सुनील कुमार महला.
साहित्य के क्षेत्र में कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना ऐसा नाम है, जिनसे कौन परिचित नहीं है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी कमलेश्वर आधुनिक हिंदी साहित्य में वह जाना-पहचाना और विख्यात नाम है, जिनकी रचनाओं को छठे दशक में सबसे अधिक पढ़ा गया था। वे स्वातंत्र्योत्तर काल में हिंदी जगत के विख्यात साहित्यकारों में से एक माने जाते हैं। सच तो यह है कि वे साहित्य और पत्रकारिता के सितारे थे, जिनकी चमक कभी भी कम नहीं होगी। कमलेश्वर हिंदी साहित्य में नई कहानियों के जनक, दलित साहित्य को मान्यता दिलाने वाले, मौसम, चंद्रकांता जैसी फिल्मों-टीवी सीरियल के स्टार लेखक, दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक होने से कई पुरस्कृत कार्यक्रमों के प्रोड्यूसर और राजपथ की परेड की शानदार कमेंट्री के लिए भी जाने जाते हैं। ‘कामगार विश्व’ नाम के कार्यक्रम में उन्होंने ग़रीबों, मज़दूरों की पीड़ा-उनकी दुनिया को अपनी आवाज़ दी। कमलेश्वर की अनेक कहानियों का उर्दू में भी अनुवाद हुआ है। बहरहाल, यह कहना ग़लत नहीं होगा कि वे बेहद मानवीय, बेहद संवेदनशील, बेहद आत्मीय और नई पीढ़ी के लेखक पत्रकारों के लिए संरक्षक थे। जब भी बहुचर्चित उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’, जो कि भारत-पाकिस्तान के बँटवारे और हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर आधारित है, की बात आती है, तो पाठक, साहित्यकार कमलेश्वर को अवश्य ही याद करते हैं।
कहना न होगा कि भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म ‘आंधी’ कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर दिखाती है। वे आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘नई कहानी आंदोलन’ के प्रमुख रचनाकारों में एक थे। सच तो यह है कि कमलेश्वर ने हिंदी गद्य साहित्य में कई विधाओं में साहित्य का सृजन किया हैं जिसमें कहानी, उपन्यास, नाटक, संस्मरण, स्तंभ लेखन व पटकथा लेखन शामिल हैं। उन्होंने दूरदर्शन के महानिदेशक के रूप में भी अपनी सेवाएं दी थीं। दूरदर्शन पर साहित्यिक कार्यक्रम ‘पत्रिका’ की शुरुआत इन्हीं के द्वारा हुई तथा पहली टेलीफ़िल्म ‘पंद्रह अगस्त’ के निर्माण का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। अपने जीवनकाल में उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं का संपादन कार्य भी किया, जिनमें ‘दैनिक जागरण’, ‘सारिका‘ व ‘गंगा’ प्रमुख हैं। साहित्य में उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा वर्ष 2005 में ‘पद्म भूषण’ और ‘कितने पाकिस्तान‘ (उपन्यास) के लिए वर्ष 2003 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया।
परिचय: कमलेश्वर का जन्म 6 जनवरी 1932 को उत्तरप्रदेश के मैनपुरी जिले में हुआ था। वैसे तो उनका पूरा नाम कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना था लेकिन हिंदी जगत में उन्हें कमलेश्वर के नाम से अधिक जाना जाता है। उनके पिता का नाम ‘श्री जगदंबा प्रसाद’ व माता का नाम ‘श्रीमती शांतिदेवी’ था। उनकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती गायत्री देवी था। कमलेश्वर की प्रारंभिक शिक्षा मैनपुरी के गवर्मेंट हाईस्कूल से हुई तथा उन्होंने वर्ष 1954 में ‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय‘ से हिंदी साहित्य में एम.ए की डिग्री हासिल की। इसी समय उनका लेखन के क्षेत्र में पर्दापण हुआ जो उनके जीवन के अंत तक जारी रहा। कई वर्षों तक उन्होंने सरकारी नौकरी भी की।
रचनाएं: उनके उपन्यासों में क्रमशः एक सड़क सत्तावन गलियाँ, डाक बंगला, समुद्र में खोया हुआ आदमी, तीसरा आदमी आदि शामिल हैं। उन्होंने कहानी संग्रह भी लिखे जिनमें जॉर्ज पंचम की नाक, इतने अच्छे दिन, मांस का दरिया आदि शामिल हैं। ‘रेत पर लिखे नाम’, ‘अधूरी आवाज’ उनके द्वारा लिखे नाटक थे। पाठकों को बताता चलूं कि उन्होंने तकरीबन 99 फिल्मों में कहानियां, संवाद व पटकथाएं लिखी हैं। इनमें से कुछ प्रसिद्ध फिल्मों के नाम है, ‘राम बलराम’, ‘मौसम’, ‘रंग बिरंगी’, ‘यह देश’ आदि। उन्होंने संस्मरण भी लिखे जैसे ‘जो मैंने जिया’, ‘जलती हुई नदी’, ‘यादों के चिराग’ आदि। इतना ही नहीं उन्होंने यात्रा वृत्तांत और समीक्षा ग्रंथों पर भी अपनी कलम चलाई थी। उनके यात्रा वृत्तांतों में क्रमशः ‘कश्मीर’, ‘रात के बाद’, ‘देश-देशांतर’ शामिल हैं। ‘नयी कहानी की भूमिका’, ‘मेरा पन्ना’ उनके समीक्षा ग्रंथों में से एक थे। कमलेश्वर ने अपने 75 साल के जीवन में 12 उपन्यास, 17 कहानी संग्रह और क़रीब 100 फ़िल्मों की पटकथाएँ लिखीं। गौरतलब है कि कमलेश्वर की अंतिम अधूरी रचना अंतिम सफर उपन्यास है, जिसे कमलेश्वर की पत्नी गायत्री कमलेश्वर के अनुरोध पर तेजपाल सिंह धामा ने पूरा किया और हिन्द पाकेट बुक्स ने उसे प्रकाशित किया और बेस्ट सेलर रहा। पाठकों को बताता चलूं कि कमलेश्वर मूलतः कहानीकार, उपन्यासकार थे, लेकिन कविताओं और गजलों के गहरे अध्येता थे। दुष्यंत कुमार की गजलों को न सिर्फ कई बार उन्होंने अपनी संपादित पत्रिकाओं में छापा अपितु अपने लेखन में बहुधा वे दुष्यंत कुमार की गजलों का जिक्र करते थे। यहां तक कि दुष्यंत कुमार की किताबों की भूमिका भी उन्होंने लिखी। उनकी पहली कहानी 1948 में प्रकाशित हो चुकी थी परंतु ‘राजा निरबंसिया’ (1957) से वे रातों-रात एक बड़े कथाकार बन गए। सच तो यह है कि कमलेश्वर एक बड़े लेखक और बेहतरीन इंसान थे। उन्हें याद करते हुए हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव ने कहा था, ‘कमलेश्वर का जाना मेरे लिए हवा-पानी छिन जाने जैसा है। साहित्य जगत में कमलेश्वर जैसे बहुमुखी और करिश्माई व्यक्तित्व के लोग कम ही हुए हैं।’ 27 जनवरी 2007 को सूरजकुंड, फरीदाबाद में उनका निधन हो गया।
-लेखक कॉलमिस्ट व युवा साहित्यकार हैं