सबसे बड़ा सवाल: राज बदलेगा या रिवाज

गोपाल झा.
राजस्थान विधानसभा चुनाव की रोचकता कई मायने में बेहद खास है। कुछ भी तय नहीं। असमंजस, अनिश्चितताएं और कुछ भी अनुकूल नहीं। हां, अनुकूलता के दावे जरूर किए जा रहे हैं कि ‘सरकार हमारी होगी’। सभी दलों के दावे ‘कॉमन’ होते हैं। कांग्रेस-बीजेपी के दावे में एक अंतर है। एक पक्ष ‘राज’ कायम रखने का दावा कर रहा है तो दूसरा पक्ष सरकार बदलने का ‘रिवाज’ बरकरार रखने का दम भर रहा है। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक भी पसोपेश में हैं। उनके मन में भी बार-बार यही सवाल घूम रहा है कि क्या राजस्थान में इस बार राज बदलेगा या फिर रिवाज ? तीन दशक की राजनीति को गौर से देखें तो हर चुनाव में ‘राज’ बदलने का ही ‘रिवाज’ रहा है।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हर तरफ से घिरे हुए प्रतीत हो रहे हैं। केंद्र सरकार, कांग्रेस आलाकमान, मीडिया का बड़ा तबका और समूचा विपक्ष। चारों के निशाने पर गहलोत ही दिखाई दे रहे हैं। शायद, सचिन पायलट की यह काबिलियत है या फिर अच्छी किस्मत कि गहलोत चारों तरफ से घिरे हुए हैं। लेकिन गहलोत के लिए राहत की बात है कि पांच साल की सरकार के खिलाफ आम जन में कोई बड़ी नाराजगी नजर नहीं आ रही। लगता है, जनता का यही भाव उनमें सरकार रिपीट होने की उम्मीद जगा रहा है। लेकिन ऐसा होगा, तब तो ?

बीजेपी में सब कुछ ठीक नहीं
प्रत्याशियों का चयन इतना कठिन हो सकता है, बीजेपी आलाकमान ने सोचा भी न था। केंद्रीय नेतृत्व तो पूरी तरह बेफिक्र था कि वे जैसा चाहेंगे, वैसा ही होगा। यही वजह है कि प्रत्याशियों की पहली सूची में आलाकमान ने अपने ‘मन’ की सुनी, पार्टीजनों की नहीं। पहली सूची से केंद्रीय नेतृत्व को ऐसा झटका लगा कि वह अब तक उबरने की स्थिति में नहीं है। असंतोष की आग इस तरह धधक उठी कि भाजपा का चाल, चरित्र और चेहरा तक ‘स्वाहा’ होता दिखने लगा। आनन-फानन कमेटी बनाई गई लेकिन कमेटी भी दंतविहीन शेर जैसी प्रतीत हुई क्योंकि केंद्रीय राज्य मंत्री कैलाश चौधरी को कमान सौंपी गई थी। जो लोग मोदी-शाह की बनाई सूची का विरोध कर रहे हैं भला वे कैलाश चौधरी को क्या समझेंगे ? खैर, भाजपा केंद्रीय नेतृत्व रक्षात्मक अंदाज में दिखने लगा। दूसरी सूची में उसका असर साफ नजर आया। ‘बैकफुट’ पर भी अलग-थलग दिखने वालीं वसुंधराराजे अचानक ‘फ्रंटफुट’ पर नजर आने लगीं। केंद्रीय नेतृत्व को शायद अपनी ‘गलती’ का अहसास हो गया था लेकिन पहली सूची में हुई गलती का खामियाजा तो उसे भुगतना ही होगा। असर यह हुआ कि अब पार्टी नेतृत्व सिरे से एक-एक सीट पर मशक्कत करता दिख रहा है। परिणामस्वरूप अब तक 200 सीटों पर उम्मीदवारों का चयन तक नहीं हो पा रहा है। इसमें दो राय नहीं कि मजबूत क्षेत्रीय क्षत्रप को कमान न देकर पार्टी ने बड़ा ही आत्मघाती कदम उठाया है। बीजेपी नेतृत्व को समझना चाहिए था कि राजस्थान को गुजरात समझना ‘आग’ को ‘पानी’ समझने जैसा है।

