हमारा संविधान और लोकतंत्र

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वेदव्यास.
भारत का संविधान ही 140 करोड़ देशवासियों की आत्मा है और डॉ. भीमराव अंबेडकर ही इसकी प्रस्तावना के रचनाकार हैं। हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।‘ डॉ. भीमराव अंबेडकर को इस संविधान के आलोक में याद करते हुए जब हम भारत की खोज को पढ़ते हैं, तो लगता है कि वंदे मातरम् और जन गण मन‘ जैसी आराधना से बढ़कर कोई अन्य कविता इस धरती पर हो ही नहीं सकती। भारत का यह दिव्य सपना 26 नवंबर, 1949 से हमारे देश का मार्गदर्शक है।
दुनिया के सबसे बड़े लिखित संविधान में वर्णित जो मौलिक अधिकार (1) समानता का अधिकार (2) स्वतंत्रता का अधिकार (3) शोषण के विरुद्ध अधिकार (4) धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (5) संस्कृति तथा शिक्षा संबंधी अधिकार (6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार आज हमें प्राप्त है, उसकी अनुपालना में ही विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की संपूर्ण संरचना प्रेरित और उत्तरदायी है। इस विभाजित राष्ट्र की अनेकताओं को एकता में बांधने का यह अमर तंत्र जब डॉ. अंबेडकर ने लिखा था, तब वह कोई दलित नहीं थे, अपितु एक भारतीय नागरिक थे। इसी तरह 1857 से लेकर 1947 तक भारत में जो आजादी की लड़ाई लड़ी गई, उसके सभी महानायक किसी जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और वर्ग के सैनिक और सेनानी नहीं थे, अपितु भारत के उपासक थे। लेकिन, तब से लेकर अब तक इस देश के विकास और परिवर्तन का प्रवाह कुछ ऐसी विपरीत दिशा में धकेला जा रहा है कि हमने अपने सभी राष्ट्र निर्माताओं को जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीयता के हाशिए पर धकेल दिया है। जो भी भारत गणराज्य का अधिपति बनता है, वह एक भारतः श्रेष्ठ भारत और सबका साथ-सबका विकास की नई-नई बातें तो करता है, लेकिन असल में संविधान के विपरीत सत्ता और व्यवस्था का एक नया ताना-बाना भी बुनता है। यही कारण है कि नए भारत की पिछले 75 साल की कहानी समानता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध, धार्मिक स्वतंत्रता, संस्कृति तथा शिक्षा संबंधी अधिकार और इसके संवैधानिक उपचारों के आसपास ही घूम रही है। हमने अंबेडकर को दलित नेता बना दिया है, तो ज्योतिबा फुले को मालियों का आराध्य, भगत सिंह को चरमपंथ का सिपाही, तो वल्लभ भाई पटेल को गुजरात का गौरव, तो सुभाषचंद्र बोस को बंगाल गरिमा, तो जवाहरलाल नेहरू को वंशवाद का जनक, तो विवेकानंद को कट्टर हिंदुत्व का प्रणेता, तो सुब्रहण्यम भारती को तमिल प्रतिष्ठा और न जाने किन-किन को अपनी-अपनी कैसी-कैसी जाति-धर्म की पहचान का प्रतीक बना दिया है।
इसी तरह हमने संपूर्ण मानवता के उपासकों की जगह राम-कृष्ण को हिंदुओं की, बुद्ध को बौद्धों की, हजरत मोहम्मद को मुसलमानों की, गुरु नानक को सिक्खों की, महावीर को जैनियों की तथा ईसा मसीह को ईसाइयों की चारदीवारी में ही कैद कर दिया है। यानी कि हमने नदी, पर्वत, हवा, प्रकाश, पृथ्वी तक को अपनी जाति-धर्म की पहचान में समेट लिया है तथा मां गंगा की जीवनदायी पवित्रता को भी हिंदू संस्कृति की मुख्यधारा तथा सूर्य और चंद्रमा को भी हिंदू संस्कृति के नमस्कार में बदल दिया है। आज भी हम जब महात्मा गांधी को किसी राजनीतिक पार्टी का विज्ञापन बना देते हैं और अंबेडकर को दलितों का मसीहा कहते रहते हैं, तो हम यह भूल जाते हैं कि इनका जीवन-दर्शन क्या था? हम एक कृतज्ञ राष्ट्र के रूप में भी कभी अंबेडकर के भारत के संविधान की बात क्यों नहीं करते और महात्मा गांधी की सत्य और अहिंसा को याद क्यों नहीं करते? यह सीमित समझ ही बताती है कि हम ऐसे सभी राष्ट्र निर्माताओं को एक व्यक्ति के रूप में जाति-धर्म के लिए उपयोगिता की सामग्री में बदल रहे हैं, जबकि गांधी और अंबेडकर एक विचार है तथा वह किसी संकीर्णता के हकदार नहीं हैं। महाराणा प्रताप और शिवाजी को किसी धर्म और जाति का नायक बनाना भी हमारी समझ की संकीर्णता है, क्योंकि यह सभी इतिहास पुरुष राजा और प्रजा की मर्यादा के आधार हैं।
इसलिए, हमें आज यह अवधारणा भी बदलनी होगी कि जाति और धर्म की पहचान से ही किसी देश की पहचान बनती है और विकास तथा परिवर्तन की योजनाएं चलाई जाती हैं। यदि भारत में दलितों को सामाजिक-आर्थिक समानता का अधिकार हम आज तक नहीं दे पाए हैं, तो यह डॉ. अंबेडकर और हमारे संविधान का अपमान है।
इसी तरह भारत में असत्य और हिंसा का विस्तार भी महात्मा गांधी के सपनों की अवहेलना है। भारत का संविधान ही हमें वह ताकत देता है कि-आज भी हम एक हैं और आगे-पीछे वंदे मातरम् और जन गण मन ही गा रहे हैं तथा सभी प्रकार की शपथ अपने संविधान के अंतर्गत ही ले रहे हैं।
ऐसे में, भारत का जीवन धर्म और जीवन कर्म भारत का संविधान ही है। अतः अंबेडकर को जाति-धर्म की सीमाओं में बांधकर इन्हें छोटा मत बनाइए, क्योंकि प्रेरणा के प्रकाश का कोई जाति-धर्म नहीं होता। अतः समय की चेतावनी को समझते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि 26 जनवरी 1950 को हम एक विरोधाभास की जिंदगी में प्रवेश करने जा रहे हैं। हमारी राजनीति में समानता होगी और हमारे सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता। राजनीति में हम एक वोट और हर वोट का समान मूल्य पर चल रहे होंगे। परंतु अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में हमारे सामाजिक एवं आर्थिक ढांचे के कारण हर व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकार रहे होंगे। इस विरोधाभास के जीवन को हम कब तक जीते रहेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? यदि हम इसे नकारना जारी रखते हैं तो हम केवल अपने राजनीति प्रजातंत्र को संकट में डाल रहे होंगे। हमें जितनी जल्दी हो सके, इस विरोधाभास को समाप्त करना होगा, अन्यथा जो लोग इस असमानता से पीड़ित हैं, वे उस राजनीतिक प्रजातंत्र को उखाड़ फेकेंगे जिसे हम सभी ने परिश्रम से खड़ा किया है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं)

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