




गोपाल झा.
एक समय था, जब हम खबर लिखते थे, और खबर बनते नहीं थे। अब जमाना बदल गया है। आजकल जब सच्चाई लिखो तो खबर कम, खतरा ज्यादा बन जाते हो। 28 बरस के पत्रकारिता जीवन में प्रेस की इज्ज़त भी देखी है और उसकी बेइज्जती भी। कभी जो ‘चौथा स्तंभ’ कहलाया करता था, आज वह किसी के हिसाब से ‘गिरोह’ है, तो किसी के लिए ‘भोंपू’। लेकिन सच तो यह है कि पत्रकारिता आज उस मोड़ पर खड़ी है, जहां वह अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है। जब मैंने पत्रकारिता शुरू की थी, तब प्रेस कार्ड गर्व की चीज़ होती थी। आज भी है, लेकिन अब वह गर्व कम, खतरे का संकेत ज्यादा बन गया है। अब देखता हूं, तो लगता है जैसे हम किसी ‘अघोषित आपातकाल’ में जी रहे हैं। टीवी चैनलों के स्टूडियो अब बहस के अखाड़े नहीं, सत्ता के ‘सिलेबस’ पढ़ाने वाली क्लासरूम बन चुके हैं। एंकर अब सवाल नहीं पूछते, केवल जवाब रटवाते हैं। मुद्दे वही जो सत्ता को सुहाए। और जो नहीं सुहाए, वे देशद्रोही घोषित।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि पिछले 10 वर्षों में 80 से अधिक पत्रकारों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई है, और दर्जनों जेल में हैं। पर इनकी चर्चा न सरकार में होती है, न संसद में, न ही प्राइम टाइम पर। अगर कुछ होता है तो बस एक शोर, ‘देश खतरे में है!’ लेकिन यह नहीं बताया जाता कि असल में खतरे में तो पत्रकारिता है। डिजिटल मीडिया एक उम्मीद की किरण बनकर उभरा था। लगा था, अब छोटे पत्रकारों की आवाज़ सुनी जाएगी। लेकिन वहां भी फेक न्यूज, कॉपी-पेस्ट कंटेंट और ट्रोल आर्मी ने उसे ज़हरीला बना दिया। अनुभवहीन पत्रकार, बिना संपादन के कंटेंट, और गाली-गलौच का बोलबाला। पिछले सप्ताह भारत-पाक के बीच तनाव मामले में मैंने एक आलेख लिखा, ‘कौन चाहता है युद्ध ?’ सोशल मीडिया पर ट्रोल आर्मी ने मेरे खिलाफ ट्रेंड चला दिया, ‘नामर्द और सफेद खून वाला’। अब हम यह नहीं तय कर पाए कि इन मूर्खों की भाषा पर मुस्कुराएं या नाराज हो।

सच बोलने का साहस अब कफन बांधकर करना पड़ता है। मेरी कलम जब स्याही छोड़ती है, तो मैं जानता हूं कि वह सिर्फ शब्द नहीं उगल रही, वह मेरी जिम्मेदारी, मेरा साहस, और कभी-कभी मेरा कॅरियर भी निगल सकती है।
बीते सप्ताह ‘4पीएम’ चैनल बंद कर दिया गया। वह चैनल सत्ता के खिलाफ नहीं, बल्कि सत्ता के सवालों के पक्ष में खड़ा था। लेकिन सच बोलने की सजा मिली। यह एक उदाहरण है, लेकिन असंख्य ऐसे मामले हैं, जहां छोटे अखबार, वेब पोर्टल्स, यूट्यूब चैनल्स को दबा दिया गया। विज्ञापन रोक दिए और गुप्त धमकियां आम बात हो गई।

एक समय था, जब संपादक की कुर्सी गरिमा की प्रतीक मानी जाती थी। अब कई जगह वह ‘प्रवक्ता’ की कुर्सी बन गई है। सरकारी दफ्तर से मैसेज आता है, ‘आज की हेडलाइन ये रहेगी।’ चैनल के मालिक कहते हैं, ‘सर, बहुत प्रेशर है ऊपर से।’ और नीचे के रिपोर्टर बस इतना कहते हैं, ‘सर, नौकरी बची रहनी चाहिए।’ लेकिन इन सबके बीच कुछ पत्रकार हैं जो आज भी मोर्चे पर डटे हैं। बिना डर के, बिना झुके हुए। वे कम हैं, लेकिन हैं। वही उम्मीद की आखिरी किरण हैं। वे दिखाते हैं कि पत्रकारिता अभी मरी नहीं है, बस घायल है, वेंटिलेटर पर।

सरकार अगर वाकई लोकतंत्र की हिमायती है तो उसे चाहिए कि पत्रकार सुरक्षा कानून बनाए। लघु व मध्यम श्रेणी के अखबारों को आर्थिक सहायता दे, लाइसेंसिंग प्रणाली को पारदर्शी बनाए, और यह सुनिश्चित करे कि पत्रकार बिना भय के अपना काम कर सकें। वरना प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 151वें से खिसककर 161वें पर पहुंचने में देर नहीं लगेगी। जब पत्रकार की कलम डर के साए में चले, तो लोकतंत्र कैसे बचेगा? प्रेस बचेगा, तभी जनता की आवाज़ बचेगी। और जब जनता की आवाज़ दबेगी, तो लोकतंत्र केवल कागज़ पर ही रह जाएगा।
आज जब विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है, तो यह केवल एक रस्मी तारीख नहीं, बल्कि आत्ममंथन का दिन होना चाहिए। यह याद रखने का दिन है कि हमने इस पेशे को क्यों चुना था। क्या सिर्फ रिपोर्टिंग करने के लिए? नहीं! हमने सच बोलने, सत्ता से सवाल पूछने, जनता की पीड़ा कहने के लिए इसे चुना था। और इसलिए, जब अगली बार कोई मुझसे पूछेगा, ‘क्या अब भी पत्रकारिता बची है?’ तो मैं कहूंगा, ‘हां, जब तक एक भी पत्रकार सच की आगोश में कलम उठाने को तैयार है, तब तक पत्रकारिता बची है। जिंदा है, जिंदा रहेगी।’
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं


