एमएसपी: किसान की ढाल या बोझ?

डॉ. संतोष राजपुरोहित.
भारत एक कृषि प्रधान राष्ट्र है जहाँ जनसंख्या का एक बड़ा भाग आज भी कृषि पर निर्भर करता है। कृषि केवल भोजन का साधन नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की आजीविका, संस्कृति और परंपरा से भी जुड़ी हुई है। आज़ादी के बाद भारत ने हरित क्रांति के माध्यम से कृषि उत्पादन में वृद्धि तो हासिल की, परंतु कृषि क्षेत्र की कई गहरी समस्याएँ जस की तस बनी रहीं। इन समस्याओं में मूल्य अस्थिरता, मौसम पर निर्भरता, लागत में वृद्धि और लाभ में गिरावट प्रमुख हैं। किसानों को इन समस्याओं से राहत देने के लिए ही न्यूनतम समर्थन मूल्य अर्थात एमएसपी की अवधारणा लाई गई थी। एमएसपी का उद्देश्य किसानों को उनकी उपज के लिए एक न्यूनतम मूल्य की गारंटी देना था ताकि यदि बाजार मूल्य नीचे गिर भी जाए तो भी उन्हें अपनी लागत निकालने के साथ-साथ कुछ लाभ अवश्य मिले। धीरे-धीरे यह नीति कृषि क्षेत्र का एक केंद्रीय स्तंभ बन गई और कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद की रीढ़।
न्यूनतम समर्थन मूल्य की शुरुआत 1960 के दशक में उस समय हुई जब देश में खाद्यान्न संकट गहराया हुआ था और सरकार किसानों को गारंटी देने की आवश्यकता महसूस कर रही थी। प्रारंभ में केवल कुछ फसलों पर यह व्यवस्था लागू की गई, लेकिन समय के साथ इसका दायरा बढ़ता गया और वर्तमान में यह व्यवस्था 23 फसलों पर लागू है। एमएसपी निर्धारण की प्रक्रिया में कृषि लागत एवं मूल्य आयोग प्रमुख भूमिका निभाता है। यह आयोग लागत, लाभ, बाजार मूल्य, उपभोक्ता हित, निर्यात-आयात संभावनाओं जैसे कई मापदंडों के आधार पर सरकार को सुझाव देता है। सरकार इन सुझावों के आधार पर प्रत्येक वर्ष रबी और खरीफ सीजन की प्रमुख फसलों के लिए एमएसपी घोषित करती है। वर्ष 2018 में केंद्र सरकार ने यह घोषणा की थी कि एमएसपी को किसानों की कुल लागत का डेढ़ गुना तय किया जाएगा, जिससे यह नीति और अधिक लाभकारी प्रतीत हुई।
हालाँकि एमएसपी की परिकल्पना जितनी आदर्श लगती है, उसका क्रियान्वयन उतना ही चुनौतियों भरा रहा है। देश के केवल कुछ चुनिंदा राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा,राजस्थान और मध्य प्रदेश में ही सरकारी एजेंसियाँ सक्रिय रूप से एमएसपी पर फसल खरीदती हैं, जबकि पूर्वाेत्तर और पूर्वी भारत के कई राज्यों में किसान आज भी एमएसपी की सुविधा से वंचित हैं। इतना ही नहीं, गेहूं और धान जैसी फसलों पर अत्यधिक जोर ने कृषि को एकरूप और पर्यावरणीय रूप से असंतुलित बना दिया है। नतीजतन जलस्तर में गिरावट, रासायनिक उर्वरकों का अत्यधिक प्रयोग, और फसल विविधता की हानि जैसी समस्याएँ सामने आई हैं। इसके अलावा, केवल छह प्रतिशत किसान ही अपनी फसल एमएसपी पर बेच पाने में सक्षम हैं, शेष को या तो बाजार मूल्य पर समझौता करना पड़ता है या फिर बिचौलियों की दया पर निर्भर रहना पड़ता है।


एमएसपी के पक्ष में कई तर्क हैं। यह नीति किसानों को एक न्यूनतम गारंटी प्रदान करती है, जिससे वे जोखिम लेने में अधिक आत्मविश्वास महसूस करते हैं। इसके साथ ही यह खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में भी सहायक है, क्योंकि सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए आवश्यक खाद्यान्न इन्हीं कीमतों पर खरीदती है। एमएसपी के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में आय में कुछ हद तक स्थिरता आती है और किसानों की आत्महत्या जैसी घटनाओं में भी कुछ कमी देखी गई है। परंतु इसके विपक्ष में यह भी कहा जाता है कि यह नीति केवल कुछ फसलों और कुछ राज्यों तक सीमित हो गई है जिससे कृषि क्षेत्र में असमानता बढ़ी है। इसके अलावा सरकार पर आर्थिक बोझ, भंडारण की समस्या, और खाद्य निगमों के घाटे जैसी समस्याएँ भी एमएसपी से जुड़ी हैं।


बीते वर्षों में एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की माँग ज़ोर पकड़ चुकी है। किसान संगठन चाहते हैं कि सरकार यह विधिक गारंटी दे कि कोई भी व्यापारी किसी किसान से एमएसपी से कम पर फसल नहीं खरीद सकेगा। उनका मानना है कि इससे किसानों को वाजिब मूल्य मिलना सुनिश्चित हो जाएगा और उनकी आय स्थिर रहेगी। लेकिन सरकार तथा कई अर्थशास्त्री इस माँग को अव्यावहारिक मानते हैं। उनका तर्क है कि इससे कृषि बाजार में निजी क्षेत्र की भूमिका घटेगी, सरकार पर खरीद और भंडारण का अत्यधिक दबाव पड़ेगा और प्रतिस्पर्धा समाप्त हो जाएगी। यदि कानूनी गारंटी दी भी जाती है तो उसे लागू कर पाना जमीनी स्तर पर अत्यंत जटिल होगा, विशेष रूप से वहाँ जहाँ सरकारी खरीद केंद्र मौजूद नहीं हैं
एमएसपी का प्रभाव केवल आर्थिक नहीं, बल्कि पर्यावरणीय और सामाजिक स्तर पर भी पड़ता है। जैसे-जैसे एमएसपी आधारित खरीद ने केवल गेहूं और धान को बढ़ावा दिया, वैसे-वैसे किसानों ने दूसरी फसलों से दूरी बनानी शुरू कर दी। इससे कृषि क्षेत्र में विविधता घटने लगी और जल संकट बढ़ा, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ धान जैसी जल-प्रधान फसलें उगाई जा रही हैं। मिट्टी की उर्वरता भी प्रभावित हुई है। इसलिए अब विशेषज्ञ यह सुझाव दे रहे हैं कि एमएसपी के साथ-साथ कृषि को टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल बनाने की दिशा में भी नीति निर्माण होना चाहिए।


विकल्प के रूप में कई मॉडल प्रस्तुत किए जा रहे हैं। जैसे कि ‘प्राइस डेफिसिएंसी पेमेंट स्कीम’ जिसमें सरकार केवल मूल्य अंतर का भुगतान करती है और फसल की शारीरिक खरीद नहीं करती। इससे भंडारण और परिवहन की समस्या से भी निपटा जा सकता है। इसके अलावा किसान उत्पादक संगठनों को प्रोत्साहन देना, डिजिटल मंडियों का विस्तार करना, और मूल्य शृंखला में किसान की भागीदारी बढ़ाना भी सुझाया गया है। कुछ राज्य सरकारें आय सहायता मॉडल जैसे तेलंगाना की ‘रायथु बंधु’ योजना और केंद्र सरकार की ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि’ के रूप में नई राह दिखा रही हैं।
भारत यदि अन्य देशों से सीख ले तो वह एमएसपी को एक आधुनिक, लाभकारी और समावेशी नीति में बदल सकता है। अमेरिका और यूरोप जैसे देश किसानों को आय सुरक्षा, बीमा, नवाचार और पर्यावरणीय अनुकूलन के माध्यम से समर्थन प्रदान करते हैं। भारत को भी कृषि सब्सिडी को केवल फसल की कीमत तक सीमित न रखकर एक व्यापक कृषि सुधार की दिशा में बढ़ना चाहिए।


2020-21 में जिस प्रकार किसान आंदोलनों ने एमएसपी को लेकर राष्ट्रीय विमर्श छेड़ा, वह इस बात का प्रमाण है कि यह विषय अब केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक पहचान का प्रश्न बन चुका है। सरकार द्वारा तीन कृषि कानूनों की वापसी के बावजूद किसान संगठन अब भी एमएसपी की कानूनी गारंटी की माँग कर रहे हैं। यह स्पष्ट करता है कि जब तक किसानों को आय की स्थायित्व का भरोसा नहीं होगा, तब तक कृषि क्षेत्र में स्थायी सुधार संभव नहीं है।


अंततः यह कहा जा सकता है कि एमएसपी एक उपयोगी नीति है लेकिन इसे समावेशी, पारदर्शी और पर्यावरण-अनुकूल बनाना अब समय की माँग है। सरकार, नीति-निर्माताओं और किसानों के बीच विश्वास का पुल बनाते हुए ऐसे समाधान खोजने होंगे जो सभी हितधारकों के लिए स्वीकार्य हों। कृषि को केवल सहायता की दृष्टि से नहीं बल्कि समृद्धि की दृष्टि से देखना होगा। यदि हम एमएसपी को सुधारों के साथ संतुलित करें, तो भारतीय कृषि न केवल आत्मनिर्भर होगी बल्कि देश के आर्थिक विकास की रीढ़ भी बनेगी।
-लेखक भारतीय आर्थिक परिषद के सदस्य हैं

image description

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *