



डॉ. संतोष राजपुरोहित.
भारत, जिसे कभी विश्व का सबसे युवा राष्ट्र कहा गया, आज बेरोजगारी के अंधेरे में धकेले गए सपनों का मूक गवाह बन चुका है। देश में जब हर दिन हजारों युवा अपनी आँखों में नौकरी पाने का सपना लिए जागते हैं और शाम होते-होते निराशा की ओढ़नी ओढ़कर सो जाते हैं, तब यह केवल एक आंकड़ा नहीं, बल्कि उस तंत्र की विफलता का आईना होता है जो युवाओं से वादे तो करता है, मगर उन्हें अवसर नहीं दे पाता। हाल ही में राजस्थान की चपरासी भर्ती ने जिस तरह पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है, वह हमारे शिक्षा तंत्र, रोजगार नीति और सामाजिक व्यवस्था पर कठोर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। 53,000 पदों के लिए जब 24 लाख से अधिक आवेदन आते हैं, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि देश में बेरोजगारी एक विकराल रूप धारण कर चुकी है। खास बात यह कि इन आवेदकों में एमबीए, एम.टेक, पीएच.डी जैसे डिग्रीधारी युवा भी शामिल हैं। जिनके सपनों में कॉर्पाेरेट सेक्टर की चमक-दमक, बड़े शहरों की ऊँची इमारतों में ऑफिस, देश-विदेश में काम करने की आकांक्षा थी, वही युवा 18,000 की मासिक तनख्वाह वाली चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन देने को मजबूर हो जाते हैं। यह दृश्य न केवल शिक्षा नीति की विफलता का प्रतीक है, बल्कि उस सरकारी ढांचे की भी पोल खोलता है जो रोजगार सृजन को लेकर केवल घोषणाओं तक सीमित रह गया है।
देश के नीति-नियंताओं को यह समझना होगा कि रोजगार देना केवल सरकार का कर्तव्य नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक स्थायित्व के लिए आवश्यक है। जब बड़ी संख्या में पढ़ा-लिखा युवा बेरोजगार रह जाता है, तो समाज में निराशा, असंतोष, अपराध और अव्यवस्था जैसी प्रवृत्तियाँ जन्म लेने लगती हैं। राजस्थान की इस भर्ती प्रक्रिया में आवेदन देने वालों की प्रोफाइल को देखें तो पता चलता है कि बी.टेक, एम.टेक, एमबीए और पीएचडी जैसी उच्च शैक्षणिक योग्यता वाले युवा भी नौकरी पाने के लिए लाइन में लगे हैं। यह कैसी विडंबना है कि जिन युवाओं को देश के विकास की रीढ़ कहा जाता है, वे मामूली पद के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

यह केवल एक राज्य का मामला नहीं है। इसी तरह उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, ओडिशा और राजस्थान जैसे राज्यों में सरकारी नौकरियों के लिए लाखों आवेदन आते हैं। कुछ समय पूर्व उत्तर प्रदेश पुलिस कांस्टेबल भर्ती में मात्र 60,000 पदों के लिए 40 लाख से अधिक आवेदन आए थे। एक अन्य उदाहरण में रेलवे की ग्रुप-डी भर्ती में डेढ़ करोड़ आवेदन प्राप्त हुए। क्या यह आंकड़े देश की अर्थव्यवस्था की ताकत को दर्शाते हैं या फिर उसकी कमजोरियों को? जब 76 हजार पदों के लिए 24 लाख आवेदन आते हैं और भर्ती प्रक्रिया में ही वर्षों लग जाते हैं, तो युवाओं की हताशा और पीड़ा का अनुमान लगाना कठिन नहीं।
शिक्षा व्यवस्था भी इस संकट के लिए कम दोषी नहीं। आज की शिक्षा प्रणाली केवल डिग्रीधारी युवाओं की फौज तैयार कर रही है, जिनके पास ना तो व्यावसायिक कौशल है और ना ही कोई विशेष हुनर। स्कूल-कॉलेजों में केवल किताबी ज्ञान भराया जा रहा है, जिसका रोजगार से कोई सीधा संबंध नहीं है। यही कारण है कि बी.टेक, एमबीए जैसी डिग्रियों के बाद भी युवा नौकरी पाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं। रोजगार के अवसर सीमित हैं और उसमें भी निजीकरण और ठेका प्रथा ने नौकरियों की सुरक्षा को खत्म कर दिया है। स्थायी सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार घटती जा रही है और निजी क्षेत्र में भी कॉन्ट्रैक्ट वर्क कल्चर हावी है।
एक ओर सरकार ‘स्किल इंडिया’ और ‘मेक इन इंडिया’ जैसी योजनाओं की बात करती है, तो दूसरी ओर आंकड़ों की हकीकत अलग ही कहानी बयां करती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के अनुसार भारत में बेरोजगारी दर पिछले 45 वर्षों में सबसे अधिक है। वहीं सीएमआईई के आंकड़े बताते हैं कि देश में औसतन बेरोजगारी दर 7.5 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह आंकड़ा और भी चिंताजनक है। यह केवल सरकारी नीति की विफलता नहीं, बल्कि समाज में बढ़ती असमानता और अवसरहीनता का परिचायक है।

बेरोजगारी केवल आर्थिक समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक संकट भी है। जब पढ़े-लिखे युवा हाथ में डिग्री लेकर वर्षों बेरोजगार रहते हैं, तो उनके मन में व्यवस्था के प्रति अविश्वास और नाराजगी पनपती है। यही नाराजगी कई बार सोशल मीडिया पर गुस्से के रूप में, कभी आंदोलनों के रूप में तो कभी अपराध के रूप में सामने आती है। सोशल मीडिया इस असंतोष का सबसे बड़ा मंच बन चुका है। जहां युवा बेरोजगारी पर तंज कसते हैं, सरकारों को घेरते हैं और अपनी व्यथा साझा करते हैं। राजस्थान की भर्ती के दौरान भी अभ्यर्थियों ने सोशल मीडिया को हथियार बनाकर व्यवस्था की पोल खोली और एक नई बहस खड़ी कर दी।
आज का युवा डिग्री लेने के बाद जिस तरह एक अदद सरकारी नौकरी के पीछे भाग रहा है, वह कई सवाल खड़े करता है। क्या शिक्षा केवल सरकारी नौकरियों के लिए है? क्या शिक्षा का उद्देश्य केवल सरकारी सिस्टम का हिस्सा बनना है? या फिर शिक्षा का उद्देश्य युवा को आत्मनिर्भर और उद्यमशील बनाना है? दुर्भाग्य से हमारी व्यवस्था ने शिक्षा को केवल नौकरी के नजरिए से ही देखा और पढ़ाई को रोजगार के सांचे में फिट कर दिया। परिणामस्वरूप, निजी क्षेत्र में भी अवसर घटे और स्वरोजगार की संभावनाएं भी सिकुड़ गईं।
एक और बड़ी समस्या यह भी है कि सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार घट रही है। 1991 के बाद आर्थिक उदारीकरण के दौर में सरकारी नौकरियों में नियुक्ति दर में भारी गिरावट आई। केंद्र और राज्य सरकारें स्थायी पदों के स्थान पर संविदा और आउटसोर्सिंग के जरिये काम करवाने लगीं। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकारी पद तो रिक्त रहे लेकिन नियुक्ति नहीं हुई। यही कारण है कि राजस्थान की जिस भर्ती प्रक्रिया की चर्चा हो रही है, उसमें भी 2018 की अधिसूचना के बाद अब जाकर परीक्षा हो रही है। यानी नियुक्ति प्रक्रिया में देरी, पारदर्शिता की कमी और अनावश्यक फीस वसूली, बेरोजगारी को और अधिक विकराल बना रहे हैं।

फीस वसूली की बात करें तो इस भर्ती प्रक्रिया में ही सरकार ने 600 रुपये से लेकर 1500 रुपये तक शुल्क वसूला। यदि औसत 600 रुपये ही प्रति आवेदन मानें तो 24 लाख आवेदनों से 144 करोड़ रुपये सरकार को प्राप्त हुए। यानी नौकरियों से अधिक परीक्षा शुल्क से कमाई करना अब एक व्यवसाय जैसा बन गया है। भर्ती प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी और अनिश्चितता के चलते कई अभ्यर्थी मानसिक अवसाद का भी शिकार हो रहे हैं।
युवाओं की यह पीड़ा केवल उनकी व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन का कारण बन रही है। जब बड़ी संख्या में पढ़ा-लिखा युवा बेरोजगार रहेगा, तो उसकी रचनात्मक ऊर्जा नकारात्मक दिशा में प्रवाहित होगी। यही कारण है कि बेरोजगारी से उपजे असंतोष ने कई बार आंदोलनों, उपद्रवों और सामाजिक विद्वेष को जन्म दिया। यह स्थिति केवल सामाजिक व्यवस्था के लिए ही नहीं, बल्कि देश की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए भी खतरा बन सकती है।

