





गोपाल झा.
हमारा शहर अजीब है। शांत है, संयत है, लेकिन संजीदा नहीं। यह वह शहर है, जो बाहर से मुस्कराता है और भीतर से आहें भरता है। जो विकास के श्रृंगार में सजा हुआ लगता है, लेकिन पहली ही बारिश में उसकी ‘लाज’ पानी में बह जाती है। बीती रात की 98 एमएम बारिश ने जैसे पूरे शहर के चेहरे से नकाब उतार दिया, और जो सामने आया, वह भयावह था, नंगे सच जैसा।
सैकड़ों घरों में पानी भर गया। गलियाँ नदी बन गईं, सड़कें तालाब में तब्दील हो गईं और लोग, जो सुबह अपने जीवन की आपाधापी में निकलने को तैयार हो रहे थे, अब बाल्टी और मग्गा लेकर पानी उलीचने की विवशता में डूबे थे। यह कोई कल्पनालोक की कथा नहीं, हनुमानगढ़ की वह कड़वी हकीकत है, जो हर साल मानसून की पहली या दूसरी बारिश में हमारे सिरहाने आ खड़ी होती है।
और तब याद आता है ‘मिनी चंडीगढ़’ का वह सपना, जो नेताओं की जुबान पर नाचता रहा है। लेकिन अब वही सपना सवाल बनकर आंखों के सामने ठहर गया है, क्या यही है वह चंडीगढ़, जो हर बरसात में घुटनों तक भीग जाता है?
शहर सुंदर है, पर भीतर से खोखला। यह खोखलापन सिर्फ नालियों के जाम होने में नहीं, यह उस व्यवस्था के सड़ जाने में है, जो केवल बजट खर्च करना जानती है, परिणाम देना नहीं। नगरपरिषद ने 50 करोड़ रुपए नालों के निर्माण पर खर्च कर दिए, कहते हैं। पर किसने देखा वह निर्माण? किसने जांचा उसकी गुणवत्ता? और आज जब पूरा शहर पानी में डूबा पड़ा है, तब कोई बताने वाला भी नहीं है कि पैसा गया कहां?
बात केवल पानी घुसने की नहीं है, बात उस ‘बेबसी’ की है जो नागरिक के चेहरे पर इस आपदा के समय साफ नजर आती है। वह चुप है, लेकिन भीतर से उबल रहा है। उसे समझ आ चुका है कि विकास की बातें सिर्फ भाषणों में होती हैं, धरातल पर नहीं। यही कारण है कि आज उसके मन में गुबार है, उसकी आंखों में अविश्वास है और उसके सवाल अब कागज़ों में दर्ज नहीं, सड़कों पर तैर रहे हैं।
जब शासन का तंत्र संवेदनहीन हो जाता है और जनप्रतिनिधि अपने घरों में चुप्पी ओढ़ लेते हैं, तब शहर अकेला पड़ जाता है। बीती रात हनुमानगढ़ अकेला था। बारिश की हर बूंद उसके माथे पर गिरती रही और वह सोचता रहा कि वह कौन-सा विकास था, जो उसे इस दुर्दशा की तरफ ले आया।

विशेषज्ञ चेताते रहे हैं कि जब तक जल निकासी की योजना तकनीकी तरीके से नहीं बनेगी, तब तक हर बारिश एक आपदा ही रहेगी। मगर अफसोस, नालों की सफाई कागज़ों तक ही सीमित है, और कॉलोनियों की प्लानिंग सिर्फ ‘प्लॉट बेचने’ की प्रक्रिया बनकर रह गई है। न शहर की रचना में दूरदर्शिता है, न प्रशासन की नीतियों में पारदर्शिता।
यह केवल एक शहर की पीड़ा नहीं, पूरे तंत्र की विफलता का आईना है। यह तंत्र अब नाकाम हो चुका है जनसरोकार निभाने में। और जनता? वह अब ‘संवेदनशीलता’ के ढोंग से नहीं बहलने वाली। उसे ठोस समाधान चाहिए, धरातल पर दिखने वाली व्यवस्था चाहिए, वह विकास चाहिए जो पानी के साथ बह न जाए।
हनुमानगढ़ की यह बारिश केवल एक मौसमी घटना नहीं थी, यह चेतावनी थी, उन सभी के लिए जो ‘विकास’ को सिर्फ नारों में गिनते हैं। जब तक नालों की गहराई नहीं नापी जाएगी, जब तक सड़कों की ढलानों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा, जब तक नगर नियोजन को महज़ ‘ठेकेदारी का खेल’ समझा जाता रहेगा, तब तक हर बारिश शहर को फिर से डुबोएगी।

आज जब शहर के लोग अपने सूखते घरों में बैठकर खामोश हैं, तब उनके भीतर एक ही आवाज गूंज रही है, आखिर वह दिन कब आएगा, जब विकास सचमुच जमीन पर दिखेगा, और वह भी बिना जलसैलाब में बहते हुए? शायद जवाब आने वाले मौसम से पहले तैयार होना चाहिए, नहीं तो अगली बारिश सवाल नहीं, आरोप लेकर आएगी, और तब शायद यह शहर केवल डूबेगा नहीं, टूट भी जाएगा।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं


