नई शिक्षा नीति लागू होने के तीन साल पूरे हो रहे हैं। इसे पूरी तरह जमीन पर उतारना अभी बाकी है। बेशक, यह एक चुनौती भी है। लेकिन इच्छाशक्ति मजबूत हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं। नई शिक्षा नीति की खासियतें और चुनौतियों पर फोकस कर रहे हैं शिक्षाविद् डॉ. संतोष राजपुरोहित….
डॉ. सन्तोष राजपुरोहित.
नई शिक्षा नीति के रूप में इतना बड़ा कागजी सुधार जमीन पर कैसे उतारा जाए? यह एक चुनौती है और उसे पार पाने में सफलता तभी मिलेगी जब राज्य सरकारें दलगत राजनीति से ऊपर उठकर नई शिक्षा नीति के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाएंगी। नई शिक्षा नीति में अर्ली चाइल्डहुड केयर पर काफी फोकस किया गया है, इसके अंतर्गत नई शिक्षा नीति में 6 वर्ष से पहले ही बच्चों को शिक्षा आरंभ करने पर काफी जोर दिया गया है। बच्चों के दिमाग का 85 फ़ीसदी हिस्सा 6 वर्ष से पहले ही विकसित हो जाता है। इस उम्र में बच्चों को सिखाने पर ध्यान नहीं देने से उनकी सीखने की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। तमाम तरह के शोधों से प्रमाणित हुआ है कि बच्चों में पढ़ने की क्षमता उन्हें बचपन में मिले संतुलित आहार से प्रभावित होती है, इसलिए वे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। ऐसे बच्चे पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। यूनिसेफ के प्रयास से अलग-अलग देशों में बच्चों के लिए पोषाहार और मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था लागू की गई है। भारत में भी इसे आंगनवाड़ी के माध्यम से बाल पोषाहार और प्राथमिक विद्यालयों में मध्यान्ह भोजन व्यवस्था के तौर पर है। नई शिक्षा नीति में अब भोजन से पहले पौष्टिक अल्पाहार देने की भी बात है। बच्चों में मानसिक विकास के पहलुओं पर ध्यान देने की वजह से व्यवस्था में सुधार आने की संभावना है। हालांकि पोषाहार में शिक्षकों की भूमिका अधिक होने से वह अपने मूल उद्देश्य अध्यापन से विमुख होने लगते हैं। स्कूलों में पोषाहार एक महत्वाकांक्षी योजना है, इसे किसी अन्य स्वयंसेवी संगठन के माध्यम से अधिक प्रभावी रूप से चलाया जाना चाहिए, ताकि शिक्षकों को उनके मूल कार्य में ही अधिक उपयोगी बनाया जा सके।
स्कूली शिक्षा में दूसरा बड़ा बदलाव साइंस, आर्ट्स और कॉमर्स के स्ट्रीम को समाप्त करना है।
अब बच्चे 11वीं एवं 12वीं में अपनी पसंद का कोई भी विषय चुन सकते हैं। बहुविषयक व्यवस्था रहेगी, निसंदेह इसका विद्यार्थियों को लाभ ही होगा। 10$2 शिक्षा प्रणाली की पाठ्यक्रम संरचना में बदलाव किया जाएगा जिसमें क्रमशः 5 वर्ष का फाउंडेशन स्टेज होगा, इस स्टेज में 3 वर्ष से 6 वर्ष की आयु तक 3 साल आंगनवाड़ी या प्रीस्कूल या बाल वाटिका के माध्यम से तथा 6 वर्ष से 8 वर्ष की आयु तक 2 साल कक्षा 1 से 2 में मल्टी लेवल प्ले, एक्टिविटी आधारित लर्निंग पर जोर होगा।
आयु 8 वर्ष से 11 वर्ष तक 3 साल कक्षा 3 से 5 को प्रीपेरेटरी कहां गया है इसमें प्ले, डिस्कवरी और एक्टिविटी आधारित इंटरैक्टिव क्लासरूम लर्निंग की व्यवस्था होगी। आयु 11 से 14 वर्ष तक 3 साल कक्षा 6 से 8 इसे मिडिल स्टेज कहा गया है इसमें विज्ञान, गणित, कला, सोशल साइंस और मानविकी में अनुभवजन्य सीख दी जाएगी।
कक्षा 6 से वोकेशनल कोर्स पढ़ाए जाएंगे स्किल डेवलपमेंट पर जोड़ दिया जाएगा, प्रोजेक्ट बेस्ड लर्निंग होगी, स्कूल के दौरान इंटर्नशिप को भी प्रोत्साहित किया जाएगा और यह छात्रों के सर्वांगीण विकास में मदद करेगा। स्कूली छात्रों को बेसिक कोडिंग का भी प्रशिक्षण दिया जाएगा। इंटर्नशिप कार्यक्रम छात्रों के लिए सीखने का एक बड़ा स्त्रोत है, क्योंकि मात्र कक्षाओं में बैठकर प्रायोगात्मक शिक्षण नहीं हो सकता मिडिल स्टेज में प्रत्येक शैक्षणिक सत्र में 10 दिन बैकलेस की व्यवस्था होगी, जिसमें विद्यार्थी विशेषज्ञों से पॉटरी , कारपेंटरी इत्यादि कौशल आधारित व्यवसायों का प्रशिक्षण लेंगे, एक निश्चित समय दुकानों पर काम का प्रशिक्षण मिलेगा इससे श्रम का महत्व स्थापित होगा। जर्मनी, अमेरिका में यह व्यवस्था है ताकि विद्यार्थी जीवन से ही श्रम का महत्व समझे जबकि हमारे देश में श्रम को हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है। निसंदेह है अभिनव प्रयोग होगा यह स्कूली शिक्षा व्यवस्था में अगर ईमानदारी से लागू किया जाता है तो।
आयु 14 से 18 वर्ष तक 4 साल को सेकेंडरी कहा गया है, कक्षा 9 से 12 वीं में बहुविषयक अध्यापन होगा, छात्र की रूचि के अनुरूप विषय उपलब्ध होंगे। स्मार्ट क्लासेस की बात नई शिक्षा नीति में है, तकनीकी को बढ़ावा देने की बात भी है, जबकि नेशनल सैंपल सर्वे रिपोर्ट 2017-18 के अनुसार भारत में 23.8 फ़ीसदी परिवारों के पास इंटरनेट है, 16.5 फ़ीसदी लोगों के पास कंप्यूटर है, 20.1 फ़ीसदी लोगों ही इंटरनेट चलाना जानते हैं।
नई शिक्षा नीति के अंतर्गत 2025 तक प्रत्येक विद्यार्थी के पास कंप्यूटर होगा, इसमें संशय है।
मौजूदा 10$2 ढांचे के स्थान पर 5$3$3$4 की नई रूपरेखा नवाचार और महत्वाकांक्षी होने के साथ तमाम चुनौतियों से भी भरी है कौशल मापन, व्यवसायिक शिक्षा, समानता, गुणवत्ता, स्थानीय एवं वैश्विक मिश्रण, समावेशी एवं द्विपक्षीय समझ, विश्लेषणात्मक समाज का विकास, बस्ते का हल्का बोझ, शिक्षा जोन, कम पाठ्यक्रम और शुरुआती दौर में बेहतर पढ़ाई के लिए मातृभाषा में अध्यापन वास्तव में बहुत अच्छा विचार है। अमूमन सभी नीतियां भली मंशा के साथ तैयार हो जाती हैं लेकिन फर्क इसी बात से पड़ता है कि उन्हें कैसे लागू किया जाता है। विकसित देश काफी पहले ही इन पहलुओं को अपनी शिक्षा प्रणाली में जुड़ चुके हैं। सभी यूरोपीय देश यहां तक कि चीन और इजरायल न केवल अपनी स्कूली शिक्षा बल्कि उच्च शिक्षा को भी अपनी मातृभाषा में सुनिश्चित कर चुके हैं। जिससे उनकी मातृभाषा में ही बेहतर पर्याप्त सामग्री और संसाधन उपलब्ध है। साथ ही उन्हें अंग्रेजी सीखने में भी गुरेज नहीं होता जो ना केवल वैश्विक अनुभव के लिए आवश्यक है बल्कि एक अतिरिक्त लाभ भी है। अंग्रेजी सीखना और अंग्रेजी मीडियम में पढ़ना दोनों अलग-अलग बातें हैं। दुर्भाग्य से हमारे यहां अंग्रेजी मीडियम पर ज्यादा फोकस किया गया बजाय अंग्रेजी सीखने के। निसंदेह अपनी मंशा और विषयवस्तु में एनईपी काफी बढ़िया है। लेकिन वास्तविक चुनौती से मूर्त रूप देने में होगी।
शिक्षा शास्त्र के शोध बताते हैं कि मातृभाषा में संज्ञान और संप्रेषण सहज और शीघ्र होता है। इससे बच्चे रटने की जगह आसानी से जटिल चीजों को भी समझ सकते हैं जो उनके समग्र विकास के लिए आवश्यक है। आपवादों को छोड़ दें तो दुनिया के अधिकांश बड़े चिंतकों, वैज्ञानिकों, आविष्कारकों, रचनाकारों ने अपनी ही भाषा में आरंभिक शिक्षा पाई। आज की स्कूली शिक्षा का ज्यादा जोर शैक्षणिक पाठ्यक्रम पर है। एनईपी पाठ्येतर क्रियाकलापों और वोकेशनल शिक्षा पर भी जोर देती है। वर्तमान में मैकाले मॉडल की शिक्षा नौकरी ढूंढने वाले बेरोजगारों की बड़ी फौज तैयार कर रही है। गांधीजी के श्रम सिद्धांत के अनुरूप अब छठी क्लास से ही वोकेशनल कोर्स शुरू किए जाएंगे। कोडिंग जैसे आधुनिक वोकेशनल प्रशिक्षण छठी क्लास से ही उपलब्ध होंगे।
लघु व कुटीर शिक्षा पर हो फोकस
महत्वपूर्ण है कि वोकेशनल शिक्षा के आधुनिकतम कोर्सेज के साथ-साथ स्थानीय लघु एवं कुटीर उद्योग से संबंधित प्रशिक्षण कोर्स भी उपलब्ध हो। नया मॉडल युवाओं की बड़ी तादाद के लिए स्वरोजगार और स्व उधम की दिशा में उपयोगी सिद्ध होगा। यूरोप व अमेरिका जैसे विकसित देशों में वोकेशनल शिक्षा पाठ्यक्रम का अभिन्न हिस्सा होती है। जिन्होंने इस नीति को लागू करना है, उन्हें सिफारिश के पीछे की सोच और तर्क को समझाना होगा। तभी इसका सही क्रियान्वयन होगा, अन्यथा दोषपूर्ण क्रियान्वयन एक अच्छी नीति को बर्बाद कर देगा। कितने लोग जानते हैं कि स्कूल शिक्षा में फाउंडेशन और प्रीपेरेटरी शब्दों का इस्तेमाल क्यों किया है?, हम अन्वेषण और अनुभव आधारित शिक्षा के बारे में क्या सोचते थे?, हम नए उपकरणों आदि के बारे में क्या बात कर रहे हैं। यह सब और कई अन्य विचार शिक्षा नीति के दस्तावेजों में विस्तृत रूप से नहीं हो सकते थे, क्योंकि शिक्षा नीति के दस्तावेजों का लक्ष्य दिशा देना और उसे समझाना है, शेष क्रियान्वयन की योजना में है। मेरा मानना है कि यदि हम राष्ट्रीय शिक्षा नीति समिति की विचार प्रक्रिया को इसके क्रियान्वयन में बनाए रखने में विफल होते हैं तो अनुवाद और परिवर्तन में इसका सार खो जाएगा। जिसका परिणाम दोषपूर्ण क्रियान्वयन होगा। इसके बारे में अत्यधिक सावधानी की आवश्यकता है। दूर-दराज के गांवों के स्कूलों में अक्सर एक ही कमरे में एक साथ दो कक्षाएं चलती हैं। इनमें बैठे बच्चों का एक समूह है एक तरफ ब्लैकबोर्ड की तरफ देख रहा होता है और दूसरा समूह दूसरी तरफ ब्लैक बोर्ड की और देख रहा होता है अक्सर दोनों पाठ आपस में गुडमुड़ हो जाते है, जिससे किसी भी विद्यार्थी के लिए इतिहास के पाठ के बीच अंक गणित का समझना मुश्किल हो जाता है। जरूरी हो जाता है कि दूर-दराज के विद्यालयों में भी आधारभूत सुविधाएं बढे, इस नीति में कहा गया है कि आसपास के विभिन्न स्कूलों को मिलाकर उनके संसाधनों से एक सेन्ट्रल लाइब्रेरी बनाई जाएगी वास्तव में यह प्रयास सराहनीय है।
मूल्यांकन प्रणाली विकसित करने की जरूरत
ग्रामीण भारत में आमतौर पर शिक्षक किसी विषय के विशेषज्ञ नहीं होते हैं। उनके पास अक्सर सिर्फ स्नातक की डिग्री होती है और कुछ के पास थोड़ा बहुत शिक्षण प्रशिक्षण का अनुभव भी। ऐसे शिक्षकों को आधुनिक शिक्षण विद्या में प्रशिक्षित करने की जरूरत है, जिससे उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा परिणाम देने के काबिल बनाया जा सके, जबकि मौजूदा शिक्षकों को अपने कौशल को उन्नत बनाने का मौका दिया जाना चाहिए। उनके काम की निगरानी के लिए एक मूल्यांकन प्रणाली बनानी होगी शिक्षक पात्रता परीक्षा में अब स्थानीय भाषा का ज्ञान भी परखा जाएगा इस नीति की एक अच्छी बात यह भी है कि अब पैराटीचर, गेस्ट टीचर नहीं रखे जाएंगे बल्कि पूर्णकालिक शिक्षक ही होंगे, जे.एस. वर्मा कमेटी वर्षों पूर्व अपनी रिपोर्ट में है सुझाव दे चुकी है।
जरूरी है तबादला नीति
राजस्थान सहित देश के अधिकांश राज्यों में आजादी के बाद आज तक शिक्षकों के लिए ट्रांसफर पॉलिसी नहीं बन पाई है, अधिकांश मामलों में इसके अभाव में अनेकों राज्यों में इसने तबादला उद्योग का रूप ले लिया है। यह शिक्षा और शिक्षक को दोनों के लिए चिंताजनक है। यह नीति स्कूल में क्षेत्रीय भाषाओं में सिखाने की अनुमति देती है लेकिन अंग्रेजी और गैर अंग्रेजी सिखाने वालों के बीच के अंतर को और बढ़ा सकती है और गैर अंग्रेजी छात्रों के लिए रोजगार के अवसरों में कमी हो सकती है। इसे पूरी तरह से जांच लें और फिर उसके अनुकूल कदम उठाने की आवश्यकता है। यह नीति व्यय की वृद्धि के माध्यम से शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करती है, लेकिन इस बारे में बहुत स्पष्टता से उल्लेख नहीं किया गया है। पहली शिक्षा नीति 1968 में शिक्षा पर जीडीपी का 6 फीसदी खर्च तय किया गया था, लेकिन अभी तक इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका है। भारत शिक्षा पर खर्च के मामले में 62वें स्थान पर है और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यापक योजना की जरूरत होगी। नई नीति को इसके विजन के लिए सराहा जा सकता है, लेकिन इसे वास्तविकता में बदलना आसान नहीं है। इसके क्रियान्वयन में बाधाएं सामने आ सकती हैं, जिनका समाधान तलाशना होगा।
–लेखक राजस्थान आर्थिक परिषद के पूर्व अध्यक्ष हैं
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