जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध

वेदव्यास. 

आजकल सभी तरफ लोकतंत्र के राजनीतिकरण और राजनीति के अपराधीकरण की चर्चा है। दलबदलू, हत्यारे, डकैत, लुटेरे और यहां तक कि साधु-सन्यासी भी राजनीति में अपना डेरा-तंबू लगाकर जमे हुए हैं। 1952 से लेकर अब तक के चुनाव को देखें तो इससे पता चलेगा कि हमारी संसद में सबसे अधिक सांसदों का पेशा खेती-बाड़ी है तो सबसे कम सांसदों का पेशा कलाकारी है। इस सूची में नागरिक प्रशासन, सैन्य प्रशासन, कूटनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री, इंजीनियर, पूर्व राजा-महाराजा, श्रमिक नेता, न्यायाधीश, वकील, डॉक्टर, वायुयान चालक, सामाजिक कार्यकर्ता, धर्मगुरु, शिक्षक, व्यापारी और उद्योगपति भी शामिल हैं तो मुठ्ठीभर सांसद पेशे से पत्रकार और लेखक भी हैं। क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है और साहित्य प्रधान देश नहीं है। इसलिए यहां संसद और विधानसभाओं में भी उसी का डंका बज रहा है जिसके पास वोट हैं। जनप्रतिनिधियों के इस खेल में पत्रकार की दाल भी इसलिए गल जाती है कि वह एक मीडिया की तोप होने के कारण राजनीति में वोटों को और नोटों को प्रभावित करता है। लेकिन इस चुनावी महासमर में लेखक और साहित्यकार शुरू से ही नाक-भों सिकोड़कर बाहर खड़ा है। साहित्यकार राजनीति को मानवीय चेहरा देना चाहता है किंतु राजनीति में मानवतावाद और शाश्वत मूल्यवाद का कहीं कोई स्थान नहीं है। यहां तक की राजनीति में फिल्मी कलाकारों की धूम है तथा फिल्म अभिनेता खिलाड़ी और संगीत के कलाकार तो भारत रत्न से सम्मानित हो चुके हैं लेकिन साहित्यकार यहां भी वैज्ञानिकों की तरह चुनावी राजनीति में पिछड़ा हुआ है।
देखने में तो यह भी आया है कि तीसरी श्रेणी का लेखक यदि राजनीति में घुस भी गया तो वह फिर कहीं न कहीं साहित्यकार होने का रुतबा हासिल कर लेता है, लेकिन अभी तक ऐसा कोई चमत्कारी उदाहरण हमारे सामने नहीं है जिसे कि यह कहा जा सके कि अमुक साहित्यकार ने लोकसभा और विधानसभा में किसी जीत का झंडा गाड़ दिया हो। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता शिवराम कारंत ने लोकसभा का चुनाव लड़ा था और उनकी जमानत जप्त हो गई थी। इसी क्रम में 544 सदस्यों की लोकसभा का यह रिकॉर्ड है कि यहां साहित्यकारों को चुनावी टिकट कोई भी पार्टी नहीं देना चाहती क्योंकि मतदान का संबंध आवाम से है और मतदाताओं से है तथा इस मामले में एक साहित्यकार को प्रत्याशी बनाना निःसंदेह घाटे का ही सौदा है।
इसके विपरीत भारतीय लोकतंत्र ने साहित्यकारों के लिए संसद में जाने का एक सुगम रास्ता यह बना दिया है कि वहां साहित्य मनीषियों का मनोनयन राज्यसभा के लिए और राज्यों की विधान परिषदों के लिए कर दिया जाता है। राजनीति अथवा लोकतंत्र की मुख्यधारा में जाने का यह ऊपरी दरवाजा राष्ट्रपति के द्वारा मनोनयन से खुलता है। आपको याद होगा कि राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, भगवतीचरण वर्मा, अमृता प्रीतम, श्रीकांत वर्मा, श्री नारायण चतुर्वेदी और