ब्लैकआउट की वह रातें: 1971 की जंग के संस्मरण और आज की हकीकत

भटनेर पोस्ट ब्यूरो.
हनुमानगढ़, एक सीमावर्ती जिला। यहां की मिट्टी में आज भी जंग की वह गूंज छुपी है जो 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान हर घर, हर दिल को भीतर तक कंपा गई थी। वह दौर आज भी बुजुर्गों की यादों में ताजा है, जब लालटेन की लौ भी डराती थी, और चूल्हे की आग बुझाने में कोई संकोच नहीं होता था। आज जब देश में ब्लैकआउट के आदेश दिए जाते हैं, तो बहुत से लोग इसे हल्के में लेते हैं। लेकिन 1971 में यह सिर्फ आदेश नहीं, बल्कि जीवन की रक्षा का साधन था। वह एक ऐसा समय था जब अंधेरे में ही सुरक्षा थी, और उजाले को दुश्मन की आंख माना जाता था।
गांव नवां की रुखसाना बानो बताती हैं, “हमारे यहां बिजली नहीं थी। लालटेन और दीयों से घर रोशन होता था। लेकिन जैसे ही ब्लैकआउट का आदेश आता, हम सूरज ढलने से पहले खाना बना लेते। सब कुछ समेट कर बैठ जाते। चूल्हे की आग को भी फौरन पानी डालकर बुझा देते, भले ही इसे अपशगुन माना जाता था। हमें अपनी और अपने परिवार की जान प्यारी थी।”
वह आगे जोड़ती हैं, “आज के लोग बहुत सुविधाओं में हैं, लेकिन वो सजगता और सामूहिक जिम्मेदारी नहीं रही। पहले लोग खुद अपने मोहल्ले का ख्याल रखते थे। अब तो लोगों को घर के बल्ब बंद करने में भी आलस आता है।”
हनुमानगढ़ टाउन के प्रहलाद सिंह जो उस वक्त स्कूली छात्र थे, आज शहर के प्रबुद्ध नागरिक माने जाते हैं। वे कहते हैं, “ब्लैकआउट तब जीवनशैली का हिस्सा था। कोई इस पर बहस नहीं करता था। लोग आदेश नहीं, जिम्मेदारी समझकर निभाते थे। लेकिन आज जब ब्लैकआउट होता है, तो लोग केवल घर के बल्ब बंद करते हैं। सड़कों की लाइटें, दुकानों के साइनबोर्ड, होटल, सब जगमगाते रहते हैं। प्रशासन को नगरपरिषद और बिजली विभाग को साथ लेकर स्पष्ट दिशानिर्देश देने चाहिए।’
पूर्व शिक्षक दर्शन सिंह बताते हैं कि युद्ध के दौरान उनके गांव में एक रात एक विमान की आवाज सुनाई दी। ‘सब घरों की लाइटें पहले ही बंद थीं, लेकिन एक घर में लालटेन जल रही थी। गांववालों ने तुरंत जाकर वह बुझवाई। डर था कि कहीं दुश्मन विमान उस रोशनी को निशाना न बना ले। उस समय एक भी चूक पूरी बस्ती के लिए खतरा बन सकती थी।’ वे कहते हैं, ‘आज के समय में हमें तकनीक के साथ साथ अनुशासन की भी जरूरत है। आपात स्थिति में सिर्फ सरकारी आदेश नहीं, सामूहिक सजगता काम आती है।’
करीब 85 वर्षीय संतोष देवी को आज भी वह रात याद है जब उनके गांव के पास गोला-बारूद गिरने की खबर फैली थी। ‘हमने तीन रातें पूरी तरह अंधेरे में बिताई। खाना भी बिना रोशनी के खाते थे। कई लोगों ने तो रात भर जागकर पहरा दिया। बच्चों को कंबल में लपेट कर मिट्टी के नीचे तहखानों में सुलाया जाता था। आज वो भय तो नहीं रहा, लेकिन अनुशासन भी नहीं बचा।’
किसान रामस्वरूप गोदारा, जो उस समय किशोर थे, आज बुजुर्ग किसान हैं। वह बताते हैं, ‘हमारे गांव में तो कोई घर ऐसा नहीं था जहां ब्लैकआउट का उल्लंघन हुआ हो। बुजुर्ग खुद पहरा देते थे। पंचायत हर शाम गांव का चक्कर लगाती थी। आज तो लोग पुलिस के सामने भी बल्ब जलाए रखते हैं। ऐसा लगता है जैसे खतरे को समझने की संवेदनशीलता ही खत्म हो गई है।’
सिविल लाइंस के जतिन बताते हैं कि उन्होंने देखा कि ब्लैकआउट के दौरान जोड़कियां फाटक पर स्थित एक होटल पूरी तरह रोशन था। ‘पुलिस की गाड़ी आई, तो नीचे के बल्ब बंद किए गए लेकिन ऊपर के बल्ब जलते रहे। पुलिस और होटल मालिक में कुछ बातचीत हुई और गाड़ी निकल गई। ये देखकर हमें गुस्सा भी आया और डर भी। अगर यह असली खतरे का वक्त होता, तो ऐसे लोग पूरे शहर को संकट में डाल सकते थे।’
रिटायर्ड अध्यापक सूर्यप्रकाश जोशी कहते हैं, ‘आज क्षेत्र में तकनीक है, बिजली है, मोबाइल है, सूचना है, लेकिन सामूहिक चेतना और जिम्मेदारी में कमी है। आज के ब्लैकआउट सिर्फ औपचारिकता बन कर रह गए हैं। बहुत से लोग इसे फेसबुक या व्हाट्सऐप पर पोस्ट करने का मौका समझते हैं। लेकिन जंग के दौर के लोग इसे जीवन-मरण का सवाल मानते थे।’

प्रतीकात्मक चित्र एआई से जेनरेटेड

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