रूपसिंह राजपुरी.
गुरू गोबिंद सिंह जी महाराज विश्व के पहले महान व्यक्तित्व हुए हैं जिनके सिवाय शायद ही किसी के लिये कहा जाता हो ‘शहीद पिता के पुत्र, शहीद पुत्रों के पिता’। वे इकतालीस वर्ष कुछ माहकी आयु (22 दिसम्बर 1666-7 अक्टूबर 1708) में ही विश्व को स्वभिमान से जीने, धर्म पर अडिग रहने और त्याग व बलिदान का वो सबक सिखा गए, जिसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। सन 1705 का 21 दिसम्बर, 6 पौष से लेकर 28 दिसम्बर, 14 पौष तक का एक सप्ताह शायद ही किसी महापुरुष पर इतना भारी पड़ा हो जितना दशम गुरू गोबिंद सिंह जी पर गुजरा है। इस एक सप्ताह के कारण दुनिया उन्हें सर्ववंश दानी के नाम से जानती है ।
21 दिसम्बर को पिता द्वारा बसाया आनन्दपुर छूटा। 22 दिसम्बर को सरसा नदी पार करते समय घुप अंधेरी रात्रि में कड़ाके की ठंड, ऊपर से बरसाती नदी में बाढ़, पीछे शत्रु सेना का दबाव। बहुत से सहयोगी डूब गए। गुरू जी द्वारा रचित साहित्य जिस का वजन चालीस मन बताया जाता है, बाढ़ में बह गया। वे युद्धों से समय निकाल कर साहित्य रचना करते रहे हैं और सेनापति व भूषण आदि प्रसिद्ध 52 कवि उनके दरबार की शोभा बढाया करते थे। स्वयं अरबी, फारसी, बृज व संस्कृत के प्रकांड ज्ञाता थे। नदी पार करते-करते परिवार तीन हिस्सों में बंट गया।
खुद गुरू साहब, बड़े सुपुत्र अजीत सिंह, झुझार सिंह व कुछ सिंह सैनिक एक तरफ किनारे जा लगे। वहीं धर्म पत्नियां अलग कहीं व माता गुजर कौर और छोटे सुपुत्र साहबजादा जोरावर सिंह व फतेह सिंह 22 वर्ष से गुरू परिवार में रसोइया का काम करने वाला गंगा राम जो खजाने वाली खच्चरों पर सवार थे वे किसी अलग दिशा में ही जा निकले। खजाने के लालच में गंगाराम बूढ़ी दादी व छोटे सुपुत्रों को अपने गांव सहेड़ी मोरिंडा में ले गया और खुद थाना में जाकर हुकूमत के बागी गुरू गोबिंद सिंह की माता जी व पुत्र अपने घर होने की सूचना दी। उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उसी रात गुरूजी और साथियों ने नजदीक के छोटे कच्चे गढ़ ‘चमकौर दी गढ़ी’ में शरण ली जिसे तुरन्त मुगल सेना ने घेर लिया। भीतर कुछ सिंह बाहर टिड्डी दल सी शत्रु सेना। किसी तरह रात निकाली अगला दिन भी गुजरा। 23 दिसम्बर की रात को 17 वर्ष के साहबजादा अजीत सिंह ने बाहर जाकर लड़ने की इजाजत चाही तो स्वयं गुरू जी ने शस्त्र सजाये माथा चूमा और खिड़की खोल दी। अजीत सिंह का घोड़ा दुश्मन दल में छलांगें मारता हुआ घुसा। गाजर मूली की तरह मुगलों के सिर काटते हुए अजीत सिंह को स्वयं गुरू साहब किले की प्राचीर से देख रहे थे। एक बार तो शत्रु भी अपना कौशल भूल उस नौजवान को लड़ता देखने में मशगूल हो गये। अचानक किसी ने दाहिनी भुजा पर वार किया भुजा कट कर गिरी। दूसरे हाथ से लड़ते रहे और फिर दुश्मन उन पर मधुमखियों से टूट पड़े। साहब जादा अजीतसिंह पिता की आंखों के आगे खेत रहे। तब छोटे सुपुत्र झुझार सिंह को अपने हाथों तैयार किया और बाहर भेजा। उन्होंने भी एक बार तो शत्रु के छक्के छुड़ा दिए। आखिर चौदह साल का किशोर कितनी देर हजारों मुगलों का सामना करता। वीर गति को प्राप्त हुए।
24 दिसम्बर को शेष बचे सिख सरदारों की शहादत हुई। लेकिन गुरू साहब शत्रु के हाथ नहीं लगे। अगले दिन 25 दिसम्बर को रात्रि में बीबी हरशरण कौर ने साहबजादों और अन्य सिंहों के शव युद्ध के मैदान से लाशों के बीच से निकाले और दूर ले जाकर अंतिम संस्कार किया। शत्रु सेना को जलती चिताएं दिखी तो भागकर वहां गये और हरशरण कौर को पकड़ कर जिंदा उसी आग में धकेल कर शहीद कर दिया।
26 दिसंबर को सरहिंद शहर के सूबेदार वजीर खान की कचहरी में छोटे सुपुत्रों को पेश किया गया। उन्हें 23 दिसम्बर को गिरफ्तार करके पानी के तालाब के बीच बने बुर्जनुमा ठंडे कमरे में दादी सहित भूखा प्यासा रखा गया था। पौष माह की खून जमा देने वाली ठंड में दादी की गोद और गुरबाणी का ही सहारा था।
27 दिसम्बर को वजीर खान ने इजलास बुलाने का नाटक किया और मौलवियों से फतवा जारी करवाया कि अगर ये बच्चे इस्लाम स्वीकार नहीं करते तो इन्हें दीवार में जिंदा चिनवाया जाए क्योंकि सांप के बच्चे भी बड़े होकर सांप बनते हैं। ये हमारे दुश्मन की संतानें हैं। बताया जाता है कि घुटने आदि के पास दीवार बनाते समय ईंट नहीं तोड़ी गई घुटने ही काटे गए। गले तक दीवार आई तो दीवार गिर गई। बेहोश साहबजादों को धरती पर लिटाकर उनकी छाती पर बैठकर जल्लाद ने छुरे से गले काटे। प्यारे व मासूम पौत्र द्वय की शहादत की खबर सुनकर बुजुर्ग दादी ने भी प्राण त्याग दिए। इन नन्हें शहीदों की कुर्बानी पर राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त श्रद्धांजलि देते हुए लिखते हैं-
‘जिस कुल जाति देश के बच्चे
दे सकते हैं यों बलिदान।
उसका वर्तमान कुछ भी हो
भविष्य है महा महान ।।’
28 दिसम्बर को दादी जी व छोटे साहबजादों का अंतिम संस्कार हुआ। अंतिम संस्कार के लिये जगह देने से भी वजीर खान ने इंकार कर दिया था। उसी के दरबार में दीवान पद पर कार्यरत टोडरमल जैन इस घटना से बहुत दुखी थे। उन्होंने नबाब से जगह की कीमत देने की बात की तो वजीर खान लालच में आ गया। उसने कहा जितनी जगह चाहिए उस पर सोने की मोहरें बिछा दो। जब दीवान टोडरमल जीवन भर की कमाई केवल चार वर्ग मीटर जगह खरीदने के लिए लाये तो वजीर खान बोला मोहरें बराबर सटा कर और खड़ी करो। दीवान साहब ने 78000 मोहरें देकर चार गज जगह खरीदी जिसकी आजकी कीमत चार सौ करोड़ बनती है। यह दुनिया में सबसे महंगी जगह हो जाती है। सरहिंद में जो इस शहादत पर गुरुद्वारा बना है उसका एक हिस्सा दीवान टोडरमल जी को समर्पित किया गया है। गुरू गोबिंद सिंह जी जैसी बलिदानी मिसाल कहीं पर नहीं मिलती।
मुस्लिम शायर उनके बारे में लिखता है कि
‘न कहूं तब की, न कहूं जब की
बात कहूं मैं अबकी।
अगर न होते गुरू गोबिंद सिंह
सुन्नत होती सबकी।’
उनके पिताश्री नवम सिख गुरू तेग बहादर साहब की शहादत ने मृत प्रायः हिन्दू सन्तति में पुनः प्राण फूंक दिये। जब सन 1675 में धर्मांध बादशाह औरंगजेब ने जबरदस्ती इस्लाम कबूल करवाने का सिलसिला कश्मीर से प्रारम्भ किया और कुछ ही दिनों में हजारों हिंदुओं के जनेऊ उतरवा कलमा पढ़वा कर मुस्लिम बना चुका तो दुखी कश्मीरी पंडितों का एक दल आनंदपुर साहब में नवम गुरू तेगबहादुर से गुहार लगाने आया क्योंकि उत्तर भारत में वे ही उन दिनों बड़ी धार्मिक हस्ती थे। काफी चिंतन मनन के बाद उन्होंने कहा ‘औरंगजेब के कारिंदों को कह दो हमारे मुखिया गुरू तेगबहादुर हैं। अगर वे इस्लाम कबूल कर लेंगे तो हम भी मुस्लिम हो जाएंगे। तब तक जबरदस्ती धर्म परिवर्तन रोक दिया जाये। बात औरंगजेब तक पहुंची। गुरू जी को गिरफ्तार करके पैदल दिल्ली लाया गया। रास्ते में उनके हजारों शिष्य साथ होते रहे। सबको लाल किले में कैद किया गया। गुरू जी को डराने के लिये उनके सामने उनके शिष्यों को अमानवीय यातनाएं देकर शहीद किया गया लेकिन वे अडोल रहे। अंत में 11 नवम्बर 1675 को औरंगजेब की उपस्थिति में उन्हें पिंजरे में बंद करके कैदी हालत में चांदनी चौक लाया गया। एक बार पुनः इस्लाम कबूल करने पर जान बख़्श देने का रस्मी ऐलान सुनाया गया पर गुरूजी प्रभु भक्ति में लीन रहे तो बादशाह ने गुस्से में जल्लाद को तलवार से उन्हें शहीद करने का हुक्म दिया।
केवल नौं वर्ष की उम्र में गुरू गोविंद सिंह जी के सिर से पिता का साया उठ गया और औरंगजेब के प्रति बदले की आग उनके दिल में धड़कने लगी। अगले वर्ष 29 मार्च 1676 को उन्हें दस वर्ष की आयु में दशम गुरू के पद पर विराजमान करवाया गया। तभी से वे युद्ध कौशल का अभ्यास करने लगे। उन्हें ज्ञात था कि आने वाला समय शांति से व्यतीत नहीं होगा, युद्ध लड़ने पड़ेंगे। जब हिमालय की तराई में रणजीत नगाड़ा गूंजता और हजारों सिंह सरदार युद्धाभ्यास रत रहते तो मुगलों के साथ साथ पहाड़ी राजा भी उनकी बढ़ती सैनिक शक्ति से भयभीत रहने लगे और वे भी उनके विरुद्ध षड़यंत्र रचते रहते। उन्होंने 14 युद्ध लड़े।
मानव कल्याणार्थ खालसा पंथ की स्थापना दुनिया की महती घटना है। 13 अप्रैल 1699 को बैसाखी वाले दिन 33 वर्ष के भरपूर युवा गुरू गोबिंद सिंह जी ने भरे दीवान में नंगी तलवार लहराई और बोले-
जो तऊ प्रेम खेलन का चाओ।
सिर धर तली गली मोरी आओ।
इत मार्ग पैर धरीजै।
सिर दीजै काण न कीजै।
उन्होंने एक सिर देने वाले युवक का आह्वान किया। पहले तो सभा में अफरा तफरी फैल गई लेकिन लाहौर से आया दया राम हाजिर हो गया। उसे लेकर पीछे तंबू में गए और खून से भरी तलवार लेकर पुनः मंच पर आए। ‘एक सिर और चाहिए’ कहा तो हस्तिनापुर से गुर्जर जाति के धर्मचंद उपस्थित हुए। इसी तरह वे तीन बार और मंच पर आकर एक और सिर की मांग करते रहे तब द्वारका से आया मोहकम चंद छीम्पा, जगन्नाथपुरी से हिम्मत चंद और बीदर कर्नाटक से साहब चंद नाई ने गुरू जी के आदेश पर अपना सिर देना स्वीकार किया। थोड़ी देर बाद सजे हुए सिंह स्वरूप में उन पांचों को जन समुदाय के सम्मुख पेश किया और उनके नाम के साथ सिंह का सम्बोधन दिया। पहले उन्हें अपने कर कमलों द्वारा अमृत पान करवाया पुनः उनसे खुद अमृत ग्रहण किया।
‘पीओ पाहुल खण्डे धार
होए जन्म सुहेला।
वाहो वाहो गोबिंद सिंह
आपे गुर चेला।’
जब अपना सम्पूर्ण परिवार धर्म लेखे लगा दिया तब आपने सहज जीवन जीते हुए निकटवर्ती नगर तलवंडी साबो (भटिंडा) में काफी समय व्यतीत किया और श्री गुरू ग्रन्थ साहब की बीड़ अपनी देख रेख में तैयार करवाई। खुद की रचनाएं गुरू ग्रन्थ साहब के आकार के स्वयं रचित दशम ग्रन्थ में लिखी हैं। बाद में आपकी मित्रता औरंगजेब के बेटे बहादुर शाह से हो गई थी।
हनुमानगढ़ प्रवास, जसाना में संगत
बहादुरशाह के बुलावे पर दक्षिण जाते समय आप हनुमानगढ़ जिले को भी अपनी चरण छुअन प्रदान करते हुए गये। तलवंडी साबो से चलते हुए आप अपने पांच सहयोगियों के साथ सिरसा माधोसिंघाना आदि से होते हुए नोहर के जसाना के ठाकुर के मेहमान हुए। तब तक आपके नाम से उत्तर भारत में सब जानने लगे थे कि गुरू गोबिंद सिंह ने अपने चारों पुत्र धर्म के लिये कुर्बान कर दिये हैं। जसाना में चार दिन रहकर आपने सत्संग किया तो ठाकुर ने अपने बन्धु रावतसर के शासक रावत लखधीर सिंह को भी गुरू साहब से मिलने बुलवा लिया था। लखधीर सिंह उनसे मिलकर बहुत प्रभावित हुआ और अपने यहां आने का न्योता दिया। तब गुरू गोबिंद सिंह जी चार दिन के लिये रावतसर पधारे और ढाब की पाल पर सत्संग किया। रावतसर राजघराना के लोग कहते हैं कि यह अक्टूबर 1707 की बात है। उनके रावतसर प्रवास की एक तस्वीर बनवाकर रावतसर के किले में रखी गई है उसकी प्रति ढाब की पाल पर बने गुरुद्वारा में भी लगवाई गई है। यहां से नोहर गये और वहां उनके घोड़े के पांव के नीचे आकर एक कबूतर के मरने की घटना हुई। वहां विशाल कबूतर सर गुरुद्वारा बना है। एक कुएं का खारा पानी मीठा किया। उस जगह गुरुद्वारा शीनतलाई बना है। यहां से साहबा साहब जाते हुए एक खेत मालिक से बाजरे की रोटी खाई तो उस जगह सहारणों की ढाणी गांव बसा है और वहां कोई भी सिख घर न होते हुए शानदार लँगरसर गुरुद्वारा बना है। साहबा जाकर पानी की तंगी देख कर वरदान दिया था किसी दिन यहां हिमालय का पानी आयेगा।
1999 में साहबा लिफ्ट केनाल का पानी वहां पहुंच गया। आपका जन्म पटना शहर में हुआ लेकिन कर्मभूमि पंजाब रहा। दिव्य ज्योति में नांदेड़ साहब महाराष्ट्र में समाये। दाता भक्त शूरमा रूप एक ही महापुरुष में देखना हो तो गुरू गोबिंद सिंह जी का ध्यान लगा लेना चाहिए।
(लेखक रिटायर्ड अध्यापक और विख्यात साहित्यकार हैं)
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