शंकर सोनी.
आज घग्गर का मिजाज़ देखकर हमारी सांसे रुकी हुई है। घग्गर अपना रास्ता मांग रही है। हमारी यादाश्त में हनुमानगढ़ क्षेत्र में सन 1964 के बाद 1993 में बाढ़ का खतरा मंडराया फिर 1995 में हनुमानगढ़ जंक्शन जलमग्न हुआ था। प्रारंभ में राजस्थान में घग्गर का बहाव क्षेत्र चौड़ाई में आज से 7 गुणा अधिक लगभग 40 बीघा था। जो समस्त भूमि लगभग सरकारी थी। हनुमानगढ़ में घग्गर बाढ़ से बचाव हेतु अलग से घग्गर डिवीजन बना हुआ था इसका मुख्यालय सूरतगढ़ में था। घग्गर डिवीजन अब कागजों में रह गया है। गत वर्षाे के जल प्रवाह के आंकड़ों के आधार पर सिंचाई विभाग की धारणा थी कि घग्गर में 50 वर्ष में एक बार 50,000 क्यूसिक पानी आता है। अपनी धारणा के आधार पर ही सुरक्षा बंधों का रख रखाव होता रहा।
सबसे पहले गलती सरकार ने घग्गर बहाव क्षेत्र की भूमि को विक्रय व आवंटित करके की।
हालांकि राजस्थान राज्य सरकार ने अपनी अधिसूचना संख्या एफ. 28(2) आईआरआरजी/73, दिनांक 6 जून 1973 के द्वारा घग्गर नदी तल में चक 18 सीडीआर पत्थर लाइन 198/272 लेकर चक 94 जीबी से आगे भारत पाक सीमा तक घग्गर के बहाव क्षेत्र में जल प्रवाह में किसी भी तरह की बाधा उत्पन्न करने वाले अवरोध पर रोक लगाई थी और यह भी आदेश पारित किए थे कि घग्गर के उक्त बहाव क्षेत्र में यदि कोई हो तो उन्हे हटाया जाए। फिर भी लोगों ने घग्गर के बहाव क्षेत्र में बंधे बना कर इसके बहाव को अवरूद्ध किया। स्वयं राज्य सरकार की अनुमति से घग्गर बहाव क्षेत्र में अवैध कॉलोनियां बसाई गई, निर्माण हुआ और अवैध ईंट भट्ठे लगे। आज हालत यह है कि घग्गर का विस्तृत बहाव क्षेत्र कहीं कहीं मात्र एक बीघा से तीन रह गया।
मामला सर्वाेच्च न्यायालय तक भी गया और सर्वाेच्च न्यायालय ने घग्गर के बहाव क्षेत्र के लिए 6 बीघा चौड़ाई को न्यायोचित ठहरा दिया। अब जब घग्गर अपना रास्ता मांग रही है तो इसका जबाव कौन देगा ?
सरकार, सर्वाेच्च न्यायालय या फिर अतिक्रमणकारी ?
नहीं, इसका जबाव तो घग्गर खुद देगी। कहावत है नदी कई वर्षाे बाद भी अपना पुराना रास्ता ढूंढ लेती है।
घग्घर जैसी नदियों को समझना है तो कवि बालकृष्ण राव की कविता सुन लीजिए। बकौल कवि…..
कि अपनी भावना के वेग को
उन्मुक्त बहने दे ?
सिन्धु की गम्भीरता
गिरी निर्भिकता से मैं
बढती गई आगे निरन्तर
और अपने दूर-दूर तक फैले साम्राज्य के अनुरूप
फेन की माला लिए
मेरी प्रतीक्षा में।
मार्ग मैने आप ही बनाया।
कि उसने ही बनाया था नदी का मार्ग ,
चलाया था नदी को फिर
जहाँ, जैसे,
शिलाएँ सामने कर दी
जहाँ वह चाहती थी
रास्ता बदले नदी,
या दाहिने होकर निकल जाए,
गति में नदी के
वेग लाने के लिए
बनी समतल
गति को तीव्र अथवा मन्द करती
ले गई भोली नदी को
किधर है सत्य?
परिवेश को
रास्ता अपना निकाला था,
कि मन के वेग को बहना पडा था बेबस
स्वयं ही राह दे दी थी?
किधर है सत्य?