




डॉ. अर्चना गोदारा.
वृद्धाश्रमों की शांत दीवारों के भीतर, जीवन की संध्या में बैठा एक पिता जब अपनी बेटी का स्मरण करता है, तो उसकी आंखों में एक अजीब सी नमी झलकती है। यह नमी केवल भावनाओं की नहीं होती, बल्कि उसमें एक न बोल पाने का पश्चाताप भी छिपा होता है, जिसे बेटी से कह नहीं पाया, और जिसे जीवनभर देना नहीं चाहा। लेकिन ये पश्चाताप किसी किसी को यानी के बहुत कम लोगों को होता है, लेकिन होता जरूर है। आज देश के अनेक वृद्धाश्रमों में ऐसे अनेक वृद्ध महिला और पुरुष मिल जाते हैं, जिनकी बातचीत में बेटी की उपस्थिति बार-बार उभरती है। वे उसके स्नेह, सेवा और संवेदनशीलता को स्मरण करते हैं। बेटी, जो बचपन में बीमारियों में दवा देने वाली थी, परीक्षा के दिनों में पानी का गिलास थमाने वाली थी, और माँ की अनुपस्थिति में घर की जिम्मेदारी संभालने वाली थी, आज भी उनकी स्मृति में एक कोमल छाया बनकर बसी हुई है।
परंतु यही पिता जब जीवन के सक्रिय दौर में थे, तब उन्होंने उस बेटी को संपत्ति, अधिकार या निर्णय की साझेदारी से वंचित रखा। विवाह होते ही जैसे उसका अधिकार छिन गया। ‘वो अब पराया घर चली गई है’, यह कहकर उसके हक़ को हमेशा दरकिनार कर दिया गया, और ऐसी स्थिति में ससुराल वाले भी उसे घर (पीहर) से दूरी बनाने के लिए मजबूर कर देते हैं।
विडंबना यह है कि आज वही बेटा, जिसे सब कुछ सौंपा गया, अक्सर इन वृद्ध माता-पिता की जिम्मेदारी से पीछे हट जाता है। उस स्थिति में वृद्धाश्रम की एकांत रातों में उन्हें वही बेटी याद आती है, जिसे उन्होंने जीवनभर ‘कमतर’ माना।
यह सामाजिक व्यवहार न केवल लिंग-भेद की ओर संकेत करता है, बल्कि हमारी भावनात्मक और नैतिक असंगतियों को भी उजागर करता है। हम बेटियों से अपनापन तो चाहते हैं, पर अधिकार देने से हिचकिचाते हैं। उनकी उपस्थिति का सुकून तो स्वीकारते हैं, पर संपत्ति में हिस्सेदारी का प्रश्न उठते ही समाज के ठेकेदार बन जाते हैं।

मैंने जब वृद्ध आश्रम में कुछ वृद्धों से बात की तो उनसे पूछा कि जिस प्रकार से आप इस वक्त अपनी बेटियों को याद कर रहे हैं और आपको यह लग रहा है कि बेटों ने तो नहीं सम्भाला, कम से कम बेटियों को तो संभालना चाहिए था। क्या आपने भी उन्हें बेटों के बराबर अधिकार और सुविधाएँ दी थी ? तो वह इसके लिए ‘ना’ मैं उत्तर देते हैं। उनसे पूछा गया, क्या आप जो अपनी संपत्ति अपने बेटों को दे चुके हैं। क्या उस संपत्ति को वापस लेकर अपनी बेटियों को देना चाहेंगे? क्योंकि अभी उनके ससुराल वाले उन्हें आपके पास नहीं आने देते और आपकी जिम्मेदारी नहीं उठाने देते और वे कमाती भी नहीं है कि अपने दम पर आपकी जिम्मेदारी उठा सके। संपत्ति मिलने के बाद हो सकता है कि उसे ससुराल से स्वीकृति मिल जाए और वो आपकी जिम्मेदारी उठा ले। या फिर इस वृद्धा आश्रम को वो सम्पति देना चाहेंगे जिसमें आप रह रहे हैं। तो वे ‘ना’ में सिर हिला देते हैं। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठता है कि क्या वे दया के पात्र हैं ? या उन्हें न्याय मिलना चाहिए जिन्होंने अपने बेटे और बेटी के प्रति कभी न्याय वाले भाव नहीं रखे।

अतः वृद्ध आश्रम मे जाने से बचने के लिए यह आवश्यक है कि हम अब बेटे और बेटी मे अन्तर वाली इस सोच से बाहर निकलें। बेटी को केवल भावनाओं में नहीं, बल्कि अधिकारों में भी समानता मिले। उसे भी पढ़ा लिखा कर सक्षम बनाया जाए ताकि वह भविष्य में निर्णय और जिम्मेदारियां को ले सके तथा विपरीत परिस्थितियों में अपने माता-पिता की सेवा कर सकें। यही एक विकसित और न्यायपूर्ण समाज की पहचान है।
बेटी भी जन्मी वहीं से, जहां से बेटा जन्मा है,
मन में क्यों फर्क किया जब,
पालन-पोषण एक ही घर में किया।’
-लेखिका राजकीय नेहरु मेमोरियल महाविद्यालय, हनुमानगढ़ में सहायक आचार्य हैं


