शब्दों में क्रांति और भावों में करुणा हैं कबीर !

डॉ. एमपी शर्मा.
जब धर्म और जाति के नाम पर दीवारें खड़ी हो रही हों, जब सत्य को मुखौटों से ढंका जा रहा हो, और जब आस्था दिखावे में उलझी हो, तब एक निर्भीक स्वर हमें झकझोरता है, सदियों पार से, समय की सीमाओं को लांघता हुआ। यह स्वर है कबीर का। 15वीं शताब्दी में जन्मा यह क्रांतिकारी संत, न किसी मज़हब में सिमटा, न किसी पंथ का प्रवक्ता बना। उसने जीवन को देखा, जिया और फिर उसे अपने दोहों में ऐसा ढाला कि हर युग को आईना दिखा सके। कबीर ने कहा नहीं, जिया, सत्य को, प्रेम को, आत्मा की गहराई को। आज, जब समाज एक बार फिर अपने खोल में सिमट रहा है, कबीर का यह निर्भीक और प्रेमभरा संदेश पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो उठा है। उनके शब्द धर्म नहीं बाँटते, दिल जोड़ते हैं। आइए, इस युग की धूल में उनके दोहों की रोशनी फिर से तलाशें।
कबीर 15वीं शताब्दी के महान संत, कवि और समाज-सुधारक थे। उनका जन्म एक मुसलमान जुलाहा परिवार में हुआ, पर जीवन भर उन्होंने धर्म, जाति, पंथ से ऊपर उठकर केवल सत्य, प्रेम और मानवता की बात की। उन्होंने ना किसी मंदिर को पूर्णतः स्वीकारा, ना मस्जिद को अंतिम ठिकाना माना। उनकी एक मशहूर पंक्ति है
‘मस्जिद ढाए मूरखवा, जो घर खोजे राम।
घर भीतर ही राम है, बाहर ढूंढे नाम।’
कबीर का जीवन सादगी, करुणा और सत्य के लिए लड़ाई का प्रतीक है। कबीर का संदेश है निर्भय सत्यवाणी। कबीर का सबसे बड़ा हथियार था, उनका निर्भीक और सीधा शब्द। वो पाखंड, आडंबर, झूठी रीति-रिवाजों के कट्टर विरोधी थे। वे धर्मगुरुओं, मुल्लाओं और पंडितों से सीधे सवाल करते थे
‘पढ़ि पढ़ि पंडित जरा मुआ, पूछि न काहू बात।
धाइ कबहुँ ना धरिया, जो यह पढ़न की जात।’
कबीर का मानना था कि सच्चा धर्म वह है जो भीतर से पैदा हो, न कि किताबों, कपड़ों या जातियों से। उन्हांेंने धर्म के नाम पर बँटी दुनिया को आइना दिखाने में कभी संकोच नहीं किया।
कबीर ने कहा-
हिंदू कहे मोहि राम पियारा, तुरक कहे रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न काहू जाना।

इस दोहे में उन्होंने धर्म के नाम पर होने वाली लड़ाइयों की निंदा की। वे मानते थे कि ईश्वर एक है, चाहे उसे राम कहो या रहीम, वह प्रेम में ही मिल सकता है। कबीर ने प्रेम को सबसे ऊँचा स्थान दिया। उनका अमर दोहा है
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

उनका विश्वास था कि जो प्रेम करता है, वही सच्चा ज्ञानी है, बाकी सब ज्ञान अधूरा है। कबीर ने संस्कृत या फारसी नहीं, बल्कि साधारण बोलचाल की भाषा में लिखा। सधुक्कड़ी, अवधी और ब्रज मिश्रित हिंदी। उनकी वाणी आज भी सीधे दिल को छूती है
साईं इतना दीजिए, जा में कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूं, साधु ना भूखा जाए।’

यह आत्मनिर्भरता, संतुलन और सेवा का सर्वाेत्तम आदर्श है। आज जब समाज फिर से जाति, धर्म, भाषा, और वादों के नाम पर बँट रहा है, जब दिखावे और बाहरी आडंबर ने सच्ची भावना को ढँक लिया है। तब कबीर का संदेश और भी जरूरी हो गया है।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।’

कबीर हमें आत्मनिरीक्षण, सच्चे प्रेम और निर्भीक सच्चाई की राह पर चलना सिखाते हैं। कबीर केवल कवि नहीं थे, वे एक क्रांति थे। ना किसी मंदिर में बंद हुए, ना किसी मस्जिद में सिमटे। वे दिलों में बसते हैं, जहाँ प्रेम है, करुणा है, और सत्य है।
-लेखक सीनियर सर्जन और आइएमए राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं

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