गोपाल झा.
खबरों की दुनिया। व्यापक हो गई है। बढ़ गया है दायरा और ‘चूक’ होने का खतरा भी। टेक्नोनालॉजी की वजह से खबरें चक्रवात की भांति आगे बढ़ती है, फिर उन्हें नियंत्रित करना मुमकिन नहीं होता।
हमारे जैसे खबरनवीसों के पास सीमित संसाधन हैं। लेकिन जो संस्थान संसाधनों से लबालब हैं, ‘चूक’ उनसे भी खूब होती है। लेकिन चूक तो चूक है, उसे तो गलत ही माना जाएगा। भले वह चूक हमसे हुई हो।
संगठनों का दायित्व आयोजन करवाना होता है। जाहिर है, उससे संबंधित खबरें भी प्रसारित होनी चाहिए। आम जन को तभी पता चलता है। यही खबर है।
आज से डेढ़ दशक पहले तक हर संगठन में ‘प्रचार मंत्री’ का एक पद हुआ करता था। उस प्रतिनिधि का दायित्व प्रेस नोट लिखना और सभी अखबारों के दफ्तर जाकर पहुंचाना होता था। इसी बहाने वह संबंधित खबरनवीसों के साथ थोड़ी देर बैठकर चर्चा भी कर लेता। खबरनवीस को प्रेस नोट के अलावा कुछ जानकारी की तलब होती तो वह पूछ लेता। खबर को कुछ ‘एक्सक्लुसिव’ पुट भी मिल जाता।
अफसोस की बात, संगठनों में ‘प्रचार मंत्री’ पद नाम के रह गए हैं। उसका मूल दायित्व खो गया, लगता है। प्रेस नोट के नाम पर जानकारी उपलब्ध करवाना छायाकार का दायित्व हो गया है। वह अपने सीमित ज्ञान व अनुभव के आधार पर जो लिखकर देता है, हम उसे प्रकाशित करने के लिए ‘बाध्य’ हैं। यही कड़वा सच है। हम महाभारत के ‘संजय’ नहीं कि हमारे पास ‘दिव्य दृष्टि’ हो, हम सब कुछ देख सकें। जब छायाकार की ओर से उपलब्ध इनपुट के आधार पर खबरें बनती हैं तो कई बार स्थिति विस्फोटक हो जाती है।
‘भटनेर पोस्ट’ डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी कल यही हुआ। एक खबर से हंगामा मच गया। बाद में संबंधित संस्था के प्रतिनिधियों के कहने पर संबंधित प्रेषक ने अपडेट खबर भेजी। जिसमें वह पैराग्राफ नहीं था जो हंगामे का कारण बना। सवाल यह है कि इस समूचे मामले में कोई मीडिया संस्थान कैसे गलत हो गया ? आप उसकी मंशा पर कैसे सवाल उठा सकते हैं ? उसने तो उस इनपुट के आधार पर ही खबर बनाई है, हेडिंग बनाई है। खबर कैसे लिखनी है, क्या हेडिंग होनी चाहिए, यह आयोजक या अतिथि तो तय करने से रहे।
सच पूछिए तो खबरों की विश्वसनीयता के लिए सबसे पहली जिम्मेदारी मीडिया संस्थान की होती है। लेकिन संस्थान की मजबूरी है कि हर खबर को कवर करने की स्थिति में नहीं। ऐसे में संस्था का प्रचार मंत्री सहयोगी बने। वह तथ्यपरक जानकारी उपलब्ध करवाए जिसे अधिकृत माना जाएगा। इससे गफलत की स्थिति नहीं बनेगी। प्रचार मंत्री खबर टाइप कर संबंधित छायाकार को उपलब्ध करवाए या फिर खुद अपनी सुविधा के मुताबिक मीडिया संस्थानों तक प्रेषित करे।
देखा जाए तो मीडिया संगठनों ने कई बार ऐसे प्रयास किए लेकिन स्वयंसेवी अथवा सामाजिक संस्थानों के पास भी वही स्थिति है। मानव संसाधनों की कमी। कहने को भले संगठन है लेकिन काम करने वाले कितने होते हैं ? ऐसे में सबको मिलजुलकर प्रयास करने की जरूरत है। पत्रकारिता, चिकित्सा, राजनीति, व्यवसाय या अन्य क्षेत्रों की बात करें तो सिक्के के दो पहलू वाली स्थिति है। कुछ अच्छे हैं तो कुछ बुरे भी। बेहतर होगा, हम सब अपने पेशे से जुड़ी बुराई को ईमानदारी से स्वीकार करना सीखें। यही श्रेष्ठ तरीका है। व्यवस्था बनाने में सामूहिक पहल और सहयोग जरूरी है। हर शहर में इस तरह की पहल होनी चाहिए ताकि बेहतर समाज के निर्माण में हम सब प्रभावी भूमिका निभा सकें।