तिब्बतियों से प्रतिस्पर्द्धा उचित नहीं

image description

शंकर सोनी.
तिब्बती शरणार्थी कुछ अरसे से चर्चा में हैं। खासकर राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में। दरअसल, करीब दो दर्जन तिब्बती हर साल गर्म कपड़े बेचने हनुमानगढ़ आते हैं। यहां पर वे करीब तीन माह अपना अलग मार्केट लगाते हैं। नगरपरिषद हर बार उन्हें जगह मुहैया करवाती है। इसके बदले नगरपरिषद को किराया मिलता है। लेकिन इस बार हनुमानगढ़ जिला मुख्यालय के रेडीमेड कपड़ा विक्रेताओं ने तिब्बती शरणार्णियों का तिब्बती मार्केट लगा कर कपड़े बेचे जाने का विरोध कर दिया। इससे नया विवाद शुरू हो गया। व्यापारियों ने स्थानीय होने के कारण राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल किया। परिणामस्वरूप नगर परिषद ही नहीं, शहर के लोगों ने भी तिब्बतियों को मार्केट के लिए किराए पर भूमि या भूखंड देने से इन्कार कर दिया।
सच पूछिए तो यह मामला मुझे नागवार गुजरा। सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते मैंने थोड़ा आगे आकर तिब्बती शरणार्थियों का पक्ष लिया। स्थानीय विधायक से बात की और इस बात को लेकर संतोष हुआ कि विधायक ने निजी भूखंड में तिब्बती मार्केट लगवाने की घोषणा की। तिब्बतियों के चेहरे पर मुस्कान है।
वैसे देखा जाए तो पहले भी ऐसी स्थिति आई है। श्रीगंगानगर में तो विवाद हाईकोर्ट तक पहुंच गया।
दरअसल चीन और तिब्बत के बीच विवाद बरसों पुराना है। चीन कहता है कि तिब्बत 13 वीं शताब्दी में चीन का हिस्सा रहा है इसलिए तिब्बत पर उसका हक है। तिब्बत चीन के इस दावे को खारिज करता है। तिब्बतियों का मानना है कि जब 1912 में तिब्बत के 13वें धर्मगुरु दलाई लामा ने तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया और उस समय से 40 वर्षों तक चीन ने कोई आपत्ति व्यक्त नहीं की गई इसलिए चीन का दावा गलत है।
यह सर्वज्ञात है कि 1950 में चीन की विस्तारवादी कम्युनिस्ट सरकार ने हमला कर तिब्बत पर चीन का कब्जा किया। अंततः 23 मई, 1951 को दलाई लामा ने 17 बिंदुओं वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के बाद तिब्बत आधिकारिक तौर पर चीन का हिस्सा बन गया। हालांकि दलाई लामा इस संधि को नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि ये संधि जबरदस्ती दबाव बनाकर करवाई गई थी। लिहाजा, तिब्बती 23 मई, 1951 को काले दिवस के रूप में मानते है। तिब्बत में 1959 में चीनियों के खिलाफ एक असफल विद्रोह के बाद दलाई लामा ने अपने मंत्री और सलाहकार सहित हजारों तिब्बतियों के साथ भारत में शरण ली। ये लोग भारत में नेफा वर्तमान अरुणाचल प्रदेश में आ गए।
30 मार्च, 1959 को भारत सरकार ने दलाई लामा को शरण दी। 4 अप्रैल, 1959 को प्रधानमंत्री नेहरू ने देश की सुरक्षा और अखंडता, चीन के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध और तिब्बत के लोगों से गहरी सहानुभूति को भारत की नीति मानते हुए तिब्बती शरणार्थीयों को तुरंत शरण दी गई और उन्हें राहत हेतु राज्यों से उनकी बस्तियों के लिए भूमि आवंटित करने का अनुरोध करके बस्तियों की व्यवस्था की।


29 अप्रैल, 1959 को धर्मशाला में निर्वासित तिब्बती सरकार की स्थापना के बाद से तिब्बतियों ने अपनी मातृभूमि के बाहर शासन की अपनी प्रणाली विकसित की है। तिब्बत की इस निर्वासित सरकार का चुनाव भी होता है। इस चुनाव में दुनियाभर के तिब्बती शरणार्थी वोटिंग करते हैं। वोट डालने के लिए शरणार्थी तिब्बतियों को रजिस्ट्रेशन करवाना होता है। तिब्बती संसद का मुख्यालय हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में है।
चुनाव में वोट डालने और चुनाव लड़ने का अधिकार सिर्फ उन तिब्बतियों को होता है जिनके पास ‘सेंट्रल टिब्बेटन एडमिनिस्ट्रेशन’ द्वारा जारी की गई ‘ग्रीन बुक’ होती है। ये बुक एक पहचान पत्र का काम करती है।
भारत में उच्च न्यायालय के आदेश की पालना में 2014 में, चुनाव आयोग ने सभी भारतीय राज्यों को निर्देश दिया कि वे भारत में जन्मे तिब्बतियों और उनके वंशजों को मतदाता सूची में शामिल करें। जिसके आधार पर 26 जनवरी, 1950 से 1 जुलाई, 1987 के बीच भारत में जन्मे तिब्बती शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता प्रदान की जा सकती है। चूंकि तिब्बती लोग अपने दिलों में यह सोच बनाए हुए हैं कि कभी न कभी अनुकूल समय आने पर अपने देश वापस जाएंगे इसलिए ये लोग भारत की नागरिकता लेकर अपनी मूल पहचान को खोना नहीं चाहते।
धर्मशाला सरकार का कहना है कि अगर तिब्बती भारतीय नागरिकता ले लेते हैं, तो वे अपने उद्देश्य और संघर्ष से ध्यान हटा लेंगे। इनके भारतीय नागरिकता नहीं लेने के पीछे एक कारण यह भी है कि भारतीय नागरिकता लेने पर इन्हें शरणार्थीयों के रूप में मिलने वाले सभी लाभों को छोड़ना पड़ता है। भारत में लगभग 120,000 तिब्बती रहते हैं, जिनमें से लगभग 48,000 मतदान के पात्र हैं।
नवीनतम आम चुनावों में, 1 जून 2024 को हिमाचल प्रदेश में सातवें चरण के मतदान में उल्लेखनीय संख्या में तिब्बतियों ने भाग लिया। अन्य शरणार्थियों की तुलना में तिब्बती लोग आत्मनिर्भर समुदाय बन गए है। ये लोग हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ के रूप में नहीं है। भारत में बसने वाले तिब्बती अपनी अनूठी संस्कृति, विरासत और पहचान के साथ एक राष्ट्रीय संपत्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए। विकसित भारत-2047 के दृष्टिकोण, वसुधैव कुटुम्बकम, अतिथि देवो भव, ‘सब का साथ सबका विकास’ की नीति के चलते यह उचित और न्यायसंगत प्रतीत होता है कि भारतीय तिब्बती मूल के व्यक्तियों के सर्वांगीण विकास और संरक्षण के लिए उनके प्रतिनिधित्व की आवश्यकता है।
-लेखक नागरिक सुरक्षा मंच के संस्थापक अध्यक्ष और पेशे से अधिवक्ता हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *