

डॉ. प्रियंका चाहर
‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’, ये पंक्तियाँ हम सबने कहीं न कहीं ज़रूर सुनी हैं। लेकिन क्या आज की नारी केवल श्रद्धा का विषय है, या वो सम्मान की वास्तविक भागीदार बन पाई है? खासकर राजनीति जैसे क्षेत्र में, जहाँ निर्णय लिए जाते हैं, नीतियाँ बनती हैं, क्या वहाँ उसकी भूमिका केवल नाम की है या वास्तविक रूप से उसे नेतृत्व का अवसर भी मिला है?
भारत में जब नारी वंदन अधिनियम (महिला आरक्षण विधेयक) की चर्चा होती है, तो उम्मीदों का एक नया सूरज उगता नज़र आता है। अधिनियम कहता है, महिलाओं को राजनीति में 33 फीसद आरक्षण मिलेगा, यानी हर तीसरी कुर्सी महिला के लिए आरक्षित होगी। सुनने में तो यह क्रांतिकारी कदम लगता है, लेकिन सवाल यह है, क्या यह वास्तव में नारी को राजनीतिक अधिकार दिलवा पाएगा? क्या यह समाज की पुरुषवादी मानसिकता को झकझोर पाएगा? और सबसे ज़रूरी, क्या नारी खुद अपने अधिकारों को समझकर, उनके लिए आवाज़ बुलंद कर पाएगी?
आज़ादी के 78 सालों बाद भी भारतीय संसद में महिलाओं की भागीदारी केवल औपचारिक सी प्रतीत होती है। लोकसभा में 542 में से केवल 78 महिलाएँ सांसद हैं और राज्यसभा में यह संख्या मात्र 24 है। देश की सर्वाेच्च संवैधानिक कुर्सी पर आज तक सिर्फ दो ही महिलाएँ बैठ सकी हैं। और प्रधानमंत्री की बात करें तो केवल एक नाम ही दर्ज है, इंदिरा गांधी, जिनकी राजनीतिक दूरदर्शिता और निर्णय क्षमता ने न सिर्फ भारत को बल्कि पूरे विश्व को चौंकाया।
ग्रामीण भारत की सच्चाई कुछ और ही है। पंचायतों और नगरपालिका चुनावों में जब महिला उम्मीदवारों को खड़ा किया जाता है, तो अक्सर यह ‘मुखिया-पति’, ‘सरपंच-पति’ जैसे शब्दों में तब्दील हो जाता है। महिला केवल नाम की होती है, और सत्ता का रिमोट कंट्रोल पति या अन्य पुरुष रिश्तेदार के हाथों में होता है। कहीं-कहीं तो यह नौबत तक आ जाती है कि महिला प्रतिनिधि के दस्तखत तक उनके पति कर देते हैं! क्या यही है राजनीतिक अधिकार? क्या यही है महिला सशक्तिकरण?
यदि हम राजनीतिक दलों की बात करें, तो कोई भी पार्टी, चाहे वो कितनी भी बड़ी या उदारवादी क्यों न हो, शीर्ष पदों पर महिलाओं को सहजता से जगह नहीं देती। हां, महिला मोर्चा, महिला सभा जैसी इकाइयाँ ज़रूर बनाई जाती हैं, लेकिन सत्ता की असली चाबी अब भी पुरुषों के हाथ में ही रहती है। क्योंकि राजनीति में चलने के लिए जो ‘सिस्टम’ बनाया गया है, उसकी गहराई, जोड़-तोड़, रणनीति और कभी-कभी अनैतिकता की सीढ़ियाँ दृ ये सब नारी के आत्मसम्मान और सामाजिक सीमाओं के अनुरूप नहीं होतीं।
नारी वंदन अधिनियम एक स्वागत योग्य कदम है, लेकिन यह केवल एक दरवाज़ा है, उसमें से निकल कर सशक्त बनकर चलना, यह नारी को स्वयं करना होगा। और यह तभी संभव है जब महिलाएँ अपने अधिकारों और राजनीतिक कर्तव्यों के प्रति सजग हों, शिक्षा और आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता दें, समाज उन्हें ‘सहानुभूति’ नहीं, ‘सम्मान’ की दृष्टि से देखे।
क्या हम आधी आबादी को दरकिनार कर विश्वगुरु बन सकते हैं? वर्तमान समय में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध, असुरक्षा का वातावरण और सामाजिक दुश्चक्र, यह सब हमें एक बड़ा प्रश्न पूछने पर मजबूर करता है, क्या हम सचमुच विकास की दिशा में जा रहे हैं? क्या हम अपनी बेटियों को ऐसा समाज सौंपना चाहते हैं जिसमें उनकी आवाज़ दबा दी जाए, या उन्हें केवल एक चेहरा बना दिया जाए, जिसमें असली निर्णय कोई और ले?
समाधान किसी अधिनियम या आरक्षण में नहीं छुपा है। असली समाधान है, सोच में बदलाव। जब बेटियों को बचाने के साथ-साथ उन्हें पढ़ाया भी जाएगा, जब उन्हें निर्णय लेने का अधिकार मिलेगा, जब उनके विचारों को सुना जाएगा, तब नारी वंदन अधिनियम काग़ज़ी घोषणा न होकर वास्तविक क्रांति बनेगा।
नारी को अब यह मानना होगा कि राजनीति उसकी भी ज़िम्मेदारी है, सिर्फ पुरुषों का एकाधिकार नहीं। यदि महिला शिक्षित, आत्मनिर्भर और जागरूक है, तो वह किसी भी मंच पर अपने अधिकारों का उपयोग कर सकती है, फिर चाहे वह संसद हो या पंचायत।
अंततः, अधिनियम तो रास्ता है, चलना नारी को स्वयं होगा। जब वह अपने अधिकारों की मांग नहीं बल्कि उनका उपयोग करेगी, तब जाकर वह वंदनीय नहीं, वास्तविक सत्ता-धारिणी बन पाएगी।


