डॉ. केंद्र प्रताप.
आजकल देखने में आया है कि हर एक को मोबाइल की लत लगी हुई है। बच्चे, जवान, बूढ़े सबको मोबाइल की लत लग चुकी है। अब तो मानो कि संसार भगवान नहीं, इंसान नहीं, मोबाइल चला रहा हो। हम उसे दौर की बात करें जहां परिवार संयुक्त हुआ करते थे, आज भी है परंतु किसी के पास समय नहीं है, क्योंकि यह एक वैचारिक मतभेद है। ऐसा नहीं है कि समय नहीं है, सब कुछ है लेकिन विचार समय नहीं है। कोई एक दूसरे के पास बैठकर अपने विचार साझा नहीं करता है। कोई एक दूसरे के साथ बैठकर अपने मतभेद दूर नहीं करना चाहता है क्योंकि किसी को किसी की जरूरत नहीं है। जरूरत है तो, मोबाइल फोन की इसलिए कि हमें लत लग गई है। परिवार की जिम्मेदार लोग भी अपनी जिम्मेदारी का बोझ मोबाइल फोन पर ही ढो रहे है। क्योंकि मोबाइल फोन हमारी कमियों को नहीं हमारे शौक को पूरा करने लगा है। अब तो मानो हर किसी को खुश होने के लिए भी मोबाइल का होना अति आवश्यक हो गया है। आज के बढ़ते तकनीकी युग में इंसान अपना कर्तव्य भूलकर मशीनीकरण पर हो गया है। ऐसा मानो जैसे इंसान इंसान नहीं, एक मशीन हो गया है।
परिवार के बड़े लोग भी छोटे बच्चों को फोन देखकर रोते हुए चुप करवा देते हैं। जब बच्चे स्कूल जाने लायक हो जाते हैं तो स्कूल की पढ़ाई भी मोबाइल के माध्यम से करवाने की कोशिश करते हैं। मानो जैसे मोबाइल ही सब कुछ है और जो कंपटीशन की तैयारी में लगे हैं उनको भी अब कंपटीशन देने की तैयारी मोबाइल से मिलने लगी है। भला कौन समझाइए उनको कि किसी समय में स्कूल शिक्षा के अंदर भी श्रुति लेख दिए जाकर आपकी लेखन शैली को बेहतर बनाने का कार्य किया जाता था। इसलिए बुरा नहीं कहता परंतु लत बहुत बुरी है उसके बाद जो लोग कामकाज से व्यस्त हैं मानो पूरा व्यापार आज मोबाइल से जुड़ा हुआ इसलिए अगर मोबाइल की बैटरी खत्म हो जाए तो ऐसा लगता है जैसे शॉप को ताला लगा दिया। और यदि कहीं मोबाइल खो जाए तो ऐसा लगता है जैसे भूकंप आ गया हो। सब कुछ नष्ट हो गया। उसके बाद बुढ़ापे ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है क्योंकि जब बच्चे और जवान भी इस लत में पड़ गए और उन्हें समय नहीं मिलता तो उन्होंने अपने समय निकालने के लिए बुढ़ापे में लाठी के साथ-साथ मोबाइल फोन थमा दिए अब वह भी नई तकनीकी युग में मोबाइल की लत में डूब चुके हैं क्योंकि उनका भी अच्छा बहाना है।
कभी पुराने गाने तो कभी समाचार जो सुनने हैं। परंतु एक बात जरूर करूंगा, मोबाइल सहायक हो सकता है लेकिन इंसानों जैसा सहायता नहीं कर सकता। आप उनसे जुड़े रहे लेकिन परिवार में भी ऐसे ही जुड़े रहे जैसे मोबाइल में अगर नेटवर्क नहीं आता तो वह काम नहीं करता। मैंने देखा है आजकल इस मोबाइल के कारण लोगों में सहनशक्ति खत्म होती जा रही है। जरा सी बात पर निकाल कर फोन अपने मन की भड़ास निकालने को तैयार रहते हैं, ना कहीं बड़े का लिहाज बस एक ही मन में आता है, लगाओ … फोन निकालो। बाद परिणाम किसने सोचा है। इसलिए अभी भी समय है हमें बड़ा चिंतन करने की आवश्यकता है कि हम नई पीढ़ी को क्या दे रहे हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं टीवी चौनलों के माध्यम से आए दिन लोगों को संदेश दी जाते हैं कि मोबाइल फोन बच्चों की पहुंच से दूर रखें आपका स्वास्थ्य भी नुकसान हो सकता है। लेकिन इन जरूरत की चीजों को लत में नहीं डालें समय निकले, मिलने का किसी से बात करने का, किसी का साथ दो कदम चलने का समय निकले अपने लिए अपने परिवार के लिए तकनीकी आपके सहयोग के लिए है। आप उसे लक्ष्य आप उसे लत में नहीं लगे। मैं इसका विरोध नहीं करता हूं परंतु इतना जरूर कहूंगा। एक समय ऐसा आएगा अगर यूं ही चला रहा तो इंसान कम होंगे और मोबाइल मशीन ज्यादा। मैं देखता हूं, जब एक दौर था जब घर में एक टेलीफोन तार से जुड़ा होता था जब भी उसकी घंटी बजती थी सब लोग आकर उठाते थे और बैठ के बताते थे लेकिन आज एक व्यक्ति के पास एक नहीं दो-दो मोबाइल फोन होते हैं। लेकिन उसे किसी को बताने का समय नहीं होता, तब तो मानो ऐसे लगने लगा है जैसे मोबाइल फोन ही सब कुछ है यहां तो भगवान के पास जाने का समय भी नहीं रहा। किसी मंदिर में जाएं और अपने मन की बात उन्हें कह सके क्योंकि ऑनलाइन ही दर्शन ऑनलाइन ही प्रसाद और ऑनलाइन ही मनोकामना मांगी जा सकती है। भगवान भी सोचता होगा कि इंसान इतना व्यस्त हो चुका है, उसे उसके लिए भी सुख में जीवन जीने की कामना नहीं कर सकता। मैं इतना ही कहना चाहूंगा हमें चिंतन करने की आवश्यकता है कहीं ना कहीं अगर मैं यह बात आप तक कर रहा हूं इसका मतलब शुरुआत हो चुकी है। अब आप इसमें क्या सहयोग करते हैं मुझे आशा रहेगी कि जब भी आप अपने घर जाएं फोन को एक टेबल पर सजा दें और सब के बीच बैठकर अपने भागीदारी सुनिश्चित करें। परिवार को समय दें। अपने आप को समय दें और सही समय में मोबाइल का उपयोग करें।
-लेखक साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ व अभय कमांड सेंटर हनुमानगढ़ के प्रभारी हैं