वेदव्यास.
राष्ट्रीय एकता दिवस की इस शपथ को आगे बढ़ाते हुए हमारे प्रधानमंत्री भी एक सरकारी विज्ञापन के माध्यम से कहते हैं कि भारत के लिए सरदार पटेल के महत्वपूर्ण योगदान को परिभाषित करने के लिए कोई शब्द नहीं है। आइए! शांति, एकता, भाईचारे और सद्भावनापूर्ण भावना को आगे बढ़ाएं तथा भेदभाव रहित एवं न्यायपूर्ण भारत का निर्माण करें।
इस शपथ और श्रद्धांजलि को पढ़कर मेरा मन भी विनम्रता से झुक जाता है और अपने आपसे ये सवाल करता है कि क्या सरदार पटेल के सपनों का भारत, आजादी के सात दशक बाद भी ऐसा कुछ बनता और कुछ करता हुआ नजर आ रहा है? क्योंकि भारत निर्माताओं का पहला और अंतिम सपना इसके संविधान में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने स्थापित करते हुए भी यही बताया है कि भारत को एक-संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए हम भारत के लोग उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करने वाली एकता, अखंडता और बंधुता के लिए कार्य करेंगे। इस तरह शपथ और संकल्प लेते-लेते और अच्छे दिनों के सपने देखते-देखते और प्रधानमंत्री के मन की बात सुनते-सुनते मुझे आज भी लगता है कि हम भारत के लोग अब उपनिवेशवाद, सामंतवाद लोकतंत्र के बाद आज बाजारवाद के भंवर में इतने बुरे फंस गए हैं कि सभी महापुरुषों और संविधान की दुहाई देना भी अरण्योदन जैसा हो गया है।
लोकतंत्र को सत्ता की राजनीति ने लूट लिया है तो समाजवाद को पूंजीवाद ने धराशायी कर दिया है तो पंथ निरपेक्षता को धर्म और जाति की सेनाओं ने घेर लिया है। एकता, स्वतंत्रता और समता का इतना बुरा हाल है कि अदालतों की कमर टूट गई है और आम आदमी की सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलने की आदत ही छूट गई है।
विडंबना यह बन गई है कि सवा सौ करोड़ देशवासी हारे को हरिनाम जैसा जीवन बिता रहे हैं और हताशा और निराशा में केवल एक ही चिंता से दुबले हो रहे हैं कि आखिर इस अंधेरी रात का सवेरा कब होगा? गरीबी, असमानता, अशिक्षा, कुपोषण और हिंसा भरी सुबह-शाम से भारत मुक्त कब होगा? हम भारत के लोग 76 साल बाद भी अपनी पहचान की महाभारत भी एक तरफ धर्म और जाति के हथियारों से लड़ रहे हैं तो दूसरी तरफ विज्ञान के रथ पर सवार होकर राष्ट्रवाद के हवाई घोड़े दौड़ा रहे हैं? विश्व की महान शक्ति बनने का परचम लहराते हुए भी हम आज तक भय, भाग्य और भगवान की आस्थावादी परिक्रमा ही लगा रहे हैं तथा जवाबदेही, पारदर्शिता और संवेदनशीलता से मुक्त, अखंड भारत की कामना कर रहे हैं।
क्या सरदार पटेल ने ऐसा कभी सोचा था कि 21वीं शताब्दी के भारत में दूसरी आाजादी की लड़ाई-आपातकाल की तानाशाही से होगी और तीसरी आजादी की लड़ाई धर्म और जाति की संकीर्णताओं से होगी, तो देश की 60 करोड़ युवा आजादी भी गंदी राजनीति के गंदे खेल में बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से लहूलुहान होकर केवल भारत माता की जय के नारे लगाकर ही अमेरिका और चीन जैसा विकास कर लेगी?
आज नए भारत का मूल संकट यह है कि एकता, समता और बंधुत्व के विज्ञापन पढ़ते हुए और नारे सुनाते हुए देश में असमानता, हिंसा और विभाजन लगातार बढ़ रहा है और कहीं किसी को न्याय नहीं मिल रहा है। बंद गली के आखिरी मकान की तरह पूरा लोकतंत्र पता नहीं बाजार के आगे सरकार नतमस्तक क्यों हैं? महंगाई और झूठ-पाखंड का इतना दबाव है कि रास्ते चलता आदमी अपना रास्ता भूल रहा है और सबका आसपास-अविश्वसनीयता में झूल रहा है। ऐसा लगता है कि टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया का विकल्प भी युवाओं के सपनों को अराजकता में धकेल रहा है तथा कोई भी सूचना, विकास और परिवर्तन का आधार नहीं बता रही है। ऐसे में कवि दुष्यंत कुमार की ये कविता अक्सर याद आती है कि कैसे मंजर सामने आने लगे हैं। गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं। क्योंकि कला और संगीत अब मनोरंजन में बदल गया है तो शब्द और साहित्य को असहिष्णुता ने देशद्रोही बना दिया है तो जलवायु में इतनी असुरक्षा का जहर फैल गया है कि सांस लेना भी दूभर है। न्याय के इतने बुरे दिन आ गए हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी सरकार से पूछ रहा है कि क्या अदालतों के ताले लगा दें? इस परिवर्तन में हम भारत के लोग केवल नींद में चल रहे हैं और खुली छत पर सो रहे हैं। बाजार पर मुनाफे का नियंत्रण है तो युवाओं पर सपनों का इंद्रजाल बुना जा रहा है और समाज में वर्ग भेद और वर्ण भेद का गृह युद्ध हावी है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं)