गोपाल झा.
राम और रावण। एक ही राशि के दो नाम। दोनों ही विद्वान। सत्ता के केंद्रबिंदु। महापराक्रमी। अजेय योद्धा।
नाम की राशि मात्र से व्यक्ति की तुलना नहीं हो सकती। तुलना तो व्यक्ति के चित्त, चरित्र और कृतित्व के आधार पर होती है। बस। इसी में रावण पिछड़ जाता है। आस-पास नहीं फटकता, श्रीराम के समक्ष।
श्रीराम कुश-आसन पर बैठकर संस्कृति की रक्षा करने के अभिलाषी हैं तो रावण राज- सिंहासन पर बैठकर समस्त जगत को अपने अधीन करने के लिए आतुर दिखाई देता था। श्रीराम अपनी शक्ति को साधना में परिवर्तित करने के पक्षधर हैं तो रावण साधना के माध्यम से शक्ति अर्जित करना चाहता था। श्रीराम प्राणी मात्र के वंदन में अपार सुख महसूस करते हैं तो रावण को सामूहिक क्रंदन में आनंद की अनुभूति होती थी। श्रीराम धर्म के विधान से राजनीति को दिशा देने का प्रयास करते हैं तो रावण राजनीति के माध्यम से धर्म को नियंत्रित करना चाहता था। राम और रावण दोनों ही साधक हैं परंतु दोनों के ध्येय में अंतर है। श्रीराम की साधना का उद्देश्य समाज है, प्राणीमात्र का कल्याण है तो रावण साधना के मार्ग से परम सत्ता हासिल करना श्रेयस्कर समझता था। सत्ता को लक्ष्य मानकर की गई साधना विनाश की तरफ ले जाती है तो सत्तासीन व्यक्ति के मन में उपजी साधना की भावना विकास का बीजारोपण करती है। राम त्याग के भावों से भरे हुए हैं तो रावण प्राप्ति के भावों से प्रेरित था।
प्रत्येक वर्ष हम जब दशहरा मैदान में रावण के प्रतीक को अग्नि के हवाले करते हैं तो वह अट्टहास करता हुए कुछ कहता है। जरा गौर से सुनिएगा। बकौल रावण,‘ हे मूर्ख मानव! यूं कब तक स्वयं को छलते रहोगे। मन, कर्म और वचन से तुम सदैव मेरा अनुसरण करते हो। मुख से राम-राम करने मात्र से कुछ न होगा। श्रीराम के चित्र के समक्ष मस्तक झुकाने से भी कुछ नहीं होगा। हां, स्वभाव में उनका चरित्र उतारने से व्यक्तित्व खिल जाएगा। श्रीराम का चरण पकड़ने मात्र से बेहतर है, उनके आदर्श को आचरण में उतारो। मैंने दमन की नीति अपनाई, वंश का सर्वनाश कर बैठा। श्रीराम ने वंदन का भाव अपनाया, प्रेरणास्त्रोत बन गए। मैं निंदनीय और श्रीराम वंदनीय हो गए। इसलिए श्रीराम शब्द का अर्थ समझो। उनको मन में उतारो। तो ही जीवन धन्य हो सकेगा।’
सचमुच, लंकेश का संदेश हमें शिरोधार्य है। हम सब श्रीराम जैसा राजा, श्रीराम जैसा पति, श्रीराम जैसा पुत्र, श्रीराम जैसा पिता और श्रीराम जैसा मर्यादित शत्रु तो चाहते हैं लेकिन श्रीराम के आचरण को अपने चरित्र में समावेश करना श्रेयस्कर नहीं मानते। तभी तो ‘ढाक के तीन पात’ बनकर रह गए हम। श्रीराम को मानते हैं पर श्रीराम की नहीं मानते। राम! कितना मधुर और मन को तृप्त करने वाला शब्द है यह। श्रीराम यानी रोम-रोम में चेतना का संचार करने वाली शक्ति। जय राम जी की।