करतार सिंह दुग्गल सरीखे साहित्यकार ही मनोनयन से राज्यसभा में गए हैं। फिल्मी कलाकारों का राज्यसभा में मनोनयन तो एक आम बात है लेकिन साहित्यकार का इस मनोनयन में पहुंचना एक जटिल कार्य है। कारण एक यह भी है कि लेखक और साहित्यकार कभी भी किसी सत्ता और व्यवस्था के लिए सुविधाजनक नहीं होते और इसलिए कोई कवि/ कहानीकार सामान्यतः किसी राजनीतिक दल का कभी सक्रिय सदस्य भी नहीं बनता। साहित्यकार को विपक्ष में रहने और बैठने में ही मजा आता है। कुछ अपवादों को छोड़कर देखें तो यही मालूम पड़ेगा कि यदि कोई साहित्यकार किसी राजनीतिक पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता बन भी गया तो वह या तो पंडित विष्णुशास्त्री (भारतीय जनता पार्टी) हो जाएगा या फिर सुभाष मुखोपाध्याय (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) की तरह मुख्यधारा से अलग पड़ा रहेगा। इसलिए राजनीति में एक लचक और संशोधनवाद की दरकार हमेशा बनी रहती है जबकि साहित्यकार भावुक, उदार और मानवीय तो हो सकता है लेकिन वह पार्टी का तोता नहीं बन सकता।
इन सभी दांवपेंचों पर आपने कभी इसलिए भी नहीं सोचा होगा कि आमतौर पर साहित्यकार और लेखक वाचाल नहीं होते। वह राजनीति को प्रभावित करने का सक्रियतावाद पसंद करते हैं लेकिन पार्टी के रात दिन वाले खटकर्म से परहेज करते हैं। उन्हें किंगमेकर बनने का शौक है अथवा गलतफहमी तो है, लेकिन आमतौर पर वह राजनीति को आत्मिक शांति और एकाग्रता भंग करने का काम ही समझता है। राजनीति और साहित्य को लेकर अक्सर बहस भी होती है तथा धर्म को राजनीति से अलग रखने जैसे तर्क भी साहित्यकार देते हैं, लेकिन मेरी समझ से एक साहित्यकार तो जन्मजात समाजविज्ञानी होता है इसलिए वह मनुष्य और समाज की व्यापक संरचना से कभी नहीं बच सकता। संगठन और पार्टियां तो विचार और विवेक को आगे बढ़ाने का एक जनमोर्चा ही रहती है। इसलिए वह यदि चुनाव न भी लड़े लेकिन उसे चुनाव के परिणामों को प्रभावित करने की सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया में सक्रिय हिस्सेदारी जरूर करनी चाहिए।
आप स्वतंत्रता संग्राम के पूरे इतिहास को देखें तो आपको ज्ञात होगा कि रविंद्रनाथ टैगोर, बंकिमचंद्र, सुब्रमण्यम भारती, प्रेमचंद, गुरुचरण सिंह, कालीचरण महापात्र, फैज अहमद फैज, काजी नज़रूल इस्लाम, विजयसिंह पथिक, गणेशलाल व्यास श्उस्तादश्, कैफ़ी आज़मी, अली सरदार जाफरी जैसे सैकड़ों महत्वपूर्ण लेखक और साहित्यकार अपने समय की राजनीति से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए थे। स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में आज भी हजारों साहित्यकार शामिल हैं तथा साहित्य और राजनीति का चोली-दामन का साथ है।
साहित्य और राजनीति के इसी मुख्यप्रवाह में राजस्थान से ही पंडित जनार्दन राय नागर, प्रकाश आतुर और भीम पांड्या जैसे कवि/लेखक कभी अपनी भूमिका निभा चुके हैं। वहां लोकसभा के चुनाव में भी अजमेर सीट पर कवित्री प्रभा ठाकुर और उदयपुर की सीट पर गिरिजा व्यास ने भी अपनी हलचल मचाई है। श्रीमती लक्ष्मीकुमारी चूंडावत तो बहुत पहले राज्यसभा में जा चुकी हैं तथा पद्मश्री से सम्मानित भी हो चुकी है। हमारे उपन्यासकार मुद्राराक्षस भी उत्तर प्रदेश में लोकतंत्र की चुनावी जंग लड़ चुके हैं। यहां सवाल सफलता और असफलता का नहीं है, अपितु इस बात का है कि कोई शब्द के संचार से आगे बढ़कर लोकतंत्र के इस महासमर में तो आया।
अब यह बहस तो बेमानी है कि साहित्य को राजनीति के नाते ईमानदारी को लक्ष्मी से दूर रहना चाहिए क्योंकि एक लेखक और साहित्यकार के नाते ईमानदारी और प्रतिबद्धताओं के सारे संघर्ष चुनावी और संसदीय राजनीति में जाकर भी बनाए रखे जा सकते हैं। राजनीति से दूर रहने का जो आदर्शवाद हमने ओढ़ रखा है उसी का यह परिणाम है कि ईमानदार और प्रतिबद्ध लोगों की जगह राजनीति में अपराधीकरण और वंशवाद ही चल रहा है तथा आमजन के संघर्ष कमजोर पड़ रहा है। इस स्थिति में राज्यसत्ता से पुरस्कार/सम्मान लेते रहने से अथवा नदी के बाहर खड़े रहकर धारा को कोसते रहने से तो अधिक ईमानदार सृजन यह है कि आप शब्दों और विचारों का जो अलौकिक सूत और धागा बैठकर कातते हैं उसे राजनीति में जाकर काता जाए। मैक्सिम गोर्की, फैज अहमद फैज, ज्यां पॉल सार्त्र, लूशीन जैसे विश्व विख्यात साहित्यकार और प्रेमचंद निराला, मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई जैसे अनेक साहित्यकारों ने आधारभूत मान्यताएं ही बदल दीं। आज महाश्वेता देवी का संपूर्ण लेखन किसी चुनौती राजनीति से कम थोड़े ही है। चुनाव नहीं लड़ने वाला ही तो राजनीति में अंतिम निर्णायक होता है और साहित्य में भी जन पक्षधरता को अपनी रचना का संघर्ष बनाने वाला लेखक ही तो समय और समाज का सेतु बनता है।
यह एक लंबी बहस है और इसलिए भी जरूरी है कि समाज के सकारात्मक तत्वों की उदासीनता और जड़ता से आज मानवीय लोकतंत्र की हर गली में चोर और संसद में ठग घुसते जा रहे हैं और उन्होंने संपूर्ण मानवीय सदाचार को एक भ्रष्टाचार में और शासन और प्रशासन जनविरोधी गिरोह में बदल दिया है। दुष्यंत कुमार ने इसलिए कहा था कि-” अब तो इस तालाब का पानी बदल दो/ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं।” यानी कि सवाल चुनाव लड़ने का ही नहीं है अपितु एक सामाजिक सक्रियता का भी है जो इस लोकतंत्र की गंदी राजनीति को साहित्य की पवित्र समझ और सरोकार दे सकें। आप यह बहस अपने भीतर उठाइए क्योंकि साहित्यकार का मूकदर्शक और तटस्थ बना रहना भी एक अपराध है और कायरता है। ‘जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी इतिहास’ जैसी कविता पंक्तियां दिनकर जी ने इसलिए कही थी कि आप संसद में जाएं लेकिन मनुष्य के संघर्ष तक तो जाएं। एक साहित्यकार की यह समझ ही उसकी-आज सबसे बड़ी सामाजिक राजनीति भी है। अतः सोचिए क्योंकि यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए सही सोच का रचनात्मक समय है और लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का वर्ष है। 
 (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)

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