आसान नहीं रही नारी की निर्णायक यात्रा

डॉ. मेघना शर्मा.
प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय तक, महिलाओं ने अपने अधिकारों और शक्तियों के लिए संघर्ष किया है और समय-समय पर समाज में अपनी प्रभावी भागीदारी सिद्ध की है। प्राचीन भारत में, विशेष रूप से वैदिक काल में, महिलाओं को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। उन्हें शिक्षा, धार्मिक अनुष्ठानों और सामाजिक कार्यों में भाग लेने का अधिकार था। गार्गी और मैत्रेयी जैसी विदुषी महिलाओं ने दार्शनिक चर्चाओं में हिस्सा लिया और समाज को मार्गदर्शन प्रदान किया। विवाह, परिवार और धार्मिक गतिविधियों में महिलाएँ स्वतंत्र निर्णय लेती थीं।
मध्यकाल में महिलाओं की स्थिति में गिरावट आई। महिलाओं की निर्णय लेने की शक्ति सीमित हो गई। पर्दा प्रथा, सती प्रथा और बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों ने महिलाओं को हाशिए पर धकेल दिया। फिर भी, रानी लक्ष्मीबाई और जोधाबाई जैसी महिलाओं ने अपने साहस और नेतृत्व क्षमता से समाज में अपना प्रभाव स्थापित किया।
ब्रिटिश काल और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महिलाओं की भूमिका ने एक नई दिशा प्राप्त की। महिलाएँ सामाजिक और राजनीतिक निर्णयों में अग्रणी रहीं। भारतीय संविधान ने महिलाओं को समान अधिकार प्रदान किए, जिससे वे शिक्षा, रोजगार और राजनीति में सक्रिय भागीदारी कर सकीं।
आधुनिक भारत में महिलाएँ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही हैं। वे विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व कर रही हैं, जैसे कि कॉर्पाेरेट सेक्टर, बैंकिंग, उद्यमिता और कृषि। सेल्फ-हेल्प ग्रुप्स और महिला सहकारी समितियों ने ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की है।


महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी भी धीरे-धीरे बढ़ रही है। भारतीय संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं की संख्या में वृद्धि हो रही है। पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं को 33ः आरक्षण प्रदान किया गया है, जिससे वे स्थानीय स्तर पर प्रभावी निर्णय ले रही हैं। महिलाएँ परिवार में भी महत्वपूर्ण निर्णय लेने की भूमिका निभाती हैं। बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, विवाह और पारिवारिक वित्तीय प्रबंधन में उनकी राय को महत्व दिया जाता है। आधुनिक शिक्षा और जागरूकता ने महिलाओं को आत्मनिर्भर और सशक्त बनाया है।
हालांकि महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति की है, फिर भी वे कई सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बाधाओं का सामना करती हैं। लैंगिक भेदभाव, घरेलू हिंसा और शिक्षा की कमी जैसी चुनौतियाँ अब भी मौजूद हैं। इन समस्याओं के समाधान के लिए शिक्षा, जागरूकता और सरकारी योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन आवश्यक है।
भारतीय समाज में महिलाओं की निर्णय लेने की शक्ति धीरे-धीरे सशक्त हो रही है। शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक जागरूकता के माध्यम से महिलाएँ अब अपनी आवाज़ बुलंद कर रही हैं और समाज में समान भागीदारी कर रही हैं। जब महिलाएँ स्वतंत्र रूप से निर्णय लेती हैं, तो न केवल उनका स्वयं का विकास होता है, बल्कि पूरा समाज प्रगति की ओर अग्रसर होता है। इसलिए, महिलाओं को सशक्त बनाना और उनकी निर्णय लेने की शक्ति को बढ़ावा देना भारत के समग्र विकास के लिए आवश्यक है।

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महिलाओं को अधिकार लेने की शक्ति देने के सकारात्मक प्रभाव
महिलाओं को निर्णय लेने की शक्ति मिलने से समाज में लैंगिक समानता को बढ़ावा मिलता है। महिलाएँ जब आर्थिक निर्णय लेती हैं, तो घरेलू आय और बचत में वृद्धि होती है। महिलाओं के निर्णय से बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार होता है। स्थानीय स्तर पर महिला नेतृत्व से विकासशील परियोजनाओं में गति आती है। महिलाओं की भागीदारी से लैंगिक न्याय और महिला सशक्तिकरण से जुड़े कानूनों में सुधार होता है।
महिलाओं को निर्णय लेने का अधिकार देना किसी भी समाज की प्रगति, समावेशिता और न्याय का संकेत है। एक समान और संतुलित समाज के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि महिलाओं को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और पारिवारिक निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी जाए। भारत जैसे देश में, जहाँ महिलाओं ने ऐतिहासिक रूप से नेतृत्व और सामाजिक सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उन्हें निर्णय लेने का अधिकार देना न केवल उनका अधिकार है बल्कि समाज के समग्र विकास के लिए भी आवश्यक है।
महिलाओं को निर्णय लेने का अधिकार देना एक सशक्त और समावेशी समाज की नींव रखता है। जब महिलाएँ अपने जीवन और समाज से जुड़े निर्णय लेने में सक्षम होती हैं, तो वे न केवल अपने परिवार बल्कि पूरे समुदाय के लिए सकारात्मक बदलाव लाती हैं। इसलिए, भारतीय समाज को महिलाओं को निर्णय लेने का अधिकार देने के प्रति संवेदनशील होना चाहिए और उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित करना चाहिए। यही एक प्रगतिशील और न्यायसंगत समाज की पहचान है।
-लेखिका महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर में इतिहास विभाग की संकाय सदस्य हैं व विश्वविद्यालय के महिला अध्ययन केंद्र की पूर्व निदेशक हैं.

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