चुप हो गए…‘भारत की बात’ कहते-कहते!

गोपाल झा.
यह सुनकर मन दुखी हो गया कि मनोज कुमार अब हमारे बीच नहीं रहे। वे सिर्फ एक अभिनेता नहीं थे, वो एक युग थे। एक सोच, एक भावना, एक विचारधारा। मेरे पसंदीदा अभिनेताओं में से एक, मनोज कुमार ने भारतीय सिनेमा को वो आत्मा दी, जो राष्ट्रप्रेम, त्याग और सामाजिक चेतना से ओतप्रोत थी। उनकी अदायगी में वो गहराई थी जो दिल को छूती थी, और उनकी आंखों में एक बेचैन देशभक्त की चमक झलकती थी।
आपको पता होगा, मनोज कुमार का असली नाम हरिकृष्ण गिरि गोस्वामी था। उनका जन्म 24 जुलाई 1937 को अविभाजित भारत के अब्बोटाबाद (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ। विभाजन के दौरान उनका परिवार दिल्ली आ गया। बचपन की यही त्रासदी आगे चलकर उनके सिनेमा की मूल चेतना बनी, बंटवारे का दर्द, देश का प्रेम, और एकता का सपना। उन्होंने अपना नाम ‘मनोज कुमार’ अपने पसंदीदा अभिनेता दिलीप कुमार की फिल्म शबनम के किरदार से प्रेरित होकर रखा। फिल्मों में उनका शुरुआती सफर सामान्य था, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपनी अलग पहचान बनानी शुरू कर दी।
‘पूरब और पश्चिम’, ‘उपकार’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘क्रांति’ इन फिल्मों में उन्होंने सिर्फ अभिनय नहीं किया, बल्कि समाज को एक दिशा देने का कार्य भी किया। फिल्म ‘उपकार’ में “जय जवान, जय किसान” को उन्होंने परदे पर जीवंत कर दिया। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की इस भावना को उन्होंने दिल से अपनाया और करोड़ों भारतीयों के दिलों तक पहुंचाया।
‘रोटी कपड़ा और मकान’ एक आम आदमी की कहानी थी, जो अपनी बेसिक जरूरतों के लिए जूझता है। यह फिल्म आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है जितनी तब थी।
मनोज कुमार की सबसे बड़ी ताक़त थी, अभिव्यक्ति की गहराई। उनके चेहरे की हर झलक में एक कहानी होती थी। उनकी आंखें संवाद बोलने से पहले ही सब कुछ कह जाती थीं। उनकी संवाद अदायगी में एक गूंज होती थी, एक ठहराव, एक प्रतिबद्धता। ‘मैं भारत हूं’, उनकी फिल्मों में जब वो ये कहते थे, तो लगता था जैसे भारत माता खुद बोल रही हो।
मनोज कुमार को 1992 में पद्मश्री से नवाज़ा गया। 2016 में उन्हें दादासाहेब फाल्के पुरस्कार मिला, जो भारतीय सिनेमा का सर्वाेच्च सम्मान है। ये सम्मान सिर्फ उनके अभिनय के लिए नहीं, बल्कि उनके राष्ट्रीय और सामाजिक सरोकारों वाले सिनेमा के लिए था।
मनोज कुमार अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका सिनेमा, उनके विचार, और उनकी देशभक्ति की भावना अमर है। उन्होंने एक अभिनेता से कहीं अधिक बनकर दिखायाकृवो एक संवेदनशील रचनाकार थे, जो परदे के ज़रिए समाज की आत्मा को छूते थे। जब भी भारत माता के किसी बेटे का दिल देश के लिए धड़कता है, जब भी कोई युवा ‘भारत’ को जानने और समझने की कोशिश करता है, वह मनोज कुमार के सिनेमा में खुद को पाएगा।
‘भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं’ गीत नहीं, हमारे देश का स्तुतिगान है। सोचता हूं, अब इतनी गहराई से भारत की बात कौन सुनाएगा ? किसी शायर ने कहा है,
बड़े गौर से सुन रहा था जमाना
तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते।

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