भारत की बढ़ती बेरोजगारी को नियंत्रित करने के लिए केवल सरकारी नौकरियों पर निर्भर रहना उचित नहीं। निजी क्षेत्र, लघु व कुटीर उद्योग, स्टार्टअप और स्वरोजगार को बढ़ावा देना अनिवार्य है। इसके लिए शिक्षा तंत्र को भी पूरी तरह बदलना होगा। व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा को अनिवार्य बनाकर युवाओं को हुनरमंद बनाया जाना चाहिए। सरकारी योजनाओं को कागज़ी दस्तावेज़ों से निकालकर जमीनी हकीकत में तब्दील करना होगा।
यह भी आवश्यक है कि रोजगार नीति में पारदर्शिता और त्वरित प्रक्रिया सुनिश्चित की जाए। जिस तरह एक-एक परीक्षा में वर्षों लग जाते हैं, वह न केवल युवाओं का भविष्य खराब करती है, बल्कि व्यवस्था के प्रति विश्वास भी समाप्त करती है। साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि नौकरियों का क्षेत्रीय और सामाजिक संतुलन बना रहे। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार अवसर सृजित कर वहां से शहरों की ओर होने वाले पलायन को भी रोका जा सकता है। बेरोजगारी की समस्या को हल्के में लेना अब संभव नहीं। यह एक सामाजिक विस्फोटक की तरह है, जो कभी भी फट सकता है। जिस प्रकार एक मामूली चपरासी की भर्ती ने देश भर में हलचल मचा दी, वह इस बात का संकेत है कि यदि समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो यह युवा असंतोष सामाजिक व्यवस्था को हिला कर रख देगा।
समाजशास्त्रियों का मानना है कि बेरोजगारी केवल आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक संकट भी है। जब बेरोजगारों की संख्या बढ़ती है, तो वह राजनीतिक रूप से भी अस्थिरता का कारण बनती है। यही कारण है कि रोजगार की कमी ने कई बार सरकारें गिराई हैं। इसीलिए युवाओं को रोजगार देना केवल आर्थिक जरूरत नहीं, बल्कि राजनीतिक अनिवार्यता भी बन गई है।
यदि भारत को 21वीं सदी में वैश्विक शक्ति बनना है, तो अपने युवाओं को रोजगार देना ही होगा। शिक्षा, कौशल विकास और रोजगार सृजन को सर्वाेच्च प्राथमिकता देनी होगी। स्वरोजगार और उद्यमिता को बढ़ावा देकर आत्मनिर्भर भारत के सपने को साकार करना होगा। नहीं तो बेरोजगारी का यह सूनामी एक दिन समूचे सामाजिक ताने-बाने को बहा ले जाएगी।
भारत का आर्थिक और सामाजिक इतिहास जब भी लिखा जाएगा, तो वर्तमान समय की बेरोजगारी को एक निर्णायक मोड़ की तरह याद किया जाएगा। यह केवल आंकड़ों का खेल नहीं, बल्कि उन सपनों की चिताएँ हैं, जो हर रोज इस बेरोजगारी की आग में जल रही हैं। जिस देश को अपनी युवा आबादी पर गर्व था, वही देश आज अपनी युवा शक्ति को रोजगार देने में असफल होता दिख रहा है। 2024-25 के ताज़ा आर्थिक आंकड़े और राष्ट्रीय समाचार पत्रों की रिपोर्ट्स जिस बेरोजगारी की तस्वीर पेश कर रही हैं, वह किसी भी संवेदनशील समाज के लिए चेतावनी से कम नहीं।
बेरोजगारी दर पिछले 45 वर्षों में सर्वाधिक होने का अर्थ सिर्फ आर्थिक कमजोरी नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवस्था की बुनियादी दरारों का संकेत है। राजस्थान की बहुचर्चित चपरासी भर्ती की घटना एक अकेली मिसाल नहीं, बल्कि पूरे भारत की नौकरी व्यवस्था और रोजगार नीति की असफलता का प्रतीक है। जब पीएचडी, एमबीए, एम.टेक और लॉ डिग्रीधारी युवा 18,000 रुपये प्रतिमाह की नौकरी के लिए आवेदन करने को मजबूर हों, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि देश की शिक्षा नीति और रोजगार नीति में भारी अंतरविरोध है।
शिक्षा व्यवस्था ने जिस तरह केवल डिग्रियां बांटने का काम किया है, उससे बाजार की जरूरत और कौशल विकास के बीच की खाई और गहरी हो गई है। देश के विश्वविद्यालय और कॉलेज वर्षों से वही पाठ्यक्रम पढ़ा रहे हैं, जिनकी व्यावहारिक उपयोगिता या तो नगण्य है या अप्रासंगिक हो चुकी है। इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट और पीएचडी जैसी डिग्रियां अब किसी रोजगार की गारंटी नहीं रह गईं। हालत यह है कि हर वर्ष लाखों युवा डिग्री लेकर नौकरी की तलाश में भटकते हैं और अंततः निराश होकर ऐसी नौकरियों की ओर रुख कर लेते हैं, जिनका उनके ज्ञान या योग्यता से कोई लेना-देना नहीं होता।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट्स बताती हैं कि भारत में शिक्षित बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दर 8 प्रतिशत के ऊपर और शहरी क्षेत्रों में 10 प्रतिशत से अधिक है। यह आंकड़ा उन देशों के मुकाबले दोगुना है, जो समान आर्थिक स्तर पर खड़े हैं। उदाहरण के लिए वियतनाम, बांग्लादेश और इंडोनेशिया जैसे देश बेरोजगारी पर अपेक्षाकृत बेहतर नियंत्रण रखते हुए रोजगार सृजन की दिशा में ठोस कदम उठा चुके हैं। वहीं भारत अभी भी रोजगार का ‘वादा’ करने और आंकड़ों को छिपाने की नीति में उलझा है।
रोजगार संकट ने समाज में एक अलग तरह की बेचैनी और मनोवैज्ञानिक असंतुलन भी पैदा किया है। लगातार बेरोजगार रहने की वजह से युवा डिप्रेशन, चिंता, और सामाजिक अलगाव जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2023 में बेरोजगारी की वजह से आत्महत्या करने वालों की संख्या 14,000 के पार पहुँच चुकी है, जो पिछले वर्षों के मुकाबले लगभग 20 प्रतिशत अधिक है। यह किसी समाज के लिए सबसे बड़ा दुर्भाग्य है, जब उसका पढ़ा-लिखा युवा वर्ग हताशा में जीवन समाप्त करने को मजबूर हो जाए।
इसके अलावा बेरोजगारी का सीधा असर अपराध दर पर भी पड़ा है। एनसीआरबी के ताज़ा आंकड़ों में यह बात सामने आई है कि बेरोजगारी और गरीबी से तंग आकर बड़ी संख्या में युवा छोटे-बड़े अपराधों में लिप्त हो रहे हैं। राजस्थान, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में बेरोजगार युवाओं द्वारा किए जाने वाले अपराधों में उल्लेखनीय बढ़ोतरी देखी गई है। चोरी, लूट, ठगी और साइबर क्राइम जैसी घटनाएँ बेरोजगारी से उपजे असंतोष का परिणाम हैं।
भारत में बेरोजगारी की समस्या का एक और गंभीर पक्ष यह है कि यहाँ पर रोजगार सृजन की योजनाएँ या तो कागजों में अटकी रह जाती हैं या आधे-अधूरे तरीके से लागू होती हैं। ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’, ‘स्टार्टअप इंडिया’ जैसी योजनाएँ अच्छे इरादों के साथ शुरू हुईं, लेकिन इनके परिणाम ज़मीन पर अपेक्षित नहीं दिखे। नीति आयोग और श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट्स बताती हैं कि स्टार्टअप इंडिया योजना के तहत अब तक जितने स्टार्टअप्स पंजीकृत हुए, उनमें से 40 प्रतिशत बंद हो चुके हैं या संचालन में भारी संकट झेल रहे हैं। इसी तरह स्किल इंडिया योजना में प्रशिक्षित हुए 60 प्रतिशत युवाओं को प्रशिक्षण के बाद भी रोजगार नहीं मिल सका।
रोजगार संकट का एक अहम पहलू यह भी है कि देश में उपलब्ध नौकरियों में सुरक्षित और स्थायी नौकरियों का प्रतिशत लगातार घट रहा है। 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद निजीकरण और आउटसोर्सिंग व्यवस्था ने नौकरियों में सुरक्षा और स्थायित्व समाप्त कर दिया। 2023 के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में कुल उपलब्ध नौकरियों का केवल 18 प्रतिशत ही स्थायी है, जबकि शेष अस्थायी, संविदा या आउटसोर्सिंग आधारित है। इससे न केवल कर्मचारियों की आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रभावित होती है, बल्कि कार्य संतुष्टि और जीवन स्तर भी गिरता है।
सार्वजनिक क्षेत्र में भी नियुक्ति दर में तेज गिरावट आई है। केंद्रीय मंत्रालयों, रेलवे, बैंक और अन्य सरकारी विभागों में वर्षों से पद रिक्त पड़े हैं। राजस्थान की जिस चपरासी भर्ती की चर्चा हो रही है, वहाँ भी 2018 में विज्ञप्ति निकली थी और अब 2024 में परीक्षा हुई है। इस दौरान कई अभ्यर्थी ओवरएज हो गए, कुछ ने निराशा में पढ़ाई छोड़ दी और कुछ अवसादग्रस्त होकर घर बैठ गए। यही हाल देश की अन्य सरकारी भर्तियों का भी है, जहाँ परीक्षा से लेकर नियुक्ति तक की प्रक्रिया वर्षों में पूरी होती है।
शिक्षित बेरोजगारी की स्थिति तब और विडंबनापूर्ण हो जाती है, जब देश की आबादी का बड़ा हिस्सा युवा हो। भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 62 प्रतिशत हिस्सा 15-59 वर्ष के बीच है। यह दुनिया की सबसे बड़ी वर्किंग एज ग्रुप है, लेकिन जब इसी वर्किंग एज ग्रुप को रोजगार ना मिले, तो ‘जनसांख्यिकीय लाभांश’ की जगह ‘जनसांख्यिकीय बोझ’ बन जाता है।
भारत में बेरोजगारी की स्थिति का आकलन करना हो तो उसकी तुलना अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य से करना आवश्यक हो जाता है। वियतनाम, इंडोनेशिया, बांग्लादेश और थाईलैंड जैसे देश, जो कभी भारत से कहीं पिछड़े माने जाते थे, अब रोजगार सृजन और श्रमिक सशक्तिकरण में भारत से आगे निकल चुके हैं। वियतनाम, जिसने शिक्षा में व्यापक सुधार किए और औद्योगिक निवेश को प्रोत्साहित किया, वहाँ बेरोजगारी दर 2.3 प्रतिशत से भी कम है। वहीं, बांग्लादेश ने गारमेंट उद्योग, लघु एवं मध्यम उद्योगों और महिला श्रमिक सशक्तिकरण को रोजगार सृजन का आधार बनाकर अपने युवाओं को बड़ी संख्या में रोजगार दिया।
दूसरी ओर, भारत में रोजगार सृजन की गति उसकी आबादी वृद्धि दर से काफी पीछे है। हर वर्ष देश में लगभग 1.2 करोड़ युवा रोजगार बाजार में प्रवेश करते हैं, जबकि औसतन 55-60 लाख नए रोजगार ही सृजित हो पाते हैं। ऐसे में शेष युवा बेरोजगार रह जाते हैं, जिससे हर वर्ष बेरोजगारों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है।
सरकार की नीतियों की बात करें, तो बीते वर्षों में ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘स्टार्टअप इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ जैसी महत्वाकांक्षी योजनाएँ शुरू की गईं। लेकिन इन योजनाओं का असर रोजगार सृजन में अपेक्षाकृत कम दिखा। उदाहरणस्वरूप, ‘मेक इन इंडिया’ के तहत वर्ष 2022-23 में केवल 3.6 लाख प्रत्यक्ष रोजगार ही सृजित हो सके, जबकि अनुमानित लक्ष्य 10 लाख था। इसी तरह स्टार्टअप इंडिया के अंतर्गत पंजीकृत स्टार्टअप्स में से 42 प्रतिशत बंद हो चुके हैं।
सरकारी भर्तियों का हाल और भी चिंताजनक है। रेलवे, बैंकिंग, पोस्ट ऑफिस, रक्षा और केंद्रीय मंत्रालयों में लाखों पद वर्षों से रिक्त हैं। एक ही भर्ती प्रक्रिया में पाँच-पाँच साल का समय लगना अब सामान्य बात हो गई है। इसका प्रमाण राजस्थान की चपरासी भर्ती है, जिसके लिए 2018 में आवेदन मंगवाए गए थे और 2024 में परीक्षा हो सकी।
शिक्षा और कौशल विकास भी बेरोजगारी का बड़ा कारण बन रहे हैं। देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था उद्योगों की आवश्यकताओं के अनुरूप प्रतिभा नहीं गढ़ पा रही है। हर साल लाखों डिग्रीधारी निकल रहे हैं, लेकिन उनमें वह व्यावसायिक दक्षता नहीं होती, जो उद्योगों को चाहिए। परिणामस्वरूप, रोजगार बाजार में ‘स्किल गैप’ तेजी से बढ़ रहा है।
स्किल इंडिया योजना के अंतर्गत सरकार ने वर्ष 2015 से अब तक करोड़ों युवाओं को प्रशिक्षित करने का दावा किया है। लेकिन प्रशिक्षित युवाओं में से 60-65 प्रतिशत को प्रशिक्षिण के बाद भी रोजगार नहीं मिल सका। कौशल विकास में गुणवत्ता, उद्योग से समन्वय की कमी और प्रमाणपत्रधारी बेरोजगारों की भीड़ ने समस्या को और जटिल बना दिया है।
स्वरोजगार और स्टार्टअप्स को बेरोजगारी का विकल्प माना गया, लेकिन इसमें भी कई समस्याएँ हैं। एक तो बैंकिंग व्यवस्था द्वारा कर्ज देने में अनावश्यक जटिलताएँ, दूसरी व्यावसायिक मार्गदर्शन का अभाव और तीसरी, बाज़ार की प्रतिस्पर्धा में टिके रहने की चुनौती। स्टार्टअप इंडिया के आंकड़े बताते हैं कि अब तक पंजीकृत स्टार्टअप्स में 40 प्रतिशत से अधिक स्टार्टअप्स पहले तीन वर्षों में ही बंद हो जाते हैं। महिलाओं की बेरोजगारी स्थिति और भी गंभीर है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण भारत में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत 2012 में 35 प्रतिशत था, जो 2023 में घटकर 19.5 प्रतिशत रह गया। शहरी भारत में यह आँकड़ा और भी चिंताजनक है। कारण है, रोजगार के अवसरों का अभाव, सामाजिक वर्जनाएँ और असुरक्षित कार्य-परिस्थितियाँ।
शहरी बेरोजगारी ने महानगरों में झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या और अपराध दर को भी प्रभावित किया है। शहरी बेरोजगारों में अपराध की प्रवृत्ति ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में दोगुनी है। जब उच्च शिक्षा प्राप्त युवा रोजगार न मिलने पर निराश होते हैं, तो उनमें सामाजिक और मानसिक अवसाद बढ़ता है। इसी हताशा की परिणति अपराध, नशा, और आत्महत्या जैसी घटनाओं में होती है।
देश में रोजगार संकट को लेकर अब राजनीतिक विमर्श भी तेज हो चुका है। सभी राजनीतिक दल चुनाव के समय रोजगार देने का वादा करते हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद यह मुद्दा हाशिए पर चला जाता है। बेरोजगारी आज भारतीय राजनीति का सबसे उपेक्षित और गूढ़ मुद्दा बन चुका है।
वर्तमान समय में रोजगार सृजन के लिए व्यापक सुधार और दीर्घकालिक नीति की आवश्यकता है। सबसे पहले शिक्षा व्यवस्था को उद्योगोन्मुखी बनाना होगा। विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों में उद्योगों के साथ साझेदारी करके विद्यार्थियों को रोजगारपरक शिक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण देना होगा। दूसरा, स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय संस्थाओं को लचीली और पारदर्शी ऋण नीति अपनानी चाहिए। छोटे स्टार्टअप्स और लघु व्यवसायों को ब्याज रहित या कम ब्याज पर कर्ज सुविधा मिलनी चाहिए। तीसरा, सरकारी नौकरियों की भर्ती प्रक्रियाओं को त्वरित और पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। लंबे समय से रिक्त पदों को प्राथमिकता से भरा जाना चाहिए। चौथा, महिला श्रमशक्ति की भागीदारी बढ़ाने के लिए सुरक्षित और लचीले कार्यस्थलों का निर्माण करना होगा। पाँचवाँ, ग्रामीण भारत में कृषि आधारित और ग्रामीण उद्योगों को रोजगार सृजन का केन्द्र बनाना होगा।
-लेखक भारतीय आर्थिक परिषद के सदस्य हैं
