गोपाल झा.
सूबे में ‘हुकूमत’ के ‘फेल’ होने की खबर फैलती जा रही है। विपक्ष ‘खिल’ रहा है। सत्तापक्ष के भीतर का बड़ा तबका भी ‘गदगद’ है। हां, वह बाहरी तौर पर अहसास नहीं होने दे रहा। लेकिन कई सीनियर्स का दिल तो ‘गार्डन-गार्डन’ हो रहा है। चर्चा है, ‘महारानी’ फॉर्म में लौटना चाहती हैं। गाहे-बगाहे इशारों में नसीहत देना नहीं भूलतीं। कहते हैं, खानदानी लोगों का यही अंदाज रहता है। वे विपरीत समय में चुप्पी साधते हैं। धैर्य धारण करते हैं और जब उचित वक्त आता है तो ‘मन की बात’ करने में देर नहीं लगाते। ‘महारानी’ ने फिर कहानी सुना दी। इससे ‘फूल वाली पार्टी’ के भीतर हलचल मच गई। बकौल ‘महारानी’-‘कुछ लोग पीतल की लौंग मिलने पर भी खुद को सर्राफ समझने लगते हैं। चाहत बेशक आसमां छूने की रखो, लेकिन पांव हमेशा जमीं पर रखो।’ सवाल यह है कि आखिर यह मैसेज किसके लिए था ? ‘गुजराती बंधुओं’ या किसी और के लिए ? देखा जाए तो ‘महारानी’ के आसपास पार्टी के इतने ज्यादा किरदार इस पर फिट बैठते हैं कि इसकी सही गणना संभव नहीं। लेकिन कुछ भी हो। ‘महारानी’ का पार्टी मंच पर मुखर होने से खबरनवीसों को ‘गॉसिप’ लिखने का मौका तो मिल ही जाता है। वैसे भी ‘सियासी गॉसिप’ का अपना महत्व है। लेकिन सवाल तो यह है कि आखिर ‘महारानी’ के मन में क्या चल रहा है ?
‘वज़ीर’, बुखार और पैरासिटामोल!
दिल्ली दरबार में तरह-तरह के ‘अनमोल रत्न’ मौजूद हैं। अपने बयानों को लेकर वे सुर्खियां बटोरते हैं, चर्चा में आते हैं और ‘दरबार’ उसी के आधार पर उनकी सियासी तकदीर का फैसला करता है। दशक भर से ऐसा ही कुछ हो रहा है। यही वजह है कि ‘दरबार’ के ‘शागिर्द’ ध्यान आकर्षित करने के लिए कुछ न कुछ बोलते ही रहते हैं, यह सोचकर कि कभी तो ‘दरबार’ दया दिखाएंगे। ताजा मामला मारवाड़ से ताल्लुक रखने वाले ‘वज़ीर’ से जुड़ा है। मरुप्रदेश में ‘कमल’ खिला लेकिन कार्यकर्ता अब तक ‘सिकुड़े’ हुए महसूस कर रहे हैं। हाकिमों की ‘निरंकुश’ फौज उन्हें दबाकर रखती है। कार्यकर्ताओं ने ‘वज़ीर ए खास’ के सामने दर्द बयां कर राहत की गुहार लगाई तो ‘वज़ीर’ भी व्यथित हुए। वातानुकूलित कक्ष में भी माथे पर पसीने छूटने लगे। पहले तो रूमाल निकालकर पसीना पोंछा और फिर बोले-‘भाजपा कार्यकर्ताओं का काम नहीं करने वाले अधिकारियों का बुखार उतारना जरूरी। डबल इंजन की सरकार होने के बाद भी अगर कोई तहसीलदार या अधिकारी भाजपा कार्यकर्ता से कहता है कि- ‘तुमसे जो हो सके कर लेना’ तो इसे बदलने की जरूरत है। उस अधिकारी का बुखार उतारने के लिए ‘पैरासिटामोल’ की गोली देने की जरूरत है।’ इलाके में ‘बन्ना सा’ के नाम से विख्यात ‘वज़ीर एक खास’ का यह तेवर सबको रास आया लेकिन कानाफूसी तो होनी ही थी। एक ने दूसरे से पूछ लिया, ‘भाई, हाकिमों को तो पॉवर आने से ताप चढ़ जाता है, मतलब बुखार आ जाता है। लेकिन इनके लिए ‘पैरासिटामोल’ की गोली कहां मिलेगी ? बन्ना सा ने ये तो नहीं बताया!’ दूसरे ने धीरे से फुसफुसाते हुए कहा-‘चुप कर यार। बेहया हाकिमों से बन्ना भी व्याकुल है। मौका मिला तो बयान दे दिया। यह सोच कर कि जहां तक बात पहुंचानी है, पहंुच जाएगी। कार्यकर्ता तो सिर्फ बहाना है।’ सचमुच, दूसरे वाले की बात पहले वाले ने नहीं समझी। अलबत्ता, वह सोचता ही रह गया लेकिन पूरा यकीन है, आपने समझ ली होगी। है न?
हाकिम, समस्या और समाधान!
आठ महीने, 72 तबादला सूची और 1800 हाकिमों को इधर से उधर करने की खबर। सियासी गलियारे में इसे ‘ब्यूरोक्रेसी की सर्जरी’ कहते हैं। वैसे ‘सर्जरी’ क्यों की जाती है, यह आप भलीभांति समझते हैं। चिकित्सकीय पद्धति में ‘सर्जरी’ को उपचार का आखिरी तरीका माना जाता है। सवाल यह है कि ‘सूबे की हुकूमत’ ने तो ब्यूरोक्रेसी को सुधारने के लिए 72 बार सर्जरी कर दी लेकिन परिणाम क्या निकला? ढाक के तीन पात। ‘फूल वाली पार्टी’ अब ब्यूरोक्रेसी से परेशान है। अंदरखाने चर्चा चल पड़ी है कि इसको सुधारने के लिए एलोपैथिक सिस्टम फेल हो गया है तो क्यों न आयुर्वेदिक पद्धति का उपयोग किया जाए। इसमें ‘साइड इफेक्ट’ भी नहीं। बीमारी को जड़ से खत्म करने का अचूक तरीका है। खबर है, ‘फूल वाली पार्टी’ की यह समस्या उसके पैतृक संगठन यानी आरएसएस तक पहुंची है। संघ के कुछ बड़े लोगों ने हाकिमों के ‘हृदय परिवर्तन’ करवाने का सुझाव दिया है। इसके लिए धर्माचार्यों या कथावाचकों से ‘टोटके’ करवाए जाएंगे। वर्कशॉप के माध्यम से उनमें ‘नैतिकता’, ‘ईमानदारी’ और ‘कर्तव्यपरायणता’ की भावना विकसित की जाएगी। इस उम्मीद से कि ऐसे हाकिमों की आत्मा सुसुप्तावस्था से जागृत अवस्था में आ जाए। सोच बेहतर है। क्या पता, इससे हाकिमों से जुड़ी समस्या का समाधान हो जाए। नहीं क्या ?
मीडिया बनाम ब्यूरोक्रेट्स!
मैथिली में एक कहावत है, ‘ओझा लेखे गाम बताह और गामक लेखे ओझा बताह’। इसका मतलब है कि किसी व्यक्ति की नजर में पूरा गांव पागल है और गांव की नजर में वह व्यक्ति। दरअसल, ‘बताह’ यानी पागल शब्द की जगह ‘बुद्धिहीन’ शब्द रख दीजिए तो ब्यूरोक्रेट्स और मीडिया के बीच इन दिनों यह कहावत सटीक बैठ रही है। पिंकसिटी राजधानी है। ब्यूरोक्रेट्स के आला अफसरों से लेकर मीडिया घरानों के सेंटर यहीं पर हैं। नामी गिरामी खबरनवीस भी यहीं हैं। इन दिनों दोनों के बीच अघोषित ‘टकराव’ की स्थिति है। खांटी किस्म के खबरनवीसों की पीड़ा है कि ब्यूरोक्रेट्स की नई पीढ़ी उन्हें ‘मान’ नहीं देती। बात ब्यूरोक्रेसी के ‘बॉस’ तक पहुंची। ‘बॉस’ ने जूनियर्स को नसीहत दी है। मीडिया मैनेजमेंट का पाठ पढ़ाया है। ‘हुकूमत’ पहले से परेशान है। ऐसे में सामंजस्य की ज्यादा दरकार है। वैसे, खांटी किस्म के खबरनवीसों और 2015 बैच के बाद वाले अफसरों के बीच एकमात्र समस्या है, ‘जेनरेशन गैप’ का। यह तो घर-घर की कहानी है। ऐसे में इसे तूल देने की जरूरत नहीं। हां, सीनियर्स अगर तेवर बदलें तो फिर उन्हें आईना दिखाने से गुरेज नहीं करना चाहिए। जूनियर्स से कैसा गिला-शिकवा?