

अमरपाल सिंह वर्मा.
भारत में विवाह सिर्फ एक सामाजिक परंपरा नहीं है बल्कि इसे एक संस्था का दर्जा हासिल है, जिससे गहरी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अवधारणा जुड़ी है। विवाह वह संस्था है जो दो व्यक्तियों को जीवन भर के लिए प्रेम, भरोसे और समर्पण के रिश्ते में बांधती है। विवाह का उद्देश्य केवल एक-दूसरे का साथ निभाना नहीं, बल्कि एक संपूर्ण परिवार की नींव रखना भी होता है। यही वजह है कि विवाह से उत्पन्न होने वाले पति-पत्नी, माता-पिता, और बेटे-बेटी के रिश्ते समाज की रीढ़ माने जाते हैं। विवाह जैसी संस्था ताउम्र सह जीवन की पैरवी करती है। हमारे देश में विवाह सदियों पुरानी परंपरा है, जिसके बिना सब कुछ अधूरा सा महसूस होता है। हमारा समाज विवाह से उपजे रिश्ते को ही न केवल स्वीकार करता है बल्कि इज्जत भी देता है। इतनी समृद्ध परंपरा वाले इस देश में क्षणिक रिश्तों को पनपाने की कोशिश की जा रही है। क्षणिक रिश्तों के फायदे समाज में प्रचारित किए जा रहे हैं पर सवाल यह है कि यह सब किसलिए किया जा रहा है? क्या यह किसी बाजारवाद से प्रेरित है या फिर पाश्चात्य संस्कृति की कोई कुत्सित साजिश, जिसकी भारतीय संस्कृति को कमजोर करने में हमेशा दिलचस्पी रही है।

वर्तमान में भारत जैसे परंपराओं में यकीन करने वाले देश में एक नया शब्द तेजी से उभारा जा रहा है, वह है नैनोशिप। यह शब्द एक डेटिंग एप ने पेश किया है, जिसमें यह दावा किया गया कि वर्ष 2025 में रोमांटिक रिश्तों की परिभाषा ‘नैनोशिप’ के जरिए बदल जाएगी। नैनोशिप के बारे में भारत में पिछले साल के आखिरी दिनों से पहले कोई चर्चा नहीं होती थी। यह चर्चा तो तब से होने लगी, जब डेटिंग एप ने हौले से ईयर इन स्वाइप 2024 नामक एक रपट परोस दी। यह एप प्रति वर्ष ऐसी रपट में डेटिंग के अलग-अलग तरीके बताता है। इस बार भी इस रपट में ऐसा ही किया गया, जब ‘नैनोशिप’ का कॉन्सेप्ट लोगों के सामने रख दावा किया गया कि नैनोशिप एक ऐसा नया तरीका है, जो वर्ष 2025 में डेटिंग वर्ल्ड को अलग तरह से प्रभावित कर सकता है अथवा लोगों के प्यार करने की परिभाषा को पूरी तरह बदल सकता है। लेकिन सवाल उठता है कि भारतीय समाज में ऐसी अवधारणा को प्रसार क्यों किया जा रहा है? क्या यह विचार हमारी संस्कृति और मूल्यों के अनुकूल है? या फिर यह पश्चिमी देशों से आयातित एक नया प्रयोग है जिसके जरिए हमारे सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करने की साजिश की जा रही है?
नैनो जिसका अर्थ ही बहुत छोटा अथवा अल्पकालिक होता है, ऐसी रिलेशनशिप के लिए भारत के लोगों को क्यों दुष्प्रेरित किया जा रहा है? इसके पीछे मंशा क्या है, इस पर विमर्श की जरूरत है। दरअसल, नैनोशिप एक ऐसा रिश्ता है जो बेहद अल्पकालिक होता है। यह कुछ घंटों, दिनों या हफ्तों के लिए हो सकता है।

डेटिंग एप की रपट में दावा किया गया कि 18 से 34 वर्ष के बीच के 8000 युवाओं के सर्वे में यह पाया गया कि रोमांस और तात्कालिक जुड़ाव उनके लिए बहुत मायने रखता है। विशेष रूप से सिंगल युवाओं के लिए नैनोशिप एक आकर्षक विकल्प बन रहा है क्योंकि इसमें कोई जिम्मेदारी या सामाजिक बंधन नहीं होता। यह रिश्ता सिर्फ ‘मस्ती और पल भर की खुशी’ के लिए होता है। बड़ा सवाल यह है कि क्या 8000 लोगों का सर्वे एक पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करता है? भारत की आबादी 140 करोड़ से अधिक है और उसमें भी युवा वर्ग करोड़ों की संख्या में है। ऐसे में मात्र 8000 लोगों के विचारों के आधार पर एक सामाजिक ट्रेंड को स्थापित करना न केवल भ्रामक है बल्कि समाज को गलत दिशा में धकेलने के समान भी है। सवाल यह भी है कि क्या एक सीमित और लक्षित सर्वे से पूरे देश की मानसिकता का अनुमान लगाया जा सकता है? यह एक विचारणीय प्रश्न है जिसका उत्तर खोजने की जरूरत है।

जैसे ही यह रपट आई, उसके बाद इसे सोशल एवं इंटरनेट मीडिया पर इस तरह प्रचारित और महिमामंडित किया जा रहा है, जैसे यह कोई बहुत बड़ी खोज हो और इससे समाज में आमूलचूल परिवर्तन हो जाएगा। जो लोग इसके महिमामंडन और प्रमोशन में जुटे हैं, उनके तर्क हैं कि इस रिश्ते में भावात्मक जुड़ाव शून्य या नाम मात्र होता है। इसका मकसद केवल परस्पर मस्ती करना है। इसमें किसी पर कोई दायित्व नहीं। न ही लंबे समय तक किसी का बोझ ढोने की मजबूरी।

