भटनेर पोस्ट न्यूज. जयपुर.
राजस्थान दिवस पर एक सीनियर आईएएस की कविता धूम मचा रही है। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी डॉ. कृष्णकांत पाठक की कविता ‘राजस्थान : एक राज्यगान’ को पाठकों की खूब सराहना मिल रही है। कविता में राजस्थान की विशेषताओं को रोचक तरीके से प्रस्तुत किया गया है। खास बात है कि डॉ. पाठक को राजस्थान की ब्यूरोक्रेसी में ‘दार्शनिक अफसर’ के तौर पर जाना जाता है। वे अपने काम, ईमानदारी, ज्ञान व विनम्रता के लिए विख्यात है। बहरहाल, आप भी पढ़िए डॉ. कृष्णकांत पाठक की भावपूर्ण पंक्तियां……
रज-रज में राज, कण-कण देवस्थान।
रग-रग में शौर्य, बृहत्तम मैं राजस्थान।।
दीर्घ सर्पिल अरावली ही मेरा मेरुदंड।
उन्नत गुरुशिखर भाल मेरा गौरव प्रचंड।।
बीहड़, पहाड़, जंगल ये पाषाण खंड।
अंश मेरे, मुक्त दिगंत यह दृढ कोदंड।।
मातृ भारती का मैं ही विस्तृत वितान।
स्वर्णिम मरुभूमि उसका अंचल महान।।
मैं ही खड़ा बन दृढ कवच सा सीमांत।
सूर्यातप दीप्त मैं, अचल अडिग प्रशांत।।
प्रकृति का रक्षामंडल यह मेरा अभेद्य।
वरदहस्त में दुर्जेयता का लिए नैवेद्य।।
गोवर्धन उदयाचल, अस्ताचल जैसाण।
हृदयस्थल में ब्रह्मा, चतुर्दिक् देवप्राण।।
मत्स्य, यौधेय, निषध, सारस्वत-सिंधुरेख।
मेदान्तक, मांडव्य मेरे ही तो शिलालेख।।
अहिछत्र, गणेश्वर, चन्द्रावती, विराट्।
इतिहास मेरे, राज मेरे, मेरे ही सम्राट्।।
मेवात, मेवाड़, मेरवाड़ा या मारवाड़।
ब्रज, बांगड़, डांग, हडौती व ढुंढाण।।
नागाणा, बीकाणा, जैसाणा मेरे प्रभाग।
आबू, गंग, शेखावाटी, सबका देशराग।।
विजन मरुधरा से सघन प्रकृति पर्यन्त।
सर, सरिता, सारस्वत धरती आदिगंत।।
प्रकृति संस्कृति के अप्रतिम अगण्य रंग।
मुझमें छटा वैविध्य की, मैं धारा बहुतरंग।।
चतुर्भुज माप में जड़ीं मणि-छवियाँ अनेक।
एक में अनंत होतीं, फिर असंख्य में एक।।
साहस अंतस् मेरा, पराक्रम मेरा ही भाग।
साकों के रंग मुझमें, जौहर की दीप्त आग।।
रक्षा मेरा धर्म, वचन पालनमय संकल्प।
बलिदान मेरा प्राण, तप ही मेरा प्रकल्प।।
मर्यादा मार्ग मेरा, वही गंतव्य ध्येय।
परम्परा पगों में, दूरदृष्टि मेरा पाथेय।।
घूमर, घुड़ला, गरबा, चरकुला मेरे त्रिभंग।
चकरी, चरी, भवाई, गेर मेरे अभिन्न अंग।।
साफे-चूनर, रखड़ी-मोजड़ी, ढप-ढोल-चंग।
तरंग उल्लास की, मुझमें उत्सव की उमंग।।
मैं मसालों की महक, मैं व्यंजनों का स्वाद।
वज्र बाजरे का मैं, शस्य श्यामल आह्लाद।।
पिंगल प्रार्थना मेरी, डिंगल ये मेरा ही गान।
उद्भट भट्ट मेरे, हुंकारमय उच्चारण उदान।।
मैं जोगी, मैं ही कालबेलिया, मैं बंजारा।
मैं पंडित ज्ञानी, मैं ही योद्धा रणबाँकुरा।।
शौर्य में मैं, धैर्य में मैं, धर्म में मैं कर्म में।
जांभो, दादू, पीपा के उपदेशों के मर्म में।।
मैं झाला का त्याग, राणा का युद्धघोष।
पूँजा का शौर्य, भामाशाह का दानकोश।।
गोविंद का स्वातंत्र्य, सूरज का सम्मान।
मैं पन्ना का त्याग, अमृता का बलिदान।।
मैं हाडीरानी का शीश, मैं भक्ति की मीरा।
मैं पद्मावती का मान, कालीबाई मैं वीरा।।
मैं ही खेजड़ी-रोहिडा, मैं गोडावण-चिंकारा।
मैं ही कथक शृंगारमय, मैं कथा का हुंकारा।।
महल मेरे किरीट, परकोटे मेरे भुज विशाल।
नगर-ग्राम धाम मेरे, दुर्ग मेरे प्रशस्त भाल।।
वैभवमय मेरा अतीत, गौरवमय मेरा वृतांत।
गाथा में, कथा में, वर्णन मेरा ही नितांत।।