जैनेंद्र कुमार झांब.
अखबार में समाचार पढ़ने को मिला कि शहीद के घर ‘माननीय’ मंत्री जी चेक देने गए तो शहीद की माता ने इसे प्रदर्शनी बताया। अब मंत्री जी मीडिया को फ़ोटो लेने से मना करें तो यह विलाप शुरू हो जाएगा कि मीडिया का गला दबा रखा है। चेक देने में महीना दो महीना लग जाता तो भी हल्ला मचाना था। मंत्री की जान को हज़ार झंझट!
माता के शहीद बेटे की पार्थिव देह से पहले ज़िंदा चेक आ गया। माता को कृतज्ञ होना चाहिए। वस्तुतः ऐसे उदाहरणों से देश के लिए शहीद होने का जज्बा बढ़ना चाहिए। अन्य रक्षाकर्मियों की माताओं में स्पर्धा की भावना जागनी चाहिए। परिवारों के फ़ोन जाने चाहिएं कि देख तेरी रेजिमेंट वाले फलाने की पार्थिव देह से पहले चेक आ गया। ‘माननीय’ मंत्रियों को ऊहापोह में डालने वाले ऐसे अप्रिय प्रसंग पुनः न हों इसके लिए आवश्यक है कि रक्षाकर्मियों के परिजनों को एक ‘डेमो वीडियो’ की सॉफ्ट कॉपी दी जाए कि तुम्हारा प्रिय जब शहीद हो और मंत्रीजी चेक देने आएं तो तुम्हारी की ‘बॉडी लेंग्वेज’ कैसी हो।
रक्षाकर्मी लाखों हैं और मंत्री मुट्ठीभर। यों भी जनप्रतिनिधि और मंत्री तो शहादत की जीती जागती मिसाल हैं। जनसेवा करने की चाह में ये ‘वीर’ अपने भीतर का क्या-क्या मार देते हैं, हम सोच भी नहीं सकते। वास्तव में तो इस सभी को सशरीर ‘शहीद’ पुकारा जाना चाहिए। इनमें से अधिकांश करोड़ों का व्यक्तिगत, पारिवारिक, कारोबार होते हुए भी जनसेवा की ललक में स्वयं को भीतर ही भीतर मार कर राजनीति में आए हैं।
(लेखक समसामयिक मसलों पर तीखा व्यंग्य करने के लिए विख्यात हैं)