जिस प्रकार देश में नैनोशिप को बढ़ावा देने की कोशिशें हो रही हैं, उनमें बाजारवाद की गंध साफ महसूस होती है। आज डेटिंग एप्स एक बड़ा उद्योग बन चुके हैं जो रिश्तों को एक उपभोग की वस्तु के रूप में परोस रहे हैं। इससे बाजार को नए उत्पाद और नए ग्राहक मिलते हैं। डेटिंग एप्स संचालित करने वाली कंपनियां हर साल कोई नया कॉन्सेप्ट लाती हैं ताकि उनकी सेवाओं की मांग बनी रहे और लोग अधिक से अधिक जुड़ें। पर सवाल यह भी है कि क्या यह प्रेम की तलाश है या मुनाफे का गणित? बाजार में उपभोक्ताओं को ‘भावात्मक संबंध’ नहीं बल्कि ‘संतोषजनक अनुभव’ चाहिए, जिसे जब चाहे लिया और जब चाहे छोड़ा जा सके। नैनोशिप जैसी अवधारणाएं इसी बाजारू मानसिकता की उपज हैं, जो रिश्तों को ‘यूज एंड थ्रो’ की तरह पेश करती हैं। यह भारतीय समाज की भावपूर्ण, स्थायित्व और समर्पण की मूल भावना के विपरीत है। पर क्या रिश्तों में भी ‘यूज एंड थ्रो’ की मानसिकता सही है?

हमारे समाज की सबसे बड़ी ताकत उसका पारिवारिक ढांचा है। इसलिए विवाह को केवल व्यक्तिगत निर्णय नहीं बल्कि सामाजिक संस्था माना गया है। विवाह से जुड़ी सात फेरे जैसी रस्में जीवन भर साथ निभाने का वचन हैं। यह रिश्ता केवल दो व्यक्तियों के बीच नहीं बल्कि दो परिवारों के बीच होता है। इसमें समाज की भागीदारी होती है और यही सामाजिक समर्थन एक परिवार को मजबूती देता है।
हमारी संस्कृति में विवाह को जन्म-जन्मांतर का बंधन माना जाता है। यह केवल शारीरिक या तात्कालिक आकर्षण का परिणाम नहीं बल्कि एक गहन भावनात्मक और आध्यात्मिक जुड़ाव होता है। ऐसे में केवल मस्ती और पल भर के संतोष पर आधारित नैनोशिप जैसे रिश्ते क्या हमारे समाज में स्वीकार किए जा सकते हैं?

हाल के सालों का अनुभव बताता है कि लिव-इन रिलेशनशिस, ब्रेकअप, धोखा और हिंसक घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। प्रेम के रिश्ते में बंधने का दावा करने वाले लोगों ने किस प्रकार अपने साथी को निर्ममता से मौत के घाट उतारा है, यह हमने कई बार देखा है। जब रिश्तों में स्थायित्व और जिम्मेदारी नहीं होती, तब उनका परिणाम अक्सर मानसिक तनाव, अकेलेपन और कभी-कभी अपराध तक पहुंच जाता है। नैनोशिप जैसे रिश्तों में तो भावना और जिम्मेदारी का बिल्कुल अभाव ही है। ऐसे रिश्ते एक अस्थिर सामाजिक वातावरण ही बना सकते हैं जिसमें लोग सिर्फ अपनी तात्कालिक इच्छाओं के लिए जीते हैं। ऐसे लोगों के पास यह सोचने का समय ही नहीं होता कि उनके कर्मों का प्रभाव समाज और अन्य लोगों पर क्या होगा?

सवाल यह नहीं है कि नैनोशिप जैसा विचार हमारे समाज को किस कदर प्रभावित कर पाएगा बल्कि सवाल तो यह है कि हम इसके प्रभावों के प्रति कितने जागरूक हैं? यह समय चुनौतीपूर्ण और सजग होने का है। पश्चिम का अंधानुकरण करके हम पहले ही बहुत कुछ खो चुके हैं। अब हमें बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि रिश्तों में धैर्य, समझदारी, समर्पण और जिम्मेदारी कितनी जरूरी और क्यों आवश्यक है? हमें हम बाजार की ओर से थोपे जा रहे ‘नए ट्रेंड्स’ को आंख मूंदकर स्वीकार करने के बजाय अपनी संस्कृत और परंपराओं की समझ से उसका मूल्यांकन करना चाहिए। हमारे समक्ष अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए वैश्विक प्रवृत्तियों को समझने और उनके प्रति संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की बड़ी चुनौती है। संभव है नैनोशिप जैसे रिश्ते पश्चिमी देशों के समाज में फिट बैठते हों। अगर ऐसा है तो यह सब उन्हें मुबारक क्योंकि उनके यहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता सामाजिक जिम्मेदारियों से ऊपर है लेकिन भारत में यह विचार सिर्फ अस्थिरता, निराशा और टूटन ही लाएगा। हमारे देश में रिश्ते सिर्फ निजी नहीं हैं, रिश्तों को सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है। हमारे पारंपरिक समाज के लिए नैनोशिप न केवल अस्वीकार्य हैं बल्कि यह सीधा-सीधा सांस्कृतिक हमला भी है। यह विवाह बनाम वासना का मामला है, जिसके जरिए रिश्तों की परिभाषा बदलने की कोशिश की जा रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

