गोपाल झा.
अपने गवर्नर साहब मराठियों में ‘नाना’ के नाम से जाने जाते हैं। ‘नाना’ उम्र के लिहाज से 80 वां साल गुजार रहे हैं लेकिन फुर्ती और उत्साह किसी नौजवान से कम नहीं। बतौर राज्यपाल उनकी यह पहली नियुक्ति है। वे कभी अखबार बेचते थे। फिर आरएसएस से जुड़े। भाजपा में प्रवेश किया और विधायक बने फिर मंत्री भी। एक दशक पहले ‘नाना’ का मन ‘निम्न सदन’ जाने के लिए छटपटा रहा था लेकिन संभव नहीं हुआ। विधानसभा में स्पीकर बने और अब राज्यपाल। राजस्थान वीरों की धरती है। ‘नाना’ बखूबी जानते हैं। लिहाजा, उन्होंने सीमावर्ती क्षेत्रों का दौरा शुरू कर दिया है। वे आम आदमी और बच्चों से खुलकर मिल रहे हैं। उनसे बात कर रहे हैं। उनका यह अंदाज ‘वजीरों’ को हैरान कर रहा है। संबंधित क्षेत्रों के ‘वजीर’ खुसर-फुसर करने लगे हैं। हर जगह एक ही सवाल कि आखिर ‘नाना’ चाहते क्या हैं ? लगे हाथ बता दें, सब कुछ ‘दिल्ली दरबार’ द्वारा लिखी पटकथा का हिस्सा है। सरकार की ‘मॉनिटरिंग’ के लिए ‘दरबार’ ने एक ‘खांटी संघी’ को इसीलिए तो भेजा है। तो क्या, ‘नाना’ को ‘मैसेंजर ऑफ दरबार’ समझा जाए ?
आईना दिखाने का दौर!
‘पंजा’ वाली पार्टी सक्रिय दिखने लगी है। राजस्थान में छह सीटों के लिए उप चुनाव है। तैयारी के बहाने सरगर्मी तेज होने लगी है। पिंकसिटी में हुई बैठक में प्रदेश के ‘प्रधानजी’ ने प्रतिनिधियों को ‘सेकने’ में कोई कसर नहीं छोड़ी। ‘विचारधारा’ से लेकर ‘दायित्वबोध’ तक की याद दिलाई। दो टूक कहा कि सक्रिय कार्यकर्ताओं को ही संगठन में तवज्जो दी जाएगी। निष्क्रिय और ‘निष्ठाविहीन’ कार्यकर्ताओं को संगठन से दूर रखा जाएगा। ‘प्रधानजी’ एक सुर में गाथा गा रहे थे और दूसरी तरफ कोटा और करौली से आए दो नेताजी ‘खुसर-फुसर’ कर रहे थे। सार यह कि नेताजी खुद बैंगन खा रहे और दूसरों को बैंगन खाने से परहेज बता रहे। इस तरह की दोहरी बातों से ही तो संगठन का ‘कबाड़ा’ हुआ है। ‘प्रधानजी’ संगठन को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं ? चूंकि ‘प्रधानजी’ तक यह बात नहीं पहंुची इसलिए वे जवाब कैसे देते लेकिन शेखावाटी से आए प्रतिनिधि ने इशारे में कह दिया कि ‘कथनी और करनी’ में अंतर की वजह से ही ये प्रधान बने हैं। वरना स्थानीय कोर्ट के बाहर ‘क्लाइंट’ का इंतजार करते नजर आते। सनद रहे, ‘प्रधानजी’ सियासत में सफल होने से पहले वकालत ही करते थे। मतलब, ‘पंजा’ वाली पार्टी में ‘आईना’ दिखाने का दौर है। कब, कौन, किसे आईना दिखा दे, समझ में नहीं आता। वैसे, इस तरह आईना दिखाना कोई गलत है क्या ?
‘हाकिमों’ को भा रही ‘नेतागिरी’
यूनियन सिर्फ मजदूरों की नहीं होती। डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, वकील, जज, आईएएस, आईपीएस और आरएएस-आरपीएस की भी होती है। ताजा खबर राजस्थान प्रशासनिक सेवा परिषद से जुड़ी है। करीब चार साल बाद चुनाव हुए। उत्साह का आलम यह कि तीन उम्मीदवार मैदान में आ डटे। कुल 928 में से 903 अफसरों ने मतदान में भाग लिया। इससे एक बात सामने आई कि अफसरों को सियासत पसंद है। अगर ऐसा न होता तो भला एक अध्यक्ष पद के लिए तीन अफसर दावेदारी क्यों जताते। सर्वसम्मति से अध्यक्ष क्यों नहीं चुन लिया जाता? दरअसल, यह छोटी बात नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि आखिर राजस्थान प्रशासनिक सेवा परिषद को लेकर अफसर इस कदर उत्साहित क्यों हैं ? खबर है कि यूनियन के साथ रहने में अफसर अपना फायदा देखते हैं। जब भी तबादला सूची आती है तो अफसरों को अपनी यूनियन के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाने में आसानी होती है। सरकार भी ‘सहम’ जाती है इनकी एकजुटता के सामने। राजस्थान में चार साल बाद संगठन के चुनाव हुए और फिलहाल अफसरों में असमंजस की स्थिति है कि तबादला सूची से बड़े स्तर पर उठापटक न हो जाए। सरकार कई बार पूरब में पदस्थापित अफसर को सीधे पश्चिम भेज देती है और उत्तर वाले को दक्षिण। लंबी दूरी का सफर अफसरों के लिए परेशानी का कारण बन जाता है। यही वजह है कि यूनियन से जुड़ने और कमान संभालने के लिए अफसरों में उत्साह देखा गया। लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है। सच तो यह भी है कि ‘हाकिमों’ को सियासत पसंद है। नहीं क्या ?
‘खाकी’ पर ‘वजीर ए आला’ का भाषण
‘वजीर ए आला’ राजधानी में खाकी वाले महकमे के उच्चाधिकारियों को कानून-व्यवस्था को लेकर नसीहत दे रहे थे और कुछ ही दूरी पर सूबे के एक विधायक की पिटाई हो रही थी। खबरनवीसों की मानें तो विधायक पर हमले की खबर ‘वजीर ए आला’ तक पहुंच चुकी थी लेकिन उन्होंने अपने भाषण में ‘खाकी’ महकमे के कामकाज पर मुहर लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। विपक्ष को मौका मिल गया। ‘जादूगर’ ने घटना को लेकर ‘शासन’ पर जोरदार हमला कर दिया। जाहिर है, पुलिसिंग विद एक्सीलेंस: ‘द वे फॉरवर्ड’ की थीम पर चले चिंतन-मनन के दौर की ‘हवा’ निकल गई। बकौल विपक्ष, ‘जब सूबे में एक विधायक सुरक्षित नहीं तो फिर आम जनता की हिफाजत का जिम्मा कौन लेगा?’ अब विपक्ष को भला कौन समझाए कि लोकतंत्र का मालिक भले आम जनता हो लेकिन सुरक्षित व आनंददायी जीवन तो सियासतदान ही व्यतीत करते हैं। जनता तो हमेशा ‘राम भरोसे’ थी, ‘राम भरोसे’ है और ‘राम भरोसे’ ही रहेगी। बाकी सब सियासत है। कोई शक ?