




डॉ. संतोष राजपुरोहित.
आज का भारत एक विचित्र विरोधाभास की तस्वीर पेश करता है। एक ओर ‘नया इंडिया’ है, जो स्मार्टफोन, लग्जरी कारों, ब्रांडेड कपड़ों और एसी मॉल्स की दुनिया में जी रहा है। वहीं दूसरी ओर ‘भारत’ है, जहां करोड़ों लोग आज भी दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहे हैं। गांवों में किसान कर्ज के बोझ से दबकर आत्महत्या करने को मजबूर हैं, मजदूर शहरों में दिहाड़ी की तलाश में दर-दर भटकते हैं। यह फर्क सिर्फ जीवनशैली का नहीं, सोच और अवसरों का भी है। इंडिया में एक बड़ा तबका अब ऑनलाइन शॉपिंग करता है, सोशल मीडिया पर एक्टिव है, और दुनिया भर की खबरों से जुड़ा रहता है। वहीं भारत में अब भी ऐसे गांव हैं जहां बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं।
घर के हर सदस्य के पास मोबाइल और उस पर खर्च किया जाने वाला डाटा पैक आज एक सामान्य बात बन चुकी है। गरीब से गरीब आदमी भी मोबाइल और रीचार्ज को अपनी रोजमर्रा की जरूरत मानने लगा है। यह डिजिटल इंडिया की सफलता भी है, और एक नई समस्या भी। क्योंकि कई बार यह खर्च उसकी प्राथमिक जरूरतों, जैसे भोजन, शिक्षा या इलाज, पर भारी पड़ने लगता है।
मध्यम वर्ग भी इस बदलाव से अछूता नहीं है। यह वर्ग अब धीरे-धीरे फिजूलखर्ची की ओर बढ़ रहा है। शादियों में दिखावा, बच्चों की महंगी पढ़ाई, रेस्तरां में खाना, विदेश यात्राएं और ईएमआई पर खरीदे गए महंगे फोन, यह सब मिलकर आम आदमी की कमर तोड़ रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद ‘न्यू इंडिया’ की चमक-दमक उसे आकर्षित करती है।

इस विकास की गाथा के बीच रोजगार एक बड़ा संकट बनकर उभरा है। शिक्षित युवा डिग्रियों के साथ बेरोजगार घूम रहे हैं, जबकि रोजगार के अवसर लगातार सीमित होते जा रहे हैं। रोजगार है भी तो वह अस्थायी, संविदा आधारित या फिर न्यूनतम वेतन वाला। दूसरी ओर, सरकार और मीडिया में रोज नए-नए विकास के आंकड़े प्रस्तुत किए जाते हैं, जीडीपी बढ़ रही है, विदेशी निवेश आ रहा है, एक्सप्रेसवे बन रहे हैं, लेकिन यह विकास ‘भारत’ तक कब पहुंचेगा, यह सवाल आज भी कायम है।
इस दोहरी तस्वीर में गरीब और निम्न वर्ग खुद को ठगा महसूस करता है। उसे लगता है जैसे वह विकास की रेलगाड़ी को बस दूर से जाते हुए देख रहा है, चढ़ने का मौका उसे नहीं मिला।
जरूरत है कि भारत और इंडिया के बीच यह खाई पाटी जाए। विकास का मतलब सिर्फ गगनचुंबी इमारतें, एयरपोर्ट या हाईवे नहीं होना चाहिए, बल्कि हर व्यक्ति की बुनियादी जरूरतें पूरी होना भी उतना ही जरूरी है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा को प्राथमिकता देकर ही हम एक समतामूलक समाज की ओर बढ़ सकते हैं। वरना यह दो धाराओं वाला देश अंततः असंतोष और असमानता की खाई में और गहराता चला जाएगा। विकास तब ही सार्थक है जब उसका लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे, न कि कुछ चुने हुए लोगों तक सीमित रहे। तभी ‘भारत’ भी ‘इंडिया’ के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकेगा। एक समृद्ध, सशक्त और समान अवसरों वाला राष्ट्र बनकर।
-लेखक भारतीय आर्थिक परिषद के सदस्य हैं




