गोपाल झा.
भारत का चुनावी समर। देश नहीं, दुनिया की नजर टिकी है। दूसरे देशों के प्रतिनिधि चुनाव प्रक्रिया को समझने आए हैं। ‘एनडीए’ बनाम ‘इंडिया’ के बीच दिलचस्प मुकाबला है। मतदान का आखिरी चरण पूरा हो चुका है। जनादेश मिल चुका है। उम्मीदवारों की सियासी किस्मत ईवीएम में कैद है।
सीमित संसाधनों व कमजोर रणनीति के साथ विपक्ष मौजूदा सरकार को पदच्यूत करने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ा। सत्तापक्ष के पास धन की कोई कमी नहीं। करोड़ों खर्च कर रैलियां की गईं, रोड शो हुए। बीजेपी ने तो अपने ‘स्टार’ नरेंद्र मोदी पर गुलाब बरसाने में ही करोड़ों खर्च कर दिए। बावजूद इसके, धीमा मतदान विपक्ष को ‘लक्ष्य’ हासिल करने का स्वप्न दिखा रहा है। आखिरी चरण की वोटिंग के बाद टीवी चैनलों के एग्जिट पोल में ‘मोदीमय भारत’ का एलान हो चुका है। वहीं, विपक्ष इससे सहमत नहीं। विपक्ष ने गृह मंत्री अमित शाह पर 120 से अधिक जिला कलक्टर्स को फोन पर ‘धमकाने’ का आरोप मढ़ा है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर संदेह व्यक्त किया है। इस लिहाज से देखें तो आजाद भारत का पहला चुनाव है जब निर्वाचन आयोग की साख पर बट्टा लगा है। सच कुछ भी हो, साख में सुराख तो नजर आ ही रहा है। आयोग को आत्ममंथन करना ही चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके खास सिपहसालार अमित शाह के माथे पर सलवटें दिखाई देती रहीं। वोटिंग के चरण खत्म होते-होते जोश भी कम पड़ने लगे थे। उनकी उम्मीदें सहमी-सहमी सी महसूस होने लगी थी। चेहरे से ‘ओज’ गायब था। जोशीले भाषण के लिए विख्यात मोदी की जुबान लड़खड़ाने लगी थी। उनके विरोधाभासी बयान सोशल मीडिया पर सुर्खियां बटोरने लगे थे। बेशक, विपक्ष को हमलावर होने का खूब मौका मिला।
उधर, विपक्षी खेमे के ‘अपरिपक्व’ नेताओं ने ‘नासमझी’ या फिर ‘कूटरचित’ बयानों के माध्यम से सत्तापक्ष को ‘ताकत’ देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बावजूद इसके सत्तापक्ष में उत्साह की कमी नजर आने लगी थी। सवाल यह है, क्या जनता मोदी के ‘400 पार’ के नारे को साकार करेगी ? वैसे तो 4 जून को वास्तविकता का पता चलेगा, लेकिन इस पहाड़ सा लक्ष्य तक पहुंचना आसान है क्या? मोदी-शाह की जोड़ी को अहसास था कि 2024 का चुनाव 2014 या 2019 से अलग है। इसलिए उन्होंने रणनीतिक तौर पर लक्ष्य को बढ़ाया। कॉरपोरेट कल्चर का यही सिद्धांत है। लक्ष्य बड़ा रखना। उसे हासिल करने के लिए पूरी ताकत झोंक देना। 70-75 फीसद कामयाबी मिल गई तो बल्ले-बल्ले। मोदी चुनावी खेल के माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं। जनता की कमजोर नस को दबाना उन्हें बखूबी आता है।
मतदान में गिरावट के बाद बीजेपी ने रणनीतिक तौर पर पैंतरा बदला। उसे पता था ‘हिंदुत्व’ की पौष्टिकता उसमें जान फूंक देगी। लिहाजा, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति की रिपोर्ट को प्रचारित किया गया। दावा किया गया कि 65 वर्षों में हिंदुओं की संख्या 6 फीसद घट गई। साल 1950 में हिंदुओं की संख्या 84 प्रतिशत थी जो 2015 में घटकर 78 फीसद रह गई। भाजपा के बयानवीर नेता हिंदुओं की आबादी कम होने पर हाय-तौबा मचाने लगे। लेकिन किसी ने यह नहीं बताया कि जब जनगणना नहीं हुई तो इस रिपोर्ट के मायने क्या हैं ? फिर, अगर रिपोर्ट सही है तो मौजूदा सरकार ने 8 वर्षों में हिंदुओं की आबादी बढ़ाने के लिए क्या प्रयास किए ?
देखा जाए तो इस तरह की बातों से सत्तापक्ष की घबराहट उजागर हुई। लेकिन यह भी सच है कि ‘इंडिया’ गठबंधन के पास सत्ता में वापसी की कुव्वत नहीं है। उसके पास रणनीतिक कौशल की कमी स्पष्ट नजर आई। फिर भी, जब उम्मीदों का गुब्बारा फूलकर आसमान की तरफ तैरने लगता तो सैम पित्रोदा जैसे ‘सैनिक’ उसमें सूई चुभाते नजर आए।
बहरहाल, इंतजार खत्म होने को है। कयासों, संभावनाओं व आशंकाओं के बादल छंटने में चंद घंटे शेष हैं। चुनाव परिणाम कुछ भी हो, देश आगामी पांच साल तक चर्चा में रहेगा, इसमें दो राय नहीं।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं