ओम पुरोहित से ‘कागद’ बनने की कहानी

भटनेर पोस्ट साहित्य डेस्क.
राजस्थानी और हिंदी के सशक्त लोककवि, मायड़ भाषा के प्रबल समर्थक, चित्रकार, वेदों के मर्मज्ञ और सुंदर हस्तलिपि के धनी ओम पुरोहित ‘कागद’ उन रचनाकारों में हैं जिन्होंने राजस्थानी साहित्य को नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया और अदृश्य-अप्रकाशित रचनाकारों को मुख्यधारा में लाने का काम किया।
‘कागद’ का जन्म 5 जुलाई 1957 को श्रीगंगानगर जिले के केसरीसिंहपुर कस्बे में हुआ। उनके पिता रिदकरण पुरोहित स्वयं राजस्थानी लोक साहित्य के जानकार थे। बचपन में ही लोककथाएं सुनना और लोक कहावतें गुनगुनाना उनके जीवन का हिस्सा बन गया। बालपन में वे कागज़ के टुकड़ों को इकट्ठा कर जेब में रखा करते थे, इस कारण उनके नाना तेजमाल बोहरा उन्हें ‘कागदिया’ कहने लगे। आगे चलकर ‘कागद’ उनका स्थायी नाम बन गया।
ओम पुरोहित ‘कागद’ को जनकराज पारीक, मोहन आलोक और करणीदान बारहठ जैसे महान रचनाकारों का सान्निध्य मिला। उनका मायड़ भाषा से जुड़ाव और भाषा की मान्यता हेतु उनका सक्रिय आंदोलन इसी प्रेरणा का परिणाम था। इसी वजह से वर्ष 2005 में ‘कागद’ राजस्थानी भाषा मान्यता के लिए निकली विश्व की सबसे बड़ी ‘राजस्थानी भाषा सम्मान यात्रा’ के अगुआ बने। उनके द्वारा लिखा गया दस्तावेज ‘म्हारी जबान रै ताळों क्यूं?’ राजस्थानी भाषा मान्यता संबंधी अधिकृत दस्तावेज माना जाता है।
वर्ष 1975-76 में ‘कागद’ की हास्य-व्यंग्य कविताएं लोकप्रिय होने लगीं। 1986 में उनका पहला हिंदी कविता संग्रह ‘धूप क्यों छेड़ती है’ आया, जिसे पाठकों ने खूब सराहा। रोजी-रोटी के लिए उन्होंने राजस्थान पत्रिका में कार्य किया। बाद में 1985 से दार्शनिक और आत्मचिंतनात्मक रचनाओं की ओर उनका रुझान बढ़ा।
अब तक उनके आठ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। प्रमुख राजस्थानी काव्य-संग्रह हैं, ‘अंतस री बतळ’ (1988), ‘कुचरणी’ (1992), ‘सबद गळगळा’ (1994), ‘बात तो ही’ (2002), ‘कुचरण्यां’, ‘पंचलड़ी’, ‘आंख भर चितराम’ (2009) और ‘बहुत अंधारो है’ (2015)।
हिंदी में भी उनके सशक्त काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए हैं, ‘धूप क्यों छेड़ती है’ के बाद ‘आदमी नहीं है’, ‘मीठे बोलो की शब्दपरी’, ‘जंगल मत काटो’, ‘रंगों की दुनिया’, ‘सीता नहीं मानी’ और ‘थिरकती है तृष्णा’ जैसे संग्रह आए। उन्होंने ‘मरुधरा’ पत्रिका का संपादन भी किया और राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति अकादमी, बीकानेर की मासिक पत्रिका ‘जागती जोत’ का दो वर्षों तक संपादन किया।
उनकी पुस्तक ‘थिरकती है तृष्णा’ में रामकिशन अडिग द्वारा चित्रित शब्द-चित्रों के साथ उनकी कविताएं पाठकों के सामने नए रंग में आईं। उनकी ‘कालीबंगा’ शृंखला की कविताएं पुरातत्व, इतिहास और लोक संस्कृति की गहरी समझ को उद्घाटित करती हैं।
राजस्थान प्रदेश की उत्तरी सीमा पर स्थित क्षेत्र में पंजाबी भाषा के प्रभाव के बावजूद ओम पुरोहित ‘कागद’ ने 1980 के दशक में राजस्थानी भाषा मान्यता आंदोलन को सशक्त रूप से खड़ा किया। वे क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी और गहरे जानकार भी हैं। वे राजस्थान क्रिकेट संघ की समिति के सदस्य भी रह चुके हैं।
उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर का सुधीन्द्र पुरस्कार तथा राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति अकादमी, बीकानेर का गणेशीलाल व्यास पुरस्कार प्राप्त हुआ।
राजस्थानी के नवोदित और अप्रकाशित रचनाकारों को मंच देने के लिए उन्होंने अज्ञेय की ‘तार सप्तक’ की तर्ज पर एक श्रृंखला आरंभ की, जिसे उनकी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जाता है। हिंदी और राजस्थानी कविता में उनकी गहरी समझ और निरीक्षण की तीक्ष्ण दृष्टि इस कविता में देखी जा सकती है…
‘उनकी रसोई में
पकते रहे वे कबूतर
जो हमने कभी
शांति और मित्रता की
तलाश में
उड़ाए थे।
हम आज भी
शांति और मित्रता की तलाश में हैं
वे फ़क़त कबूतरों की फिराक में हैं।’

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