सोशल मीडिया की मृगतृष्णा और मानसिक स्वास्थ्य

डॉ. अर्चना गोदारा.
ज के डिजिटल युग में जहां हर व्यक्ति के हाथ में महंगे से महंगा और एक शानदार स्मार्टफोन है, वही सोशल मीडिया एक नया सामाजिक मंच बन चुका है। फेसबुक, स्नैपचौट, वॉटस ऐप, इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफार्म एक अनकही प्रतियोगिता को जन्म दे रहे हैं। वह है हर समय खुश दिखने की प्रतियोगिता। यह प्रतियोगिता नहीं, एक प्रकार का मानसिक तनाव या मानसिक बोझ होता है जो व्यक्ति में धीरे-धीरे आता है और उसके दूरगामी परिणाम जब सामने आने लगते हैं। तो वास्तविक खुशी दूर-दूर तक नजर नहीं आती।
वर्तमान में अधिकांश लोग सोशल मीडिया पर अपने जीवन के सबसे चमकदार पल या यू कहें की खुशी के पलों को जैसे की छुट्टियां, पार्टियाँ, सफलताएं, मुस्कुराता चेहरा आदि को शेयर करते हैं। परंतु जीवन के संघर्ष असफलता या दुख के क्षण को वह कभी नहीं दिखाते।अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन के 2022 के एक सर्वे के अनुसार सोशल मीडिया पर सबसे अधिक समय बिताने वाले युवाओं में तनाव, चिंता और अवसाद के लक्षणों में 27 प्रतिशत तक की वृद्धि देखी गई है। बहुत बार ऐसे उदाहरण भी देखने को मिलते हैं कि कुछ विद्यार्थी जब इंस्टाग्राम पर अपने साथियों को हर दिन नए-नए कपड़े, घुमाई और पार्टी की तस्वीर में देखते हैं तो उन्हें लगता है कि वह शायद उनकी तुलना में बहुत पीछे रह गये, जबकि पढ़ाई और करियर में वे बहुत बेहतर चल रहे होते हैं। लेकिन उन तस्वीरों का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे फियर ऑफ़ मिसिंग का शिकार हो जाते हैं। उनके अंदर कहीं ना कहीं एक तनाव पलने लगता है और आत्म संदेह की भावना उनके अंदर उत्पन्न हो जाती है।
सोशल मीडिया ने देखा देखी खुश रहने की अनिवार्यता ने एक टॉक्सिक पॉजिटिविटी को जन्म दिया है। व्यक्ति अपनी वास्तविक भावनाओं को दबाकर केवल बाहरी दुनिया के लिए मुस्कान को ओढने लगा है। इस प्रकार का दमन धीरे-धीरे मानसिक थकान, पहचान, संकट और भावनात्मक शून्यता में बदलते जा रहे है। सोशल मीडिया पर दिखने वाला आदर्श जीवन एक ऐसी मृगतृष्णा बन चुका है जिसे पकड़ना लगभग असंभव है। एक साधारण से साधारण व्यक्ति भी खुद को दूसरों से तुलना करते हुए स्वयं को कमजोर आंकने लगता है। इससे उनके आत्म सम्मान पर आघात पहुंचता है।


2023 में रॉयल सोसाइटी ऑफ पब्लिक हेल्थ (यूके) के द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं में से 40 फीसद ने यह स्वीकार किया है कि वे वास्तविक दुख को छुपा कर स्वयं को खुश दिखाने का प्रयास करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वे वास्तविक जीवन से एक तरह की दूरी बना लेते हैं। जो व्यक्ति खुद के वास्तविक जीवन से दूरी बनाते हैं और खुद की सच्चाई को छुपाने का प्रयास करते है और दूसरों के जीवन में खुद को तलाशने लगते है। यानी कि वह भी उनके जैसा जीवन जीने का जब प्रयास करते है तो यह स्थिति तनाव और अवसाद को लेकर आती है। इससे व्यक्ति को बहुत सी मानसिक, शारीरिक और आर्थिक हानि उठानी पड़ती है।


व्यक्ति को चिंता, तनाव और अवसाद से बचने के लिए सप्ताह में कुछ दिन सोशल मीडिया से दूरी बनानी चाहिए जिससे उन्हें मानसिक स्वास्थ्य का लाभ होगा और अपने जीवन के संघर्षों को भी स्वीकार करना चाहिए जिसमें वह अपने आप को परिपूर्ण दिखाई देंगे। सोशल मीडिया सामग्री को एक मनोरंजन या प्रेरणा का स्रोत के रूप में देखना चाहिए, ना की तुलना के रूप में।
क्योंकि हर समय खुश दिखना एक अनावश्यक दबाव होता है जो दूसरों के देखा-देखी आता है। मानव स्वभाव में सुख और दुख दोनों का ही स्थान होता है। केवल मुस्कान का मुखौटा पहन कर व्यक्ति अपने भीतर की संवेदनाओं को नहीं मिटा सकता। जरूरत है कि हम सोशल मीडिया कि बनावटी दुनिया से दूर जाकर अपने असली अस्तित्व को स्वीकार करें और उन्हें सहेजे. क्योंकि वे ही हमें खुशी देंगे। अपनी खुशी को अपनों में तलाशिये क्योंकि खुशी वह नहीं जो हम दूसरों को दिखाते हैं। खुशी वह है जो हम अपने आप के अंदर खोजते हैं।
-लेखिका राजकीय एनएमपीजी कॉलेज में सहायक आचार्य हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *