कि नरेंद्र मोदी की शैली अत्यंत सुनियोजित और नियंत्रित रही है। वे किसी निर्णय को सार्वजनिक करने से पहले उसे अंदर ही अंदर पूरी तरह से परिपक्व कर लेते हैं। इस बार भी कुछ वैसा ही प्रतीत होता है। पर यह भी सच है कि जितनी बार मोदी सरकार ने अचानक कोई बड़ा कदम उठाया है, चाहे वो नोटबंदी हो, लॉकडाउन हो या अनुच्छेद 370, वो पहले इसी तरह की असहज चुप्पी और अचानक गतिविधियों के बीच हुआ।
अब सवाल उठता है, क्या हो सकता है जो इतना गोपनीय, इतना असामान्य हो? संभावनाएं कई हैं। कुछ विश्लेषक मानते हैं कि सरकार ‘सरप्राइज एलीमेंट’ के तहत समय से पहले चुनाव कराने की योजना बना रही है। इससे विपक्ष को तैयारी का समय कम मिलेगा। एक बड़ी कैबिनेट फेरबदल की तैयारी हो सकती है, जिससे सरकार की छवि में ताजगी लाई जा सके, विशेषकर चुनावी दृष्टिकोण से। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में कोई विशेष रणनीतिक बदलाव या पाकिस्तान/चीन के संदर्भ में कोई नई नीति? नए गठबंधन या नेतृत्व में बदलाव की संभावना पर भी निगाहें जा रही हैं, लेकिन यह बहुत दूर की बात है। यह भी सच है कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं। यह संभावना भी मौजूद है कि सरकार कोई बड़ा विधायी या प्रशासनिक निर्णय लेने की तैयारी में है।
जनता अब उतनी मासूम नहीं रही जितनी पहले हुआ करती थी। लोग अब सरकार की गतिविधियों को पढ़ने और समझने की कोशिश करते हैं। सोशल मीडिया पर तरह-तरह की चर्चाएं हैं, किसी ने स्वास्थ्य को लेकर सवाल उठाया, किसी ने सुरक्षा को। हालांकि इनमें से कोई भी बात पुष्ट नहीं है, पर इस बार की ‘चुप्पी’ सचमुच बोल रही है।
राजनीति में कभी-कभी ‘कुछ नहीं हो रहा’ का मतलब होता है कि ‘बहुत कुछ होने वाला है।’ इस समय सत्ता के गलियारों में जो हवा बह रही है, वह केवल पत्तों को हिला नहीं रही, बल्कि संकेत दे रही है कि किसी बड़े निर्णय की तैयारी है। यह निर्णय राजनीतिक हो सकता है, रणनीतिक हो सकता है या नेतृत्व से जुड़ा हो सकता है। यह कहा जा सकता है कि जब प्रधानमंत्री, पार्टी अध्यक्ष, राष्ट्रपति और कैबिनेट के प्रमुख चेहरे सब कुछ चुपचाप कर रहे हों, तो जनता को सिर्फ इंतजार करना होता है, और इंतजार इस बार सचमुच बड़ा है।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं




