भटनेर पोस्ट न्यूज सर्विस.
राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय पीरकामड़िया में हिंदी के व्याख्याता सोहनलाल भांभू कुशल शिक्षक की पहचान रखते हैं। पांच सितंबर को शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में भांभू को राज्य स्तरीय सम्मान हासिल हुआ है। इसके बाद ‘भांभू सर’ के नाम से लोकप्रिय सोहनलाल भांभू को विभिन्न संस्थाओं की ओर से अभिनंदन किया गया। सोहनलाल भांभू हिंदी को भारत की आत्मा बताते हैं। शिक्षकों की जिम्मेदारी, अभिभावकों के दायित्व और भाषा के महत्व को लेकर सोहनलाल भांभू ने ‘भटनेर पोस्ट डॉट कॉम’ से बातचीत की। प्रस्तुत है संपादित अंश ….
राज्य स्तरीय ‘शिक्षक सम्मान’ पाना बड़ी बात है। कैसा अनुभव करते हैं ?
-सच पूछिए तो बहुत अच्छा लगा। यूं लगा जैसे एक शिक्षक के तौर पर 21 साल की सेवा या तपस्या का प्रतिफल मिल रहा है। मैंने अपने सेवा काल में सदैव बच्चों के हितों को प्राथमिकता दी है। जिस विद्यालय में पदस्थापित रहा, हिंदी विषय में 100 प्रतिशत परिणाम रहा। यह मेरे लिए संतोष की बात है। हमेशा प्रयास रहा कि विद्यालय में 10 वीं और 12 वीं के बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार कर सकूं, इसमें भी सफल रहा। आपको बताते हुए खुशी हो रही है कि दो दशक के दौरान ऑफलाइन, ऑनलाइन क्लासेज के माध्यम से पढ़ाए बच्चों को शिक्षक, व्याख्याता बनते देखा। अब भी अगर कोई विधवा व परित्यक्ता बेटियां आती हैं तो उन्हें निःशुल्क पढ़ाता हूं, ऐसी बच्चियों को सरकारी सेवा में देखकर मन को संतोष मिलता है।
हनुमानगढ़-श्रीगंगानगर की हिंदी बाकी राजस्थान की तुलना कमजोर मानी जाती है। उच्चारण को लेकर भी दिक्कतें हैं। एक शिक्षक के सामने कितनी बड़ी चुनौती है ?
-आपने ठीक ही कहा। निःसंदेह यह चुनौती है। खासकर अंग्रेजी माध्यम स्कूल के बच्चों की हिंदी बेहद कमजोर है। हिंदी उनकी समझ में नहीं आती। उन्हें सरल तरीके से बताने का प्रयास करते हैं। उच्चारण की शुद्धता पर भी ज्यादा जोर देते हैं। इसके लिए अलग तरीके से व्याकरण तैयार किया है। हिंदी की शुद्धता और उच्चारण पर ज्यादा ध्यान देना बेहद जरूरी है क्योंकि अब बच्चों को रोजगार के लिए दूसरे शहरों और दूसरे राज्यों में जाना पड़ रहा है, ऐसे में शुद्ध हिंदी का ज्ञान बहुत जरूरी है।
शिक्षक ही क्यों बने ?
-आपको यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि मुझे तीन बार पुलिस की नौकरी मिली। हां, एक बार भी जॉइन नहीं किया। जब शिक्षक की नौकरी मिली, बिना देर किए पदभार ग्रहण कर लिया और इस तरह दो दशक बीत गए। पुलिस की नौकरी न करने का भी एकमात्र कारण यह था कि पुलिसकर्मी बनकर हम सिर्फ ‘बाहरी सुधार’ करने में सक्षम होते लेकिन शिक्षक बनकर हम बच्चों में ‘आंतरिक सुधार’ करने में सक्षम हैं। समाज के लिए सुयोग्य नागरिक तैयार करने में मददगार साबित हो रहे हैं। बच्चों का स्वर्णिम भविष्य तय करने में सफल हो रहे हैं। इससे बड़ा संतोष और कहां मिलता। इसलिए मैंने शिक्षक बनना स्वीकार किया।
शिक्षकों के सम्मान में गिरावट आ रही है। आप क्या कहते हैं ?
-मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। मैं भी एक शिक्षक ही हूं। 21 वर्षों के सेवा काल में मुझे रतनपुरा, दौलतपुरा, पीरकामडिया यानी अलग-अलग गांवों में पदस्थापित रहा हूं। ग्रामीणों ने बहुत सम्मान दिया। जिस कार्यालय में जाता हूं, वहां पर मेरे पढ़ाए बच्चे मिलते हैं, खूब मान देते हैं। घर में श्रीमतीजी उलाहना भी देती हैं कि अपने दोनों बच्चों को कम समय देते हैं। एक ही जवाब देता हूं कि यह जिम्मेदारी आपकी है। मेरे लिए विद्यालय के 400 बच्चे भी बेटे जैसे ही हैं। उनकी देखरेख में कमी नहीं आने दूंगा। जब इस भाव से हम काम करते हैं तो समाज सब कुछ देखता है। वह सब कुछ लौटाता भी है। आपको एक बात और बताता हूं। मैंने एक मूक बधिर बच्चे को पढ़ाने की चुनौती ली। आपको जानकर आश्चर्य होगा, बच्चा बोलने लगा। यह चमत्कार एक शिक्षक ही कर सकता है। हां, कुछ शिक्षकों के कारण पूरे शिक्षक वर्ग पर सवाल उठाना भी तो ठीक नहीं?
अभिभावकों से क्या अपेक्षा रखता है आज का शिक्षक ?
-अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों पर ध्यान नहीं देते। उन्हें समुचित समय नहीं देते। अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को परिवार व समाज से जोड़कर रखें। उन्हें माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ-फूफा, ताऊ-काका आदि के रिश्ते का अर्थ समझाएं ताकि वह इनका महत्व समझे। विद्यालय में अवकाश हो तो बच्चों को ननिहाल, बुआ के घर आदि जाने दें। अध्यात्म से जोड़ें। तभी बच्चा संस्कारित होगा।
हिंदी दिवस है। आप हिंदी के व्याख्याता। क्या कहना चाहेंगे ?
-देखिए, हिंदी भारत की आत्मा है, प्राण है। इसके बगैर हिंदुस्तान को आंकना ही गलत है। पूरे देश को हिंदी ही जोड़ने में सक्षम है। दुनिया में हमारी पहचान ही हिंदी से है। आजकल अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी भाषा में पारंगत करना चाहते हैं। सभी भाषाओं का ज्ञान हो तो बेहतर लेकिन हिंदी की कीमत पर नहीं। हिंदी हमारी अपनी भाषा है। इसमें भारत की गौरवशाली संस्कृति है, सभ्यता है। हम बच्चों को मम्मी, पापा, डैड, अंकल, आंटी कहना सिखाते हैं। ऐसे में उनमें भारतीय संस्कार तो आने से रहे। हम उन्हें मां, बाबूजी, ताऊ-ताई, काका-काकी आदि कहना सिखाएंगे तो निश्चित तौर पर उनमें संस्कार का विकास होगा। शब्दों में संस्कार निहित है, उन्हें जीवन में उतारने की आवश्यकता है।