आग का दरिया है और ‘तैर’ के जाना है….

वेदव्यास.

साहित्य भी मनुष्य और समय का पर्याय है इसलिए इस बात पर विचार करना भी जरूरी होगा कि मुद्रा, मंडी और माध्यम (जनसंचार) के त्रिकोण में फंसे लेखक और पाठक की जीवनरेखा और विचार रेखा का क्या भविष्य है। वैसे तो समकालीन साहित्य के स्वर आजादी प्राप्त करने के बाद से ही बदलने लगे थे किंतु अब यह परिवर्तन इतना हृदय विदारक है कि रचनाकार का मन और संवेदना चिथड़े-चिथड़े होती नजर आ रही है।

आदिकाल, वीरकाल, भक्तिकाल और रीति काल के बाद साहित्य में स्वतंत्रता के समय का जो विजयघोष उभरा था वह अब लगभग समाप्त हो गया है। जिस तरह स्वतंत्रता सेनानी अब अपनी पेंशन और वृद्धा अवस्था निर्वाह भत्ता प्राप्त करने के लिए भ्रष्ट व्यवस्था के निर्माता राजनेताओं को मुख्य अतिथि बनाकर उनका माल्यार्पण कर रहे हैं उसी तरह साहित्यकार भी आत्महीनता और आत्ममुग्धता के दर्प से सतत प्रतिष्ठान की छतरी में अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है।
दो नंबर की कमाई वाले सेठ और उद्योगपतियों के पुरस्कार एवं तथाकथित स्वयंसेवी संस्थाओं की शॉल-दुशालों की भरमार ने लेखक का गला घोंट रखा है। सरकारी योजना में निर्धारित मद (बजट प्रावधान) की तरफ एक को कुछ लिखना है तो दूसरे को कुछ देना है जैसी स्थिति बन गई है। सत्य के प्रति समर्पण, विचार के प्रति आस्था, मनुष्य के प्रति सरोकार और समय के प्रति सजगता, मनुष्य के प्रति सरोकार और समय के प्रति संवेदना की उसी परंपरा और प्रकृति अब हमामदस्ते में मूसली से कूटी जा रही है।

साहित्य का एक सर्वथा निजी चिंतन-मनन अब मांग और पूर्ति के अनुसार बाजार में परोसा जा रहा है। हालत इतनी नाजुक है कि आप साहित्यकार को अब भीड़ में दूर से अकेले ही पहचान लेंगे। शहर में साहित्य गोष्ठियां लगभग मृत प्रायः हैं। भाषा सम्मेलनों में मंत्रियों की सिंह गर्जनाएं हो रही हैं। सभा भवन खाली हैं लेकिन तालियों की गड़गड़ाहट जारी है। आज के नाम पर बीते कल का गौरव गान हो रहा है और वर्ष भर अच्छी रचना पर बहस और चर्चा होने के जगह अब केवल पुरस्कारों की घोषणा की खबर ही हमारे पास शेष बची है। साहित्य के क्षेत्र में यह बदलाव इतनी तेजी से जारी है कि घाटे के इस सौदे में और श्रेष्ठ मनुष्य और समाज को बनाने अथवा रचने की प्रक्रिया में कोई भी शामिल होना नहीं चाहता तथा कबीर और निराला, प्रेमचंद और सुब्रमण्यम भारतीय, रवींद्रनाथ टैगोर और कालिदास अब यहां ढूंढे नहीं मिल रहे हैं। शाश्वत की ‘भूमिका’ का स्थान तात्कालिकता के ‘दो शब्द’ ने ले लिया है तथा उदभावना से पहचान, पहचान से मान्यता, मान्यता से स्थापना और स्थापना से स्मृति बनने तक के सारे रास्तों पर प्रकाशक, विक्रेता, सरकारी खरीद के कमीशन, अखबारों के छुट भैय्या संपादक, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बदचलन प्रोड्यूसर और पुरस्कार लूटने वाली पुण्यात्माओं ने लॉटरी के टिकट की टेबल-कुर्सियां जमा ली हैं।
लेखक किधर से निकल कर पाठक तक जाए और रचना को कौनसे रास्ते से पढ़ने और सुनने वालों को शब्द की दास्तान बताए यह सब यहां एक भूल भुलैय्या बन गई है।

अनेक तरह के प्रमाद प्रचलित हैं जो कि कुर्ता पजामा पहने वहीं लेखक है। जो अभाव और आह का झोला लेकर घूमता रहे वही सच्चा सृजनकार है, जो देशभक्ति में मरे वही साहित्य सेनानी है। जो लक्ष्मी से परहेज करे वही सरस्वती पुत्र है। जो आदर्श और स्वाभिमान के लिए बलिदान हो जाए वही अजेय-अमिट रचनाकार है। जो कविता लिखे वही क्रिएटिव राइटर है। जो सत्य के लिए राजपाट को ठुकरा दे वही साहित्य वैरागी है। जो भावुक और विनयशील है वही असली साहित्य आता है। जो निरंतर-निरंतर विचारशील और संघर्षशील रहे वही साहित्य मनीषी है और जो सदैव अक्खड़ और फक्कड़ रहे वही दूसरा कबीर है। लेकिन अब ऐसा कोई संकट और अनिवार्यता साहित्य के क्षेत्र में मान्य नहीं है क्योंकि साहित्य सर्जन भी आज एक पहचान बनाने का सुविधाघर हो गया है तथा जो भी इस पंक्ति में लग जाएगा वह निश्चय ही किसी यश का भागी और किसी गुरुद्वारे का रागी तो बन ही जाएगा। साहित्य का यह संसार अब अनुभव और अहसास से नहीं निकलता अपितु महज एक आवश्यकता और प्रयोजन से प्रेरित करता है।

आज साहित्य किसी रचनाकार की प्राथमिकता और आजीविका भी नहीं है। साहित्य अब एक पार्ट टाइम जॉब (खाली समय का धंधा) है तथा बगुलों में अपने को हंस समझकर पेश करने का रौब है। हमारे 99 प्रतिशत से अधिक लेखक-साहित्यकार किसी सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थान में वेतनभोगी कर्मचारी हैं तथा रंगकर्मी मंगल सक्सेना और कथाकार यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ ( बावन घोड़ों का सवार) जैसा साहित्य जीवी तो यहां आसपास में है ही नहीं है। यानी कि कविता कहानी लिखकर अब यहां घर गृहस्थी चलाना और मकान-दुकान बनवाना नितांत असंभव है। इसी कारण साहित्य में सरोकारों की चारपाई बिना दावण के ढीली पड़ जाती है और साहित्य की मनुष्य चेतना और सामाजिक परिवर्तन पर पकड़ समाप्त प्राय हो जाती है। मेरा तो आज भी यही विश्वास है कि साहित्य और रचनाकार ही सभी समसामयिक बदलावों के बाद भी मनुष्य और प्रकृति के बीच समय के सूत्रधार की तरह प्रासंगिक रहेगा क्योंकि मंडी-व्यापार, सुख-दुःख, संसार और मनुष्य-माया का प्रसार- प्रसार क्षणिक है तथा मनुष्य की सामवेदी संस्कृति का हिस्सा नहीं है।
अब जब कविता की पुस्तकें बिकती नहीं है, कहानी और उपन्यास में जीवन की अन्तस सलिला दिखती नहीं है और शोध-अनुसंधान में अन्वेषण के स्थान पर मात्र संयोजन और पुर्नप्रेषण की भरमार है तब भला साहित्य में नवीन सत्य ढूंढने की ललक कैसे पूरी होगी। साहित्य के सबसे बड़े संकट के रूप में आज लेखक खुद उपस्थित है क्योंकि उसे खुद को अपने ‘शब्दब्रह्म’ पर भरोसा नहीं है। यह भी नितांत सत्य ही है कि बादल सूरज को ढक तो सकते हैं लेकिन आसमान नहीं बन सकते लेकिन प्रयास की धारा रचनात्मकता की तरह बहे इसका सचेष्ट अनुसरण भी बहुत आवश्यक है। साहित्य में तत्काल अमरतत्व प्राप्त करने की मनुष्य लालसा कभी पूरी नहीं हो सकती क्योंकि साहित्य एक अनवरत अन्तसंघर्ष है और मनुष्य के लोक मंगल की प्रतिबद्धता है। साहित्य में लक्ष्मी का प्रवेश इतना नुकसानदेह नहीं है जितना कि अपनी सुख-सुविधा के लिए मूल्यों को बदलते रहना हानिकारक है। नौकरी तो प्रेमचंद भी करते थे और दरबारी कवि भी लाख-पसाव और करोड़ पसाव पाते थे लेकिन इन सबके बाद भी वे कीचड़ में कमल की तरह रहकर, निज को गौण बनाकर, साहित्य को समय का प्रासंगिक शिलालेख बनाने की अपनी हठ भी नहीं छोड़ते थे और यही कारण था कि मैक्सिम गोर्की की पुस्तक ‘मां’ ने, ताल्सताय की पुस्तक ‘युद्ध और शांति’ ने, दस्तोवस्की की पुस्तक ‘अपराध और दण्ड’ ने, रवींद्र नाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ ने, बंकिम चंद्र चटर्जी के ‘आनंदमठ’ ने और ऐसी ही अनेकानेक कालजयी रचनाओं ने हमारे समय के सभी कालखंडों को उपलब्धि मूलक बनाया है। साहित्य को मनुष्य से अलग करना तो ठीक वैसा ही है जैसे कोई आंखों से उसकी रोशनी चुरा ले। साहित्य में ‘मंडी और मीडिया’ का प्रवेश भी एक समसामयिक घटनाक्रम है तथा व्यापारी और कमीशन भी एक आयाराम-गयाराम जैसी प्रवृत्ति है इसलिए सरस्वती पर लक्ष्मी का यह आक्रमण भी एक लेखक को मनुष्य के पराभव काल की तरह का नंगापन पहली बार अच्छा लगता है लेकिन चौबीसों घंटे का दिगंबर जगत किसी ‘तीर्थंकर’ को पैदा नहीं करता। अनेकानेक दूषण-प्रदूषण के बाद भी गंगा तो गंगा ही रहेगी और मुद्रा, मंडी और माध्यम (मीडिया) के हस्तक्षेप से भी साहित्य तो समय पर सत्य की विजय का मानव विज्ञान ही रहेगा। लेकिन बिना धार का जल और बिना विचार का शब्दबल साहित्य को प्रासंगिक नहीं बना सकता क्योंकि साहित्य में विचार और दर्शन का महत्व है, संवेदना और सरोकार की अनिवार्यता है लेकिन व्यापार और प्रचार की, आयोजन और प्रयोजन की, पर इनाम-इकरार की, छल-प्रपंच की और केवल आज के नायक की कोई जरूरत नहीं है। जब देश को निरक्षर जनता बिना पढ़े ही रामायण को अपना धर्म ग्रन्थ मान सकती और बिना बोले ही संस्कृत को सभी भाषाओं की जननी स्वीकार कर सकती है तो फिर वह अच्छे साहित्य को, अमर साहित्य को और प्रेरणास्पद साहित्य को भी हर अंधेरे में पहचान सकती है। इसलिए साहित्य में मनुष्य के द्वारा फैलाए जा रहे इस आतंक और अराजकता को एक रचनाकार ही रोकेगा और ललकारेगा ताकि सृजन में विचार और व्यवस्था का, लक्ष्मी और सरस्वती का, ‘एकला चलो रे’ और ‘भीड़ में मिलो रे’ का अंतर समाप्त किया जा सके। कबीर ने ऐसे ही नकली कलमचियों के लिए लिखा था कि-कबिरा बिगड्यो, राम दुहाई।

 (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)

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