गोपाल झा.
कहानी एक अभागे बाप की जिसने परिवार पालने के लिए खेतों में कोयला बनाने की अवैध भट्ठियां बनाईं। फिर उसे ठेके पर दे दिया। लेकिन भट्ठियां बनाते और ठेके पर देने के वक्त उसके मन में इस बात की कोई आशंका नहीं थी कि इसी भट्ठे में उसकी लाडली और मासूम बेटी को जिंदा जलाया जाएगा। भला खुली आंखों से कोई ऐसा डरावना सपना देख भी कैसे सकता है ?
उस अभागे बाप को भी बेटी की सुरक्षा की फिक्र रहतीं। इसलिए वह उसे अकेले न खेत भेजता और न ही मवेशी चराने के लिए। उसकी मां हर वक्त साथ होती। लेकिन बुधवार यानी 2 अगस्त को 14 साल की मासूम अपने मवेशियों को लेकर अकेले खेतों की तरफ निकल पड़ी। उसे क्या पता था कि जिन लोगों को उसके पिता ने भट्ठियां ठेके पर दिए हैं, वही उसके साथ दरिंदगी से पेश आएंगे और उसे उसी भट्ठी में जिंदा झोंक देंगे।
उफ! सोचकर दिल दहल जाता है। यह तो हैवानियत की हद है। एक मासूम और पांच दरिंदे। कोई तरस नहीं। भट्टी से बरामद मासूम के अधजले अंग, हाथ में पहना चांदी का कड़ा और कुछ ही दूरी पर बिखड़े उसके जूते वारदात के सबूत हैं। पांच में तीन आरोपितों की गिरफ्तारी और कबूलनामे के बाद सब कुछ साफ है।
सत्तापक्ष शोक जताएगा और विपक्ष आक्रोश। सियासतदानों के लिए इस तरह की घटनाएं आग में घी का काम करती हैं। मगरमच्छ के आंसुओं से अखबारों के पन्ने भरे मिल जाएगे। लेकिन इससे क्या होगा ?
सवालों की लंबी फेहरिस्त यहीं से शुरू होती हैं। सबसे बड़ा सवाल कि चारित्रिक पतन का यह कौन सा दौर है ? इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? अगर यह बड़ी समस्या है तो फिर इसका क्या समाधान है ? हर बात की गारंटी देने वाली सरकार बेटियों को सुरक्षा की गारंटी देने में पीछे क्यों है ? आखिर, हम अपनी बेटियों को दरिंदों की भूखी नजर से कब तक बचाते रहेंगे ? कोई भी दरिंदा कुकृत्य से पहले उस मासूम में अपनी बेटी, बहन या मां का चेहरा क्यों नहीं देखता ? परिवार, समाज और कानून ऐसे मामलों में सुस्त और कमजोर क्यों नजर आता है ? शासन में बैठे जिम्मेदार लोगों तक उस मासूस की चीख क्यों न पहुंच पाई ? सिस्टम इतना सुनसान क्यों है ?
कुछ भी कहिए। हम शर्मिंदा हैं। आहत हैं। इस वैचारिक लकवाग्रस्त समाज का हिस्सा हैं। बेशक, यह सरकार की नाकामी है। समाज के लिए कलंक है। परिवारों के लिए सबक है। लेकिन क्या सरकार, समाज और परिवार इन वारदातों से सबक लेने के लिए तैयार है ? अगर हां, तो फिर सरकार बेटियों को सुरक्षा की गारंटी दे। समाज अपनी भूमिका सुनिश्चित करे। परिवार अपने बच्चों को संस्कारित करे। तभी इस तरह की वीभत्स घटनाएं थम सकेंगी। वरना, हम हर बार सिर्फ और सिर्फ यह कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करते रहेंगे, लानत है सरकार! एक मासूम बेटी की चीख न सुन पाए! लानत है ! लानत है! लानत है!
–लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के एडिटर इन चीफ हैं