राजस्थानी भाषा की मान्यता का सुनहरा सपना देखने वाले कागद जीवन पर्यंत एक योद्धा की भांति विविध क्षेत्रों में जी-जान से जुटे थे। उन्हें आधुनिक युग का कबीर कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
कबीर के शब्दों में-‘मैं कहता हूँ आखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी।’ की परंपरा में वे आंखों की देखी को कागद पर लिखते हुए जैसे अपना ‘कागद’ उपनाम सार्थक कर रहे थे। कागद की लेखी में अनुभव की गहराई, शिल्प का बांकपन और जीवन के जटिलताओं में बहुआयामी यथार्थ देख सकते हैं। ओम पुरोहित ‘कागद’ का जन्म 5 जुलाई 1957 को श्रीगंगानगर के केसरीसिंहपुर में हुआ था। राजस्थान शिक्षा विभाग में उन्होंने एक चित्रकला-शिक्षक के रूप में सेवाएं करते हुए, शैक्षिक प्रकोष्ठ अधिकारी पद तक का सफर किया। वे जीवन के अंतिम वर्षों में हनुमानगढ़ जिला शिक्षा अधिकारी माध्यमिक शिक्षा कार्यालय में सेवारत थे।
ओम पुरोहित ‘कागद’ को राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर, राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर के अलवा अनेक मान-सम्मान और पुरस्कार मिले। वे पुरस्कारों से बड़े रचनाकार थे। यह उनकी रचनात्मकता का सम्मान था कि वे उदयपुर और बीकानेर अकादमी में लंबे समय तक सदस्य के रूप में जुड़े रहे। उन्होंने लगभग दो वर्ष तक राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी की मुख्य मासिक पत्रिका “जागती जोत” का संपादन किया था। कागद ऐसे लेखक थे जिन्हें केवल लिखने और छपने तक में विश्वास नहीं था। उनका मानना था कि साहित्य का पढ़ा जाना और युवाओं को साहित्य से जोड़ा जाना बेहद जरूरी है। मुझे याद आता है कि उन्होंने ‘जागती जोत’ के संपादक पद पर रहते हुए, अपने अथक प्रयासों से पत्रिका की ग्राहक संख्या को चरम तक पहुंचा दिया। वे एक आदमी के रूप में बेहतर इंसान और उच्च कोटि के रचनाकार थे। वे जहां जिस क्षेत्र में रहे उन्होंने अपनी कार्य-क्षमता और दक्षता से अपना स्थान अग्रिम पंक्ति में स्वयं प्रमाणित किया।
कागद राजस्थानी भाषा मान्यता अनंदोलन के हरावल हस्ताक्षर के साथ भाषा, साहित्य, संस्कृति से ही नहीं जन आंदोलनों में शिक्षा-साक्षरता या किसी दूसरे कार्य में भी कभी पीछे नहीं रहे। उन्होंने हनुमानगढ़ और श्रीगंगानगर के साथ ही संपूर्ण राजस्थान के लिए साक्षरता एवं सतत शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। प्रवेशिका लेखन हो या नवसाक्षरों के लिए साहित्य लेखन उनका नाम अकसर चर्चा में रहता था। अनेक बार राज्य संदर्भ केंद्र में उनसे मिलने का मुझे सौभाग्य मिला। वे संदर्भ व्यक्ति के रूप में जिस जिस के साथ रहे, उसे उन्होंने अपना बना लिया। उनके हृदय में आत्मीयता और प्रेम की अविरल धारा थी। वे सहकर्मियों और पूरे समाज के लिए स्नेह और भाईचारा के अज्रस स्रोत वरदान के रूप में लाए थे। वे जन चेतना और आखर की अलख जगाने वाले सिपाही थे।
ओम पुरोहित ‘कागद’ के प्रकाशित कविता संग्रहों में प्रमुख है- बात तो ही, आंख भर चितराम, थिरकती है तृष्णा, आदमी नहीं आदि। इन के अतिरिक्त राजस्थानी में भाषा-विमर्श पर उनकी पुस्तक ‘मायड़ भाषा’ बेहद चर्चित रही। बहुप्रतीक्षित पुस्तक ‘सुरंगी संस्कृति’ हाल ही में प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक से जान सकते हैं कि वे किस कदर भाषा और संस्कृति के गहन अध्येता थे। इस पुस्तक में उनके विविध विषयों पर छोटे-मध्यम आकार के सारगर्भित पठनीय 34 मौलिक आलेख संकलित हैं।
ओम पुरोहित ‘कागद’ ने राजस्थानी के अप्रकाशित कवियों की संभावना को देखते हुए अज्ञेय की भांति राजस्थानी भाषा में सप्तक परंपरा का आगाज किया। उनके महत्त्वपूर्ण कार्यों में “थार सप्तक” के सात खंड़ याद किए जाएंगे। इन में उन्होंने राजस्थानी के 49 कवियों की कविताओं का संपादन-प्रकाशन कर एक ऐतिहासिक उदाहारण प्रस्तुत किया है। उनका यह कार्य कविता के इतिहास में याद किया जाता रहेगा।
वे कवि-लेखक के साथ रंग और रेखाओं के भी गहरे जानकार थे। उन्होंने अनेक स्कैच और पेंटिंग से अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया। एक संपूर्ण कलाकार की आत्मा उन में बसती थी। स्वयं दुख और कष्ट सहकर भी दूसरों की मदद करते रहना उनकी इंसानित थी। वे अच्छे गद्यकार भी थे। उन्होंने अनेक पुस्तकों की समीक्षाएं लिखी तथा शिक्षा विभाग के पांच सितम्बर को प्रतिवर्ष प्रकाशित विविध विभागीय प्रकाशनों में अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएं दी। उनकी काफी कहानियां भी प्रकाशित हुई थी। मुझे लग रहा था कि साहित्यकार के रूप में उनके कहानीकार रूप को जांचा-परखा जाना शेष है। किंतु यह काम होता उससे पहले समय ने जल्दबाजी में एक बड़ी गलती कर दी। असमय हम सबके प्रिय और आदरणीय कागद जी चले गए। समय की इस गलती की अब कोई भरपाई नहीं है। यह मेरी निजी क्षति भी है। वे सदा प्रेरक थे और प्रेरक रहेंगे। ‘मायड़ भाषा’ के ऐसे अविस्मरणीय सपूत को शत-शत नमन।
(लेखक जाने-माने लेखक, आलोचक व साहित्यकार हैं)