गोपाल झा.
सरकारी नौकरी और सियासत में क्या अंतर है ? दोनों जगह जनता की ‘सेवा’ की जाती है। हां, सरकारी नौकरी मुश्किल प्रक्रियाओं से होकर गुजरती है तो राजनीति भी आसान नहीं। विधायक बनने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। मसलन, पहले टिकट के लिए जोड़-तोड़ करनी पड़ती है। नेताओं की चौखट पर ‘हाजिरी’ लगाने से लेकर उनको ‘खुश’ करने के लिए सारे जतन करने पड़ते हैं। सरकारी नौकरियों में भी ‘दक्षिणा’ देने की अघोषित परंपरा है तो टिकट पाने के लिए भी इस रस्मअदायगी से होकर गुजरना पड़ता है। हां, एक अंतर है। बड़ा सा अंतर। सरकारी नौकरी के लिए उम्र निर्धारित है। राजनीति में नहीं। आलम यह है कि सरकारी सेवा से निवृत्त होने के बाद काफी संख्या में लोग राजनीति में पर्दापण करते हैं। विधायक, सांसद व मंत्री बनते हैं। जनता की ‘सेवा’ करते हैं, बदले में ‘मेवा’ का सेवन करते हैं।
सरकार ने भले अधिकारी-कर्मचारी के लिए उम्र निर्धारित कर रखी हो। यानी 60 साल के व्यक्ति को सरकार ‘काम का आदमी’ नहीं मानती। इसीलिए तो उसे ‘रिटायर’ कर दिया जाता है। तो क्या, 60 साल से अधिक उम्र के जनप्रतिनिधि ‘काम’ के नहीं होते? इस तरह के सवाल सियासी गलियारे में तैरते नजर आते हैं।
सरकार ने भले अधिकारी-कर्मचारी के लिए उम्र निर्धारित कर रखी हो। यानी 60 साल के व्यक्ति को सरकार ‘काम का आदमी’ नहीं मानती। इसीलिए तो उसे ‘रिटायर’ कर दिया जाता है। तो क्या, 60 साल से अधिक उम्र के जनप्रतिनिधि ‘काम’ के नहीं होते? इस तरह के सवाल सियासी गलियारे में तैरते नजर आते हैं।
देखा जाए तो सरकारी नौकरी की अपनी पॉलिसी है। जिस व्यक्ति ने 30-40 साल तक सरकारी सेवा की है, उसे आराम भी मिलनी चाहिए। फिर वह इस उम्र तक आते-आते परिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त होने लगता है। सरकारी सेवा में रहते वह समय के अधीन रहता है। सीमित अवकाश होते हैं। परिवार, रिश्तेदार व समाज को वक्त नहीं दे पाता। इसलिए रिटायरमेंट के बाद वह परिवार, रिश्तेदार और समाज के लिए समय निकालता है। बच्चों के साथ बिंदास जीवन व्यतीत करता है। अपनी मर्जी की जिंदगी जीता है। आजाद और मस्त अंदाज में। कोई रोक-टोक नहीं। सब कुछ हिसाब से। इससे उसे आनंद की अनुभूति होती है। जिंदगी का अर्थ जीने का मौका मिलता है।
सियासत में इस तरह की कोई पॉलिसी नहीं है। राजनीतिक पार्टियां अपने हिसाब से नियम बनाती हैं और फिर अपनी सुविधा के हिसाब से उसे तोड़ती भी हैं। बीजेपी और कांग्रेस नियम बनाने और तोड़ने में अग्रणी मानी जाती है। राजस्थान विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियों की एक ‘कॉमन समस्या’ हैं, उम्रदराज नेता। जी हां, समस्या ही हैं। बीजेपी कह चुकी है कि 70 प्लस उम्र वाले नेताओं को टिकट नहीं देंगे। इस घोषणा से युवाओं की बाछें खिल गईं। अब तो उनका नंबर आ ही जाएगा। इसलिए इस तरह की सीटों पर दर्जन से अधिक टिकटार्थी तैयार हो गए। पार्टी ने सर्वे करवाया तो रिपोर्ट चिंताजनक है। अधिकांश बुजुर्ग नेता युवाओं पर भारी हैं। जाहिर है, वे लंबे समय तक राजनीति में रहे, विभिन्न ओहदों पर और पॉवर में रहे तो उनके सामने कहीं कोई नया चेहरा कैसे टिकेगा ? यह तो व्यवहारिक सी बात है। अब पार्टियां समझ नहीं पा रहीं कि क्या करे ?
दरअसल, जब कोई पार्टी लोकप्रियता के शीर्ष पर होती है तो वह प्रयोग करती है। नई टीम को आगे बढ़ाने की पहल करती है। राजस्थान के प्रस्तावित चुनाव में ऐसी स्थिति नहीं है। कांग्रेस की बात छोड़िए, बीजेपी भी ‘बैकफुट’ पर है। लोकसभा चुनाव में भले मोदी का ‘जादू’ चलता रहा है लेकिन विधानसभा चुनावों में मोदी की लोकप्रियता ‘टांय-टांय फिस्स’ हो जाती है। हिमाचलप्रदेश और कनार्टक जैसे राज्यों के चुनाव परिणाम सामने हैं। मोदी ने पूरी ताकत झोंक दीं। जनसभाएं, नुक्कड़ सभाएं और रोड शो। धार्मिक उन्माद। वगैरह-वगैरह। लेकिन जनता ने मोदी को भी नकार दिया। बस, यही चिंता का सबब है बीजेपी नेतृत्व के समक्ष। कर्नाटक की तरह राजस्थान में हारने का मतलब है मिशन 2024 को वक्त से पहले ‘फेल’ करना। पार्टी यह कतई नहीं करना चाहेगी। तो एक ही रास्ता है। अपने बनाए नियम को तोड़ना। सूत्रों की मानें तो पार्टी इसके लिए तैयार हो गई है। यही स्थिति कांग्रेस की भी है। राजस्थान में सरकार रिपीट होने की परंपरा नहीं रही लेकिन गहलोत सरकार अपनी योजनाओं के दम पर इस बार परंपरा तोड़ने की उम्मीद पाले हुए है। इसलिए वह ‘रिस्क’ लेने की स्थिति में नहीं। यानी दोनों पार्टियों को जीतने लायक उम्मीदवार चाहिए। उम्र, चाल, चरित्र आदि की बातें गौण हैं। तो क्या, टिकट को लेकर बुजुर्गवार नेताओं की टेंशन खत्म होगी ? सवाल वाजिब है लेकिन माकूल जवाब के लिए थोड़ा इंतजार तो करना ही पड़ेगा!
–लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के एडिटर इन चीफ हैं