गोपाल झा.
सोशल मीडिया सियासतदानों तक ‘मैसेज’ छोड़ने का सशक्त जरिया है। यही वजह है कि ट्वीट पढ़कर पता चल जाता है कि ‘नेताजी’ के मन में क्या चल रहा है। अब जरा मरुप्रदेश की राजनीति में करीब चार दशक से सक्रिय ‘फूल वाली पार्टी’ के सीनियर ‘नेताजी’ को ही ले लीजिए। ‘बाबो सा’ का दौर हो या फिर ‘महारानी’ का। वे खास सिपहसालार बनकर उनके साथ खड़े दिखे। ओहदा बढ़ता रहा। बेशक, आज बड़े नेता हैं। लेकिन पार्टी में जब से ‘गुजराती बंधुओं’ का दबदबा बढ़ा, उनका कद घटना शुरू हो गया। आलम यह है, उनके सियासी ‘नगर’ का ‘तारा’ अब टिमटिमाता प्रतीत हो रहा है। इस बीच, जब से यूपी वाले नेताजी मरुप्रदेश संगठन प्रभारी बने तब से रही-सही कसर पूरी हो गई। चलती बैठक से नेताजी का बाहर निकलना बड़ा मुद्दा बन गया। बहरहाल, सोशल मीडिया पर यूपी वाले नेताजी के खिलाफ पार्टी कार्यकर्ता ‘आग’ उगल रहे हैं। बात आलाकमान तक पहुंची। नेताजी को चुप्पी तोड़ने का ‘फरमान’ सुनाया गया। नेताजी ने सोशल मीडिया पर चल रहे ट्रेंड का विरोध किया। लेकिन समर्थक शांत होने का नाम नहीं ले रहे। सियासी गलियारे में इस सवाल का तैरना लाजिमी है कि क्या ‘फूल वाली पार्टी’ में फिर कुछ ‘खास’ होने वाला है ?
सियासी फिजा में धुआं!
सियासत का खेल अलहदा है। घर में ‘आग’ लगी है और पड़ोसी के घर की तरफ नजरें हैं। कमाल है न ? जी हां। बात ‘फूल वाली पार्टी’ से ही जुड़ी है। ‘वजीर ए आला’ पर सूबे की सियासत नहीं संभाल पाने के आरोप लग रहे हैं। विपक्ष को छोड़िए, पक्ष वाले भी ‘पक्षधर’ नहीं दिख रहे। ऐसे में ‘वजीर ए आला’ घर संभालने की जगह विपक्ष पर निशाना साध रहे हैं। वैसे भी गुलाबीनगरी का मौसम इन दिनों अजीब सा है। मौसम साफ है लेकिन सियासी फिजा में धुआं-धुआं सा है। कुछ भी स्पष्ट नहीं दिख रहा। हर दल में ‘दल-दल’ सा है। सवाल है कि ‘वजीर ए आला’ ने खबरनवीसों के साथ बातचीत में पूरा ध्यान मरुप्रदेश से बाहर क्यों रखा? ऐसे सवाल करने वालों को भला कौन समझाए कि यह भी सियासत का हिस्सा है, जिसे राजनीतिक भाषा में ‘कूटनीति’ कहते हैं। राजनीति में जो होता है, वो दिखता नहीं है और जो दिखता है, वो होता नहीं है। जो इन ‘होने’ और ‘दिखने’ में फर्क समझ ले, वही राजनीति का ‘खिलाड़ी’ माना जाता है। समझे ?
वक्त तो लगता है….!
सूबे की सियासत से कुछ ‘वजीरों’ की छुट्टी होगी। जी हां। यह पुख्ता खबर है। चूंकि विधानसभा सत्र के दौरान कुछ ‘वजीरों’ के ‘परफॉर्मेंस’ संतोषजनक नहीं रहे, इसलिए उन्हें जिम्मेदारी से मुक्त करना जरूरी लगने लगा है। संगठन और सरकार की ओर से ‘दिल्ली दरबार’ तक लगातार फीडबैक पहुंचाए जा रहे हैं। ‘दरबार’ ने पहली दफा सूबे की कमान अपने हाथों में थामी है। यानी अपने ‘वजीर ए आला’ तो हमसाया भर हैं। फैसला तो ‘दरबार’ को ही करना होता है। चूंकि दिल्ली और जयपुर इतने नजदीक भी नहीं, इसलिए समय तो लगेगा ही। वैसे भी, आपको वो शेर तो याद ही होगा, ‘लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है…!
सीएमओ में सन्नाटा!
हाकिमों से हर कोई परेशान ही रहता है जैसे। भले वे जनप्रतिनिधि हों या फिर सूबे के ‘वजीर’। महकमा कोई भी हो, परेशानी एक सी। हाकिम किसी को तवज्जो नहीं देते। कहा जाता है कि उन्हें प्रशिक्षण ही इस तरह दिया जाता है कि भले वे ‘लोकसेवक’ हों लेकिन पेश आते हैं ‘शाही’ अंदाज में। शायद, इसलिए ब्यूरोक्रेट्स को ‘नौकरशाह’ भी कहा जाता है। खैर। बात शासन सचिवालय की है। आला अधिकारियों में ‘इधर-उधर’ होने की आशंका से बेचैनी है। ‘मलाईदार’ पदों पर आसीन ‘हाकिम’ जल्दी-जल्दी फाइलें निपटाने में जुटे हैं। उनके लिए एक-एक पल ‘बेशकीमती’ है। वहीं, ‘कोल्ड पोस्टिंग’ वालों के लिए एक-एक पल भारी हो रहा है। कब तबादला सूची आए और उनके ‘अच्छे दिन’ आएं। उधर, सीएमओ में कोई हलचल नहीं। सन्नाटा है। हलचल हो भी क्यों ? सूची तो ‘दरबार’ से आएगी न ? मगर….. कब आएगी ? बस, ये मत पूछिए!