



सुचेता जैन..
देश की युवा पीढ़ी आज कई स्तरों पर उपलब्धियों के नए आयाम रच रही है। तकनीक, स्टार्टअप, शिक्षा, खेल और कला। हर क्षेत्र में भारतीय युवाओं की उपस्थिति उल्लेखनीय है। लेकिन इन तमाम सफलताओं के पीछे एक ऐसा संकट छिपा है, जिस पर समाज की नजरें आज भी उतनी गंभीर नहीं हैं, तनाव और नशे की बढ़ती प्रवृत्ति।
हाल ही में विभिन्न सामाजिक एवं स्वास्थ्य संगठनों द्वारा जारी रिपोर्टों में यह बात सामने आई है कि 15 से 30 वर्ष की उम्र के युवाओं में मानसिक तनाव, अवसाद और नशे की ओर झुकाव खतरनाक गति से बढ़ा है। यह सिर्फ व्यक्तिगत विफलताओं का परिणाम नहीं है, बल्कि एक बहुत बड़ी सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था की असंतुलित अपेक्षाओं का असर है।
आज का युवा आत्मनिर्भर बनना चाहता है, सफल होना चाहता है, लेकिन इन सबके बीच वह खुद से दूर होता जा रहा है। शिक्षा, कॅरियर, विवाह और परिवार। हर पड़ाव के लिए समाज के पास एक निश्चित खाका है, परंतु इस खाके में जीवन को संतुलित कैसे जिया जाए, इसकी कोई जगह नहीं है। यही वजह है कि जब लक्ष्य पूरे नहीं हो पाते, या मिल भी जाते हैं लेकिन सुकून नहीं आता, तो तनाव जन्म लेता है।
इस मानसिक असंतुलन से निपटने के लिए जब मार्गदर्शन नहीं मिलता, तो नशा एक आसान विकल्प बनकर सामने आता है। शराब, सिगरेट, ड्रग्स, स्क्रीन-एडिक्शन या डिजिटल डोपामीन, सब इसी अंधेरे का हिस्सा हैं, जो कुछ पल का सुकून देते हैं और फिर अंदर ही अंदर खोखला कर देते हैं।
समाज, अभिभावक और शिक्षण संस्थान आज भी इस गंभीरता को स्वीकारने में पीछे हैं। आमतौर पर जब युवा कुछ गलत करता है, तो उसे ‘दोषी’ कहकर दंडित कर दिया जाता है कृ पर कभी नहीं पूछा जाता कि वह ऐसा क्यों कर रहा है?
क्या हमने उसकी सुनी? क्या हमने उसे एक सुरक्षित मानसिक स्पेस दिया जहां वह अपनी बात रख सके? दुर्भाग्य से उत्तर अक्सर ‘नहीं’ होता है।

समाधान की ओर पहल
समस्या जितनी गहरी है, समाधान भी उतना ही मानवीय हो सकता है, बशर्ते हम गंभीर हों। संवाद की शुरुआत करनी होगी। युवाओं को यह विश्वास दिलाना होगा कि वे केवल परीक्षा के अंक नहीं हैं, बल्कि एक संपूर्ण जीवन हैं। अभिभावकों और शिक्षकों को संवेदनशील बनना होगा। उन्हें आज के समय और बच्चों की मानसिकता को समझना होगा। पुराने जमाने की तुलना से नहीं, बल्कि आज की वास्तविकता के अनुसार। स्कूलों और कॉलेजों में ‘मेंटल हेल्थ एजुकेशन’ को अनिवार्य किया जाना चाहिए। हर युवा को यह जानने का अधिकार है कि उसका मन भी उसका अंग है, और उसकी देखभाल भी जरूरी है।
समझ से निकलेगा समाधान
आज जरूरत है युवाओं को नसीहत नहीं, नजदीकियां देने की। उन्हें यह अहसास दिलाने की कि वे अकेले नहीं हैं। यह समझना होगा कि कोई भी युवा खुशी-खुशी नशे का रास्ता नहीं चुनता। वह उसे तब चुनता है जब बाकी सारे रास्ते उसके लिए बंद कर दिए जाते हैं। युवा पीढ़ी दोषी नहीं है, वह पीड़ित है, उस चुप्पी की, उस दौड़ की, और उस व्यवस्था की जो उसे इंसान नहीं, सिर्फ एक ‘परफॉर्मर’ मानती है। अगर हमें भविष्य संवारना है, तो उसे ‘सुनना’ शुरू करना होगा, आज और अभी।
-लेखिका कानूनी शोधकर्ता और ट्रांसफॉर्मेटिव थर्सडे की संस्थापक हैं





