श्रवण सिंह राठौड़.
इस पूरी सदी में शायरों के शायर और शायरी-गजलों के बेताज-बादशाह डॉ. बशीर बद्र साहब को मोहब्बत और अमन का फरिश्ता बोलूं तो गलत नहीं होगा। उन्होंने शायरी, ग़ज़ल और नज़्मों को ही ताजिंदगी पहना है ओढा है, खाया है, पीया है और जीया है। वो आज 89 साल की इस बढ़ती उम्र और कमजोर याददाश्त के चलते भले ही खामोश रहते हो, लेकिन पूरा जमाना उनके शेर, शायरी, गजले और नज़्में ही गुनगुनाता है। उर्दू नहीं जानने वाला भी बशीर साहब की लिखी शेरो शायरियों को उतना ही मखमली एहसास के साथ गुनगुनाता है, समझता है, और उनके माध्यम से अपने भावों को अभिव्यक्ति देता है। वो आम आदमी की भाषा में ही ताजिंदगी लिखते रहे। बशीर साहब सिर्फ एक शायर नहीं है, वो एक नजरिया है, एक दर्शन है, एक विचार है और हमारे भावों की अभिव्यक्ति के आधार है।
बशीर साहब अब बहुत सारी बातें याद नहीं रख पाते हैं। उनकी याददाश्त कमजोर हो गई है। लेकिन जब भी उनकी पत्नी डॉ राहत उनके कान में उन्हीं की शायरी को गुनगुनाती है, तो उनके जेहन में वो सारी मोहब्बत की दास्तां, गजलें और शायरियों की मधुर स्मृतियां फिर रह रहकर लौटने की कोशिश करती दिखती है। वो साथ देते हुए गुनगुनाते हैं। बशीर साहब ने 7 साल की उम्र से गजल लिखना शुरु कर दिया था। 15 फरवरी 1935 में अयोध्या में जन्मे बशीर साहब ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से बीए है। जब वो वहां से एमए कर रहे थे, तब उन्हीं की लिखी गजलें उनके एग्जाम का हिस्सा थी, तब उनका पेपर बदलकर दूसरा दिया गया।
बशीर साहब के साथ मेरी खूबसूरत यादें है। मैं दैनिक भास्कर भोपाल में 2005 -06 में तब सिटी रिपोर्टर हुआ करता था। उन दिनों मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी में में बशीर साहब थे। वहां सरकारी मुलाजिमों की कारस्तानियों से ये शायर परेशान था। तब मैंने कई खबरें उस विषय में प्रकाशित की थी। वो मेरे से बहुत स्नेह रखने लगे थे। इसके बाद उनसे मेल मुलाकातों का सिलसिला चल पड़ा था। वह खाली समय मे हमें कई बार शेरो शायरियां सुनाते थे। उनका दिल बच्चे के जैसा ही नज़र आता था। एकदम मासूम और सरल। कोई बनावटीपना नहीं। एक दिन मैं दैनिक भास्कर भोपाल के ऑफिस में था। तभी भास्कर के चेयरमैन रमेश अग्रवाल साहब के निजी सहायक विश्वकर्मा जी मेरे पास एडिटोरियल आए, उन्होंने कहा कि अंदर चेयरमैन साहब के चेंबर में आओ, वहां डॉक्टर बशीर साहब आप से मिलने आए हैं। मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। मैं जब अंदर गया तब वो सामने बैठे थे। मैंने अदब से उन्हें नमस्कार किया, संकोच से बोला कि फोन किया होता तो मैं खुद भी उर्दू अकादमी हाजिर हो जाता। तब बशीर साहब ने मुस्कुरा कर कहा, नहीं, आज खबर नहीं छपवानी। मैं आज तुम्हें मेरी लिखी गजलों की किताब उपहार में देने आया हूं, जब तुम राजस्थान चले जाओगे तो मेरी यह गजलें तुम्हें याद दिलाती रहेगी। किताब बशीर साहब के हस्ताक्षर से उन्होंने मेरा नाम और सप्रेम भेंट लिखकर मुझे दी। वो किताब मेरे लिए जीवन का अनमोल तोहफा है। इतना बड़ा शायर एक अदने से रिपोर्टर को उसके ऑफिस में आकर मिले और अपनी किताब मासूमियत के साथ उपहार में भेंट करने आ जाये, ये उनके व्यक्तित्व के बड़प्पन को दर्शाता है। उन्होंने मोहब्बत को सिर्फ़ लिखा नहीं है, मोहब्बत को जिया है। उस खूबसूरत पल को मेरे दोस्त भास्कर के तत्कालीन फोटोजर्नलिस्ट साथी अबरार जी ने कैमरे में कैद किया। आज भी जब मैं किताब और फोटो देखता हूं तो मुझे बशीर साहब याद आते हैं। उनकी बातें याद आती है। उनकी खूबसूरत शेरो शायरियां याद आती है। जब भी कभी फेसबुक पर किसी के द्वारा बशीर साहब का लिखी शायरी को फ़ोटो के साथ लाइक कमेंट्स बटोरते हुए देखता हूँ तो मेरे जेहन में बशीर साहब की मधुर स्मृतियां ताजा हो जाती है।
जब मैं सोशल मीडिया पर बशीर साहब की ताजा हालात के बारे में देखता हूँ तब तब महान शायर को इस हालत में देखकर मेरी आंखें भर आती है। अपने चहेते और दुनिया के सबसे मशहूर शायर को अपनी खुद की लिखी गजलों को इस तरफ याद करने की असफल कोशिश करते हुए देखकर मेरा मन भर गया। वक्त बादशाह होता है।
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दुश्मनी जम कर करो,
लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त बन जाए
तो शर्मिंदा ना हो ।
बशीर साहब ने यह शेर देश के बंटवारे के बाद लिखा था। इसे शिमला समझौते के समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सुनाया था। मैं और आपमें से बहुत सारे लोग जब कम उम्र में समझ नहीं आने की वजह से बशीर साहब को नहीं जानते थे, तब भी जाने अनजाने बशीर साहब के लिखे शेर बोलते थे। मुझे उनका लिखा पसंदीदा शेर
उजाले अपनी यादों के
हमारे साथ रहने दो,
न जाने जिंदगी की
किस गली में शाम हो जाए।
गजलों को लोकप्रिय बनाने में बशीर साहब का नाम पहली पंक्ति में है। बशीर साहब की भाषा में रवानगी है।
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा
इतना मत चाहो उसे वह बेवफा हो जाएगा
हम दरिया हैं, अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा।
7 साल की उम्र में ही उन्होंने गजल लिखना शुरू कर दिया था।
उन्होंने इतना लिख दिया है कि आने वाली पीढ़ियां उन्हें जिंदगी भर गाती गुनगुनाती रहेगी, तब भी वह कम नहीं पड़ेगा। बशीर साहब में महफ़िल को खुशनुमा बनाने की हुनर में महारत हासिल थी।
मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली उनकी आदतों पर कह गए ‘जहां भी मिलते हैं गजलें सुनाते हैं, यह बता कर कि शेर नए हैं।’ मेरठ में उन्होंने 15 साल तक एक कॉलेज में विभागाध्यक्ष के रूप में काम संभाला उसी दौरान उनके घरों में आग लगा दी तब उनकी जुबान से निकला–
लोग टूट जाते है एक घर बनाने में
और तुम बाज़ नहीं आते बस्तियां जलाने में।
बशीर बद्र आसान लफ़्ज़ों में गहरी बात कहने वाले सुखन के उस्ताद हैं। गाहे-बगाहे उनके शेर संसद में नेताओं की आवाज़ बनते हैं तो कभी किसी माशूक के दिल का हाल बयां करते हैं। 15 फरवरी 1936 को पैदा हुए उर्दू अदब के इस सितारे को 1999 में पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है।
पढ़ें आम आदमी के शायर बशीर बद्र के ख़ास शेर……
बे-वक़्त अगर जाऊंगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
उदासी पत-झड़ों की शाम ओढ़े रास्ता तकती
पहाड़ी पर हज़ारों साल की कोई इमारत सी
वो जिन के ज़िक्र से रगों में दौड़ती थीं बिजलियां
उन्हीं का हाथ हम ने छू के देखा कितना सर्द है
दिन भर धूप की तरह से हम छाए रहते हैं दुनिया पर
रात हुई तो सिमट के आ जाते हैं दिल की गुफाओं में
ये फूल हैं या शे‘रों ने सूरतें पाई हैं
शाख़ें हैं कि शबनम में नहलाई हुई ग़ज़लें
जिन का सारा जिस्म होता है हमारी ही तरह
फूल कुछ ऐसे भी खिलते हैं हमेशा रात को
पत्थर के जिगर वालो ग़म में वो रवानी है
ख़ुद राह बना लेगा बहता हुआ पानी है
मैं ने इक नॉवेल लिक्खा है आने वाली सुब्ह के नाम
कितनी रातों का जागा हूं नींद भरी है आंखों में
अदब नहीं है ये अख़बार के तराशे हैं
गए ज़मानों की कोई किताब दे जाओ
भटक रही है पुरानी दुलाइयां ओढ़े
हवेलियों में मिरे ख़ानदान की ख़ुशबू
आज हिन्दुस्तान में दूसरा कोई शायर इनके जैसे मासूम और रेशमी एहसास में लिपटे शेर कहने वाला नहीं है। आज भले ही उम्र और बीमारी की वजह से ये मुशायरों से दूर रहते हों लेकिन एक वक्त था जब किसी भी मुशायरे में इनकी उपस्थिति उसकी कामयाबी की गारंटी मानी जाती थी। अपने तरन्नुम और मुहब्बत में डूबी शायरी से ये सुनने वाले पर जादुई असर डालते थे।
गौर फरमाएं –
मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है
खुदा इस शहर को महफूज़ रखे
ये बच्चों की तरह हँसता बहुत है
इसे आंसू का एक कतरा न समझो
कुआँ है और ये गहरा बहुत है
मैं हर लम्हे में सदियाँ देखता हूँ
तुम्हारे साथ इक लम्हा बहुत है
मुहब्बत की जुबान कभी बासीज नहीं पड़ती इसी लिए बद्र साहब की शायरी आप जब जितनी बार पढ़ें हमेशा ताज़ा लगती है.
बेवक्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
जिस दिन से चला हूँ मेरी मंजिल पर नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा
ये फूल कोई मुझको विरासत में मिले हैं
तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छू कर नहीं देखा
गुलज़ार साहब ने एक जगह कहा है ‘डॉ. बशीर बद्र से जब मिला था तो लगा ज़िन्दगी ने एक और एहसान किया। उनकी ग़ज़ल में आज ही के दौर का एहसास होता है। उनकी ग़ज़ल का शेर सिर्फ एक ख्याल ही नहीं रह जाता, हादसा भी बन जाता है, अफसाना भी। मैं डा. बशीर बद्र का बहुत बड़ा फैन हूँ। गुलज़ार साहब ही क्यूँ हर वो इंसान जिसने बशीर साहब को पढ़ा या सुना है उनका फैन बने बिना रह ही नहीं सकता।
आंसुओं से मिरी तहरीर नहीं मिट सकती
कोई कागज़ हूँ कि पानी से डराता है मुझे
दूध पीते हुए बच्चे की तरह है दिल भी
दिन में सो जाता है रातों में जगाता है मुझे
सर पे सूरज की सवारी मुझे मंज़ूर नहीं
अपना कद धूप में छोटा नज़र आता है मुझे
पद्मश्री बशीर बद्र साहब का जन्म 15 फरवरी 1935 को अयोध्या में हुआ। मेरठ में कुछ सिरफिरों ने बशीर साहब का घर आग में जला दिया। और उसके कुछ समय बाद उनकी पत्नी का भी देहांत हो गया। इन दोनों हादसों ने बशीर साहब को तोड़ कर रख दिया। उन्होंने दुनिया और अपनी शायरी से नाता तोड़ लिया। दोस्तों और रिश्तेदारों के बेहद इज़हार के बाद वो भोपाल चले आये जहाँ उनकी मुलाकात डॉ. राहत से हुई जिनसे बाद में उन्होंने निकाह भी किया। डॉ. राहत ने बशीर साहब के टूटे दिल को फिर से जिंदगी की ख़ूबसूरती से रूबरू करवाया। उसके बाद बशीर साहब ने फिर मुड़ कर नहीं देखा।
बस गयी है मिरे एहसास में ये कैसी महक
कोई ख़ुशबू मैं लगाऊं तिरी ख़ुशबू आये
मैंने दिन रात खुदा से ये दुआ मांगी थी
कोई आहट न हो दर पे मिरे और तू आये
उसने छू के मुझे पत्थर से फिर इंसान किया
मुद्दतों बाद मिरी आँखों में आंसू आये
कोई पत्थर नहीं हूँ कि जिस शक्ल में मुझको चाहो बनाया बिगाड़ा करो
भूल जाने की कोशिश तो की थी मगर याद तुम आ गए भूलते भूलते
आँखें आसूं भरी, पलकें बोझिल घनी, जैसे झीलें भी हों नर्म साये भी हों
वो तो कहिये उन्हें कुछ हंसी आ गयी, बच गए आज हम डूबते डूबते
अब वो गेसू नहीं हैं जो साया करें अब वो शाने नहीं जो सहरा बनें
मौत के बाजुओ तुम ही आगे बढ़ो थक गए आज हम घूमते घूमते
अपनी बेमिसाल शायरी के लिए बशीर साहब को ढेरों पुरूस्कार मिले हैं जिनमें सबसे अहम् हैं, भारत सरकार द्वारा दिया गया ‘पद्म श्री’ है। पुरस्कार शब्द उनके लिए छोटा है। दुनिया भर में फैले उनके लाखों प्रशंशकों की फरमाइश पर उन्हें बहुत विदेश यात्रायें भी कीं। वो जहाँ गए वहीँ बस छा गए। उनकी शायरी पर शहरयार साहब ने कहा हैष् नयी ग़ज़ल पर किसी भी उनवान से गुफ्तगू की जाय बशीर बद्र का जिक्र जरूर आएगा. वो एक सच्चे और जिंदा शायर हैंष्
पास रह कर जुदा सी लगती है
ज़िन्दगी बेवफ़ा-सी लगती है
नाम उसका लिखा है आँखों में
आंसुओं की खता सी लगती है
प्यार करना भी जुर्म है शायद
मुझसे दुनिया खफा सी लगती है
बशीर साहब की ग़ज़लों को यूँ तो बहुत से गायकों ने अपना स्वर दिया है। खास तौर पर जगजीत सिंह जी ने तो उनकी बेशुमार ग़ज़लें गायीं हैं लेकिन सन 2003 में भारत में पहली बार एक फिल्म बनी जिसमें हाड मांस के किरदारों के साथ एनिमेटेड कलाकार भी थे। फिल्म थी ‘भागमती’। उस फिल्म का एक गीत था जिसे बशीर बद्र साहब ने लिखा, रेखा भारद्वाज जी ने गाया और हेमा मालिनी पर फिल्माया गया था। आप ये गीत सुनिए और देखिये।
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मैं ख़ुद भी एहतियातन उस गली से कम गुज़रता हूं
कोई मासूम क्यों मेरे लिए बदनाम हो जाए।
दूध पीते हुए बच्चे की तरह है दिल भी
दिन में सो जाता है रातों में जगाता है मुझे
उसने छू के मुझे पत्थर से फिर इंसान किया
मुद्दतों बाद मिरी आँखों में आंसू आये
इस सदी के महानायक बशीर बद्र साहब सही मायने में भारत रत्न के हकदार है। एक दिन देर सवेर उन्हें जरूर भारत रत्न से नवाजा जाएगा।
-लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं