खबरों की खबर: गजबे हैं वजीर साब!

गोपाल झा.
रुप्रदेश में पढ़ने-लिखने वाले महकमे के वजीर साब की जुबान कैंची की तरह चलती है। इसी से उनकी पहचान है। और वे अपनी इस पहचान को खत्म नहीं होने देना चाहते। कुछ समय से उनके बयान खबरनवीसों के लिए सुर्खियां नहीं बन पा रहे थे। वजीर साब भी बेचैन थे। अचानक उनके मन में आया कि क्यों न अध्यापिकाओं को लेकर ‘मन की बात’ की जाए। सो मौका मिलते ही एक कार्यक्रम में महिला टीचर के पहनावे को लेकर बोल पड़े। बकौल वजीर साब-‘शिक्षिकाएं आधे कपड़े पहनकर स्कूल जाती हैं, इससे बच्चों पर गलत प्रभाव पड़ता है।’ वजीर साब का यह बयान सुनकर महिला टीचर्स का आग बबूला होना लाजिमी था। महिला संगठनों ने इसे महिलाओं के सम्मान को ठेस पहुंचाने वाला बताया। जगह-जगह वजीर साब के पुतले फूंके जा रहे हैं। वजीर साब खुश हैं। इसी बहाने सप्ताह भर सुर्खियों में रहने का जुगाड़ हो गया है। आगे के लिए फिर आगे सोचेंगे। फिलहाल तो मौज हो गई। वाकई, गजबे हैं अपने वजीर साब!

तारणहार की तलाश!
पंजे वाली पार्टी’ भी ‘फूल वाली पार्टी’ के नक्शे कदम पर लग रही। मरुप्रदेश में जिस तरह ‘फूल वाली पार्टी’ ने दिग्गजों की ‘हेकड़ी’ निकाल रखी है, लगता है ‘पंजे वाली पार्टी’ को इससे सीख मिल गई है। अलबत्ता, सात सीटों पर हो रहे उप चुनाव में पंजे वाली पार्टी ने अपने दो दिग्गजों को सूबे से बाहर रखने का प्लान बना लिया है। यानी उनकी हेकड़ी निकालने का मन बना लिया है। ‘जादूगर’ और ‘उड़ान भरने वाले नेताजी’ को मराठा मानुषों को संभालने का जिम्मा दे दिया गया है। अब सियासी गलियारे में सवाल तैरना स्वभाविक है कि क्या आलाकमान ने जानबूझकर दोनों दिग्गजों को राजस्थान से दूर रखने का फैसला किया है? अगर हां, तो फिर ‘पंजे वाली पार्टी’ का तारणहार कौन होगा ? वैसे मरुप्रदेश ही क्यों, समूचे देश में इस पार्टी को तारणहार की जरूरत है। वैसे भी हर जरूरतें पूरी हों, यह जरूरी तो नहीं?

गठबंधन पर गांठ
प चुनाव का एलान हो गया। ‘फूल वाली पार्टी’ ने छह उम्मीदवारों का भी एलान कर दिया। ‘पंजे वाली पार्टी’ फिर पीछे रह गई। पार्टी अब तक गठबंधन को लेकर फैसला नहीं कर पाई है। ‘हनुमानजी’ अपनी बात पर अडे हैं। ‘बाप’ भी कम नहीं। ‘पंजे वाली पार्टी’ का एक पक्ष गठबंधन के पचड़े से दूर रहने का हिमायती है। दूसरा पक्ष, ‘गांठ’ खोलने का पक्षधर। लिहाजा, मामला अटका हुआ है। बहरहाल, पंजे वाली पार्टी पर ‘प्रेशर’ तो है ही। चार सीटों का सवाल है। काबिज रहने की मजबूरी। ‘फूल वाली पार्टी’ भले टेंशन में हो लेकिन उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। लेकिन पार्टी पहले भी उप चुनाव हार चुकी है। इसलिए रफ्ता-रफ्ता कदम आगे बढ़ा रही है। और पंजे वाली पार्टी ? वो तो रणनीतिक तौर पर हमेशा पीछे रहती है, पीछे है। आगे राम जाने!

‘ठाकुर’ तो गयो!
फूल वाली पार्टी’ के दो दिग्गज हाशिये पर हैं। पार्टी मजबूत है और दोनों ही नेता कमजोर स्थिति में। ‘ठाकुर साब’ चुनाव हारने के बाद मुख्यधारा से बाहर हैं तो ‘चौधरी साब’ के लिए हरियाणा की जीत ‘संजीवनी’ साबित हुई है। दिलचस्प बात है कि उप चुनाव में दोनों को उतारने की चर्चा थी। पार्टी ने राय भी ली लेकिन दोनों ने मना कर दिया। वजह यह कि कोई भी सीट दोनों नेताओं के लिए अनुकूल नहीं थी। यानी वे जीत को लेकर आश्वस्त नहीं थे और ‘हार-दर-हार’ स्वीकार्य नहीं। बहरहाल, राज आते ही मुख्य सिपहसालारों में शामिल रहने वाले ‘ठाकुर साब’ अब ‘पावरलैस’ नजर आ रहे और ‘चौधरी साब’ भी। वैसे ‘चौधरी साब’ के समर्थकों को यकीन है कि उनका ‘वनवास’ खत्म होने वाला है। यानी हरियाणा की जीत का उन्हें पुरस्कार मिलेगा। लेकिन अपने ‘ठाकुर साब’ का क्या होगा ? वैसे इतना तय है कि जो लोग ‘ठाकुर तो गयो’ का राग अलाप कर दिल को तसल्ली दे रहे हैं, उन्हें झटका लग सकता है। क्योंकि राजनीति को संभावनाओं का खेल कहा जाता है, जहां पर ‘वक्त’ बदलने में वक्त नहीं लगता।

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