गोपाल झा.
इसी साल सितंबर माह की 25 तारीख। जयपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा थी। मोदी ने महिला आरक्षण बिल पारित करवाने पर अपनी पीठ थपथपाई। बकौल मोदी, ‘आज जो कांग्रेसी महिला आरक्षण की बात कर रहे हैं, वे 30 साल पहले भी कर सकते थे। कांग्रेस को कई बार मौका मिला। लेकिन कांग्रेसी कभी चाहते ही नहीं थे कि महिलाओं को आरक्षण मिले, महिलाएं राजनीति में आगे आएं, सफलता के शीर्ष तक पहुंचे। जब हमने यह कर दिखाया तो अब ये ऐसी बातें कर रहे हैं। महिलाओं का आशीर्वाद पाने की उम्मीद कर रहा हूं क्योंकि मेरी ही सरकार ने नारी शक्ति वंदन अधिनियम यानी महिला आरक्षण लागू किया है। अब 33 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं का अधिकार होगा।’
मोदी के इस भाषण के डेढ़ महीने बाद भाजपा ने विधानसभा चुनाव में सभी 200 सीटों के लिए उम्मीदवारों का एलान कर दिया। आरक्षण बिल पारित होने का जश्न मनाने वाली महिला नेत्रियों को उम्मीद थी कि इस बार पार्टी 33 नहीं तो कम से कम 20 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं को मौका जरूर देगी। बिल पारित कर इसे भुनाने का यही तरीका था। इसलिए महिला नेत्रियां अपने-अपने क्षेत्र में चुनाव की तैयारी करने लगी थीं। उन्हें झटका तब लगा कि भाजपा ने 200 में से महज 16 सीटों पर महिलाओं को मैदान में उतारा। कुल सीटों के हिसाब से यह सहभागिता महज 8 प्रतिशत है। वहीं, कांग्रेस ने 25 महिलाओं को टिकट थमाया है जो 12.5 प्रतिशत है। देखा जाए तो 33 फीसद के हिसाब से यह आंकड़ा 66-66 होना चाहिए था। यह ठीक है कि अभी आरक्षण लागू नहीं हुआ है। जनगणना और परिसीमन के बाद इसे साल 2029 तक लागू किया जाएगा। सवाल यह है कि फिर पांच दिन के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाकर इस विधेयक को पारित करने का क्या औचित्य है ? क्या, महिला आरक्षण बिल पारित करना बीजेपी का सिर्फ राजनीतिक और चुनावी एजेंडा था ?
राजस्थान विधानसभा में महिला जनप्रतिनिधियों की सभागिता को देखें तो साल 2018 में भाजपा ने 17 महिलाओं को टिकट दिया जिनमें से 8 को विजयश्री मिलीं। वहीं कांग्रेस ने 26 महिलाओं को मैदान में उतारा जिनमें से 12 को विधानसभा पहुंचने का मौका मिला। अगर साल 2013 के चुनाव को देखें तो कांग्रेस ने 22 महिलाओं को टिकट दिया लेकिन जीतीं तो महज एक सीट पर। वहीं भाजपा ने 19 महिलाओं को टिकट दिया और इनमें से 16 महिलाएं विधानसभा पहुंची थीं। आंकड़ों से स्पष्ट है कि महिलाओं को टिकट देने में भाजपा हमेशा कांग्रेस से पीछे रही है।
टिकट कटने के बाद फूट-फूटकर रोने वालीं बीजेपी की पूर्व विधायक द्रोपदी मेघवाल ने कहा, ‘भाजपा की कथनी और करनी में अंतर है। यह महिला विरोधी है।’ बीजेपी महिला मोर्चा की मुखर नेत्री गुलाब सींवर भी इसी तरह का आरोप लगाती हैं। बीजेपी की बात इसलिए कि इसके नेता गाहे-बगाहे महिला हितों पर शब्दों को चबा चबाकर भाषण करते हैं।
कांग्रेस की बात करें तो यह सच है कि पार्टी महिलाओं को टिकट देने में बीजेपी के मुकाबले ज्यादा दरियादिली दिखाती रही है लेकिन टिकट देने का यह आंकड़ा बढ़ सकता था क्योंकि पार्टी के पास सक्षम महिला नेत्रियों की बड़ी तादाद है। राजस्थान महिला कांग्रेस कमेटी की उपाध्यक्ष रहीं शबनम गोदारा हों या फिर प्रदेश कांग्रेस कमेटी की पूर्व प्रवक्ता डॉ. परम नवदीप। सबने पार्टी नेतृत्व पर महिलाओं की उपेक्षा का आरोप लगाया है।
राजस्थान में कुल मतदाताओं की संख्या करीब 5.26 करोड़ है। इनमें महिला मतदाताओं की संख्या है करीब 2.15 करोड़। मतदान की बात करें तो इसमें भी महिलाओं की हिस्सेदारी कहीं पुरुषों से ज्यादा तो औसतन बराबर रहती है। बावजूद इसके राजनीतिक दल महिलाओं की उपेक्षा क्यों करते हैं? इसका सीधा सा जवाब है। महिलाएं अपनी शक्ति को पहचानें। उसे बिखरने से रोके। एकजुटता लाएं। जिस दिन नारी अपनी ‘शक्ति’ का अहसास करवाना शुरू कर देंगी, राजनीतिक दलों के आलाकमान खुद उनका ‘वंदन’ करना शुरू कर देंगे। बशर्ते, नारी अपनी शक्ति को तो पहचाने!