गोपाल झा.
राजस्थान विधानसभा चुनाव 2023 कई अर्थों में खास है। अगर तीन दशक की राजनीति के हिसाब से देखें तो यह चुनाव बिल्कुल अलग है। पहली दफा राजस्थान के शीर्ष नेता ‘साइडलाइन’ में नजर आ रहे। ‘फ्रंटलाइन’ में ‘दिल्ली’ ही शक्तिशाली नजर आ रही। भले वह कांग्रेस और बीजेपी ही क्यों न हो, राजस्थान के शीर्ष नेतृत्व अभी निर्णायक स्थिति में नहीं दिख रहे। भाजपा ने उम्मीदवारों की पहली सूची घोषित कर यह संदेश दे भी दिया कि चुनाव की कमान आलाकमान के पास है। सात सांसदों और दो पूर्व सांसदों को चुनाव मैदान में उतारना भाजपा केंद्रीय नेतृत्व की रणनीति है। रणनीतिक तौर पर ही वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी करने का जोखिम उठाया गया है। पार्टी ने टिकट वितरण के लिए भले प्रक्रियाएं अपनाई हों लेकिन वे सब ‘हाथी के दूसरे दांत’ के बराबर है जो सिर्फ दिखते हैं, काम के नहीं होते।
सांसदों को चुनाव मैदान में उतारने पर बीजेपी में ही ‘अंडर करंट’ है। कार्यकर्ता पूछने लगे हैं कि अगर ये सांसद चुनाव जीत गए तो क्या छह महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में पार्टी उन्हें फिर मैदान में नहीं उतारेगी ? अगर हां तो फिर इन सीटों को उप चुनाव में झोंका जाएगा ? और वे हार गए तो ? ऐसे नेताओं का पॉलिटिकल कॅरिअर चौपट कर दिया जाएगा ? क्या यह भी पार्टी की रणनीति है ?
दरअसल, जिन सांसदों को टिकट मिले हैं, उनमें से अधिकांश के मन में ‘उत्साह’ की जगह ‘आशंका’ ही है। बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने स्वीकार किया कि किसी भी सांसद को विधानसभा चुनाव लड़ने में दिलचस्पी नहीं। आलाकमान के आदेश को न मानने का साहस कौन जुटाए ?
वहीं, मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और कैलाश विजयवर्गीय जैसे दिग्गज नेताओं ने दबे स्वर में अहसहमति जताने का प्रयास किया लेकिन पार्टी ने उनकी भी एक न सुनी। ऐसे में राजस्थान का कोई सांसद इतना साहस जुटा पाएगा ? जाहिर है, वे भारी मन से ही चुनाव मैदान में उतर रहे हैं।
जयपुर के झोटवाड़ा सीट पर टिकट लेकर जब सांसद राजयवर्द्धन सिंह राठौड़ कार्यकर्ताओं से मुखातिब हुए तो ‘राज्यवर्द्धन गो बैक’ के गगनभेदी नारे लगे। भगवा रंग के वस्त्र में खुद को लपेटे राठौड़ के हाथ में मिठाई के डिब्बे थे, वे कार्यकर्ताओं को जबरन मिठाई खिलाना चाहते थे और कार्यकर्ता उनसे दूर छिटक कर काले झंडे दिखाते हुए ‘गो बैक’ के नारे लगा रहे थे। भला सोचिए, इस तरह की स्थिति में कोई सांसद अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर आशंकित कैसे नहीं रहेगा।
जाहिर है, पहली सूची पर आई विस्फोटक प्रतिक्रिया से बीजेपी आलाकमान रणनीति बदलने के लिए मजबूर हो सकता है।
पूर्व सीएम वसुंधराराजे की अनदेखी पार्टी को भारी पड़ेगी, इसमें कोई शक नहीं। भले पार्टी नेता इस आशंका को नजरअंदाज करें लेकिन सच्चाई से विमुख होने का मतलब है आप गर्त में जाने के लिए तैयार हैं। ऐसे में, दूसरी सूची ‘सुधार’ की संभावनाओं को बल देगी, ऐसा माना जा रहा है। यह स्पष्ट है कि पार्टी के राज्य स्तरीय अधिकांश नेता पहली सूची से संतुष्ट नहीं हैं। नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ ने तो यहां तक कह दिया कि अगर मुझे टिकट नहीं मिला तो विद्रोह नहीं करूंगा। देखा जाए तो राठौड़ के बयान के भी सियासी मायने हैं।
बात सिर्फ बीजेपी तक सीमित नहीं है। कांग्रेस की भी कमोबेश यही स्थिति है। गहलोत बनाम पायलट प्रकरण के बाद अब गहलोत बनाम आलाकमान की नई कहानी सामने आ रही है। पुख्ता खबर है कि स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक में आलाकमान के स्वर ही गूंजते रहे। गहलोत पायलट और डोटासरा चुप्पी साधे बैठे रहे। कुछ अन्य ने भले सर्वे और फीडबैक का हवाला दिया लेकिन राज्य के प्रमुख तीनों नेताओं ने ज्यादा कुछ नहीं कहा। पायलट को भले चुप रहने को कह दिया गया हो लेकिन गहलोत की चुप्पी के मायने हैं।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत न सिर्फ कांग्रेस बल्कि उन निर्दलीय और बसपा सांसदों को भी टिकट देने के समर्थक हैं जिन्होंने पायलट के विद्रोह के वक्त कांग्रेस की सरकार बचाई थी। देखना दिलचस्प होगा, गहलोत इन विधायकों के साथ किए कमिटमेंट पर कितना खरा उतरते हैं। उधर, पायलट अपने अधिकाधिक समर्थकों को टिकट दिलाने की जुगत में हैं। आलाकमान चुनाव की कमान अपने हाथों में रखने को आतुर है। लेकिन सवाल यह है कि गहलोत को नजरअंदाज कर आलाकमान क्या हासिल कर पाएगा ?
कुल मिलाकर, राजस्थान में चुनाव भले विधानसभा के हो रहे हों लेकिन राज्य स्तर के नेताओं की लगातार अनदेखी साफ दिखाई दे रही है। बीजेपी और कांग्रेस की कमान ‘दिल्ली’ के हाथों में है, ऐसे में संभावनाओं के द्वार खुले हुए दिख रहे। यानी चुनाव टिकट वितरण में कौन बाजी मारेगा, कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।
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