सुधरने के लिए तैयार नहीं कांग्रेस
कांग्रेस आलाकमान भी वक्त के थपेड़ों को झेलने के बावजूद सबक लेने के लिए तैयार नहीं दिखता। सोनिया गांधी सेहत नासाज होने की वजह से प्रभावी भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं रहीं। राहुल और प्रियंका बेशक कांग्रेस की कमजोरी हों लेकिन पार्टी के कई दिग्गज मन से उन्हें स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं। हाव-भाव और समय-समय पर वरिष्ठ नेताओं के व्यवहार में आए बदलावों को भांपना और फिर उसके अनुरूप आत्ममंथन कर खुद के स्वभाव में परिवर्तन लाना श्रेष्ठता के लक्षण हैं। लगता है, राहुल और प्रियंका यहां पर गच्चा खा जाते हैं। उन्हें समझना होगा कि जब उनमें वोट हासिल करने की क्षमता नहीं है, चुनाव जिताने की शक्ति नहीं है, संगठन को मजबूत करने का माद्दा नहीं है, खुद पार्टी अध्यक्ष नहीं हैं तो फिर किस हैसियत से खुद को ‘आलाकमान’ के तौर पर फैसले लेने के हकदार हैं? पुरानी परिपाटी है कि जब मुखिया कमजोर होता है तो परिवार का बिखरना लाजिमी है। कांग्रेस भी परिवार है, बिखर रही है तो फिर इस बिखराव के लिए जिम्मेदार कौन है ? टिकट वितरण में जिस तरह आलाकमान पेंच फंसा रहा है, कांग्रेस के लिए हितकर नहीं। होना तो यह चाहिए कि गहलोत-पायलट सहित राज्य के कुछ अन्य वरिष्ठ नेताओं को साथ बिठाकर सामंजस्य बिठाने के प्रयास हों। टिकट के पैरोकारों को सीटें निकालने की ‘गारंटी’ लेकर उचित फैसले लेने की छूट दी जाए ताकि वे अपने हिसाब से बेहतरीन निर्णय ले सकें।

थर्ड फ्रंट से उम्मीद नहीं
राजस्थान की राजनीति में मजबूत थर्ड फ्रंट के लिए जैसे कोई स्पेस है ही नहीं। अब तक तो यही स्थिति है, भविष्य का पता नहीं। बसपा सबसे प्रभावी रही है। छह सीटें तक नसीब हुईं लेकिन पार्टी को कभी मजबूती नहीं मिली। जीतने के बाद बसपा विधायक कांग्रेस में जाते रहे हैं। माकपा, बीटीपी, आरएलपी और आम आदमी पार्टी सरीखी पार्टियों ने पैठ बनाने की पूरी कोशिश की लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। कुछ सीटों पर जननायक जनता पार्टी भी किस्मत आजमाने के मूड में है। लेकिन कुछ हासिल हो पाएगा, कहना मुश्किल है। थर्ड फ्रंट के नाम पर विभक्त छोटे-छोटे दल अगर दर्जन भर सीटें हासिल कर लें तो अचरज नहीं। हां, निर्दलीयों की भूमिका प्रभावी हो सकती हैं, इसमें दो राय नहीं। कांग्रेस और बीजेपी में टिकट वितरण से खफा ‘बागी’ निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में आ सकते हैं। लेकिन दोनों ही दलों ने सभी सीटों पर अब तक उम्मीदवारों का एलान नहीं किया है, इसलिए सूबे की सियासत के संभावित समीकरण को समझने का दावा करना नादानी है।  